Book Title: Jain Sanskruti me Samajwad Author(s): Umravkunvar Mahasati Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 2
________________ १५२ मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय एवं शोषण को समाप्त करने के लिये इन का उदय हुआ है. ये सब वाद व्यक्ति के हित की अपेक्षा समाज एवं राष्ट्र के हित को प्रमुखता देते हैं. अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, ऊंच-नीच, स्वामी-सेवक आदि के भेदों को तथा देश में चलने वाले शोषण को समूलत: नष्ट करना चाहते हैं. इन का मूल दृष्टिकोण यही है कि देश के सब व्यक्तियों को जीवन-विकास के लिये समान साधन मिलें, सब को सुख-शान्ति से रहने का अवसर मिले, खाने के लिये पर्याप्त भोजन और पहनने के लिये वस्त्र मिलें. देश में न कोई भूखा-नंगा रहे, न कोई अभावग्रस्त हो. किसी प्रकार की उत्पीड़ा न हो, पीडाकारी न हो. कोइ पीड़ित न हो. देश में ऐसी स्थिति न रहे कि एक ओर धन के अम्बार लगे हों, सम्पत्ति के पहाड़ खड़े हों और दूसरी ओर अभावों का नंगा नाच हो. एक वर्ग का हित और सुख दूसरे वर्ग का विरोधी न हो. वर्गसंघर्ष का आधार ध्वस्त हो जाय और मानवजाति पारस्परिक सहयोग से प्रगति की ओर प्रयाण करे. जैन-संस्कृति के लिये यह स्वर नया नहीं है. यदि हम सुदूर इतिहास की सरणियां न भी दोहरायें तो भी जैन-संस्कृति का पच्चीस सौ वर्ष का इतिहास हमारे सामने है. उस का अवलोकन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन-संस्कृति मानव-मानव के बीच भेद की दीवार को कतई नहीं मानती. वह प्रत्येक मानव को, भले ही वह किसी देश, रंग, लिंग, प्रान्त, वर्ग, व जाति का क्यों न हो, मानवता के नाते, समान मानती है.' वह जातिपूजा में नहीं, गुणपूजा में विश्वास करती है और गुणों के आधार पर ही उच्चत्व-नीचत्व को स्वीकार करती है !२ उसके अनुसार सब को समान प्रात्म-विकास करने का अधिकार है अतः किसी व्यक्ति का अपमान-तिरस्कार करना, उसे विकास करने का अवसर नहीं देना, उसका ही नहीं, बल्कि अपना एवं समस्त मानव-जाति का तथा परमात्मा का अपमान करना है. जैन-संस्कृति निःश्रेयस् की प्रेरक है. उसकी परिधि मानव तक ही नहीं, प्राणी मात्र तक विस्तृत है. वह प्राणी-मात्र का उदय-हित और कल्याण चाहती है. उसकी दृष्टि में विश्व के, सभी प्राणी समान हैं. अतः प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि उन्हें स्वतंत्रता-पूर्वक जीने दे, स्वतन्त्रता से अपना विकास करने दे. जैन-संस्कृति और साम्यवाद :- साम्यवाद के सिद्धांत जैन-संस्कृति से बहुत कुछ मिलते हुए हैं. साम्यवाद समाज में चल रहे शोषण, उत्पीड़न एवं वर्ग भेद को समाप्त करके राष्ट्र के सब व्यक्तियों का विकास करना चाहता है. वह मनुष्य-मनुष्य के बीच जातीय भेद की दीवार स्वीकार नहीं करता. आर्थिक वैषम्य को सहन नहीं करता. जैन-संस्कृति भी इस मन्तव्य को स्वीकार करती है. फिर भी जैन-संस्कृति और साम्यवाद में मौलिक सैद्धान्तिक एवं कार्य पद्धति संबन्धी अन्तर है. साम्यवाद भौतिकवाद पर आधारित है. वह आत्मा अर्थात् व्यक्ति की सर्वथा उपेक्षा करता है, एकान्तत: समाज की सत्ता स्वीकार करता है. वह शस्त्र की ताकत को ही सर्वोपरि मानता है अतः तलवार की धार से या बम की विषाक्त मार से समानता लाना चाहता है. वह वर्गभेद को समाप्त करने के लिये पाशविक बल का प्रयोग करने के पक्ष में है. परन्तु जैन-संस्कृति इस का समर्थन नहीं करती. उसका मूल आधार भौतिकवाद नहीं, अध्यात्मवाद है. वह व्यक्ति और समाज के अधिकारों में सामंजस्य स्थापित करती है, आत्मिक शक्ति को सर्वोपरि मानती है. अतः वह स्वेच्छात्याग की उदात्त भावना के द्वारा विभेद की दीवारों को गिराना चाहती है, वह अहिंसा, प्रेम, स्नेह, क्षमा, सहिष्णुता, तप और त्याग द्वारा मानव जीवन में साम्य की सरस, शीतल एवं मधुर सरिता बहाना चाहती है. इस प्रकार जैन-संस्कृति हिंसा में नहीं, प्रेम में विश्वास रखती है. पशुबल में नहीं, आत्मबल में विश्वास रखती है. और प्रेम-स्नेह एवं त्याग के द्वारा स्थापित की गई समानता को स्थायी मानती है. जैन-संस्कृति और सर्वोदय :-आधुनिक युग में सर्वप्रथम गांधीजी द्वारा प्रयुक्त सर्वोदय शब्द भारतवर्ष के लिये नूतन नहीं, १. मनुष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा-आचार्य जिनसेन. २. सक्खं खु दोसइ तवोविसेसो, न दीसइ जाइविसेस कोइ.---उत्तराध्ययन. Jain bucation Internationa) Line Liainelibrary.orgPage Navigation
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