Book Title: Jain Sanskruti aur Tattvagyan Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 8
________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ४१ प्रस्ताव संख्या ९ को कार्यान्वित करनेके लिये जो उपसमिति सिवनी अधिवेशन में बनायी गयी थी उसने, मुझे जहाँ तक मालूम है, अभी तक अपना कार्य प्रारम्भ नहीं किया है। मेरा उस उपसमितिके संयोजक श्री नीरज जैन सतनासे अनुरोध है कि वे इस प्रस्तावको क्रियात्मक रूप देने के लिये उचित कार्यवाही करे । प्रस्ताव संख्या १० इस दृष्टिसे पारित किया था कि समाजमें सांस्कृतिक विद्वानोंकी संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है और नवीन विद्वान तैयार नहीं हो रहे हैं, इसलिये दि० जैन संस्कृतिके संरक्षणकी जटिल समस्या सामने उपस्थित है । इसको हल करनेका यह उपाय उत्तम था कि गृहविरत त्यागीजन संस्कृतिके संरक्षणकी चिन्ता करने लगें व इस तरह वे अपने जीवनका अमूल्य समय संस्कृतिके तत्त्वज्ञानके अध्ययनमें लगायें। परन्तु ऐसे गहविरत त्यागियोंका मिलना दुर्लभ हो रहा है, जिनकी अभिरुचि संस्कृतिके तत्त्वज्ञानके अध्ययन की हो । अभी तीन-चार माह पूर्व श्रीमहावीरजीमें व्रती-विद्यालयकी स्थापना हुई थी, लेकिन जनवरीके अन्तिम सप्ताहमें श्री महावीरजी जानेपर देखा तो उस व्रती-विद्यालयमें व्रतियोंका अभाव-सा देखनेको मिला । दो-चार व्रती हैं भी, तो एक तो उनमें अध्ययनकी रुचि नहीं देखी गयी। दुसरे, वे वहाँ पर स्थिर होकर अध्ययन करेंगे-यह कहना कठिन है। इन्दौरका उदासीनाश्रम तो लम्बे समयसे स्थापित है, परन्तु वहाँसे एक भी उदासीन संस्कृतिका सर्वांगीण विद्वान बनकर बाहर आया है, यह नहीं कहा जा सकता है। इसी तरह और कई व्रती-विद्यालयोंकी स्थापना तथा समाप्तिके उदाहरण दिये जा सकते हैं। गहविरत त्यागियोंकी अध्ययनकी ओर रुचि क्यों नहीं ? इसका एक ही कारण है कि वे अपना लक्ष्य अध्ययन करनेका नहीं बनाते हैं। पुरातन कालमें हमारे महर्षियोंका लक्ष्य संस्कृतका अध्ययन-अध्यापन रहता था, इसलिये उनकी बदौलत ही आज हमें संस्कृतके महान् ग्रन्थ उपलब्ध हो रहे हैं। यदि अभी भी हमारे महर्षियोंका लक्ष्य संस्कृतके प्रकाण्ड विद्वान् बनने की ओर हो जाय, तो संस्कृतके संरक्षणकी समस्या हल होने में देर न लगे, परन्तु इसके लिये हमारे महषियोंमें एक तो अनुशासनकी भावना हो। दूसरे, ऐसे व्यक्तियोंको ही गृहविरत त्यागी, ब्रह्मचारी या मुनि बननेकी छूट होना चाहिये, जिनका लक्ष्य संस्कृतके प्रकाण्ड विद्वान् बनना हो। प्रस्ताव संख्या ११ को सफल बनानेके लिये समाजके लब्धप्रतिष्ठ श्रीमान साह शान्तिप्रसादजी ने १०००) वार्षिक विद्वत्परिषद्को देनेकी स्वीकारता दी है। इसके लिये विद्वत्परिषद् उनका प्रसन्नतापूर्वक आभार मानती है और विद्वानोंसे आशा करती है कि वे इससे समुचित लाभ लेकर संस्कृतिके संरक्षणमें अपना योगदान करेंगे। विद्वत्परिषद्ने सिवनी अधिवेशनमें ही संख्या ५ का एक प्रस्ताव स्व. पं० गुरु गोपालदासजी बरैयाकी सौवीं जयन्ती उच्चस्तरपर मनानेके सम्बन्धमें पारित किया था। प्रसन्नताकी बात है कि इस कार्यको सम्पन्न करनेके लिये बनायी गयी उपसमिति तत्परताके साथ कार्य कर रही है। इसके लिये यह उपसमिति और इसके संयोजक डॉ० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्य आरा अधिक-अधिक धन्यवादके पात्र हैं। समाज व विद्वानोंने भी इस कार्य में काफी दिलचस्पी दिखाकर आर्थिक सहयोग प्रदान किया है तथा इनसे आगे भी अत्यधिक आर्थिक सहयोग मिलनेकी आशा है। प्रत्येक विद्वानको भी अपना कर्तव्य समझकर इसमें आर्थिक सहयोग देना चाहिये। विद्वत्परिषदने सिवनी अधिवेशनके प्रस्ताव संख्या ८ द्वारा लेखक व वक्ता विद्वानोंसे अनुरोध किया था कि वे लेखों और प्रवचनोंमें शिष्टसम्मत शैलीका पालन करें और व्यक्तिगत आपक्षसे बचें। गत जनवरी मासके अन्तिम सप्ताहमें श्रीमहावीरजी तीर्थक्षेत्रपर भो उक्त विषयके सम्बन्धमें विद्वानों और श्रीमानोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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