Book Title: Jain Sangh me Bhikshuniyo ki Sheel Suraksha ka Prashna Author(s): Arun Pratap Sinh Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf View full book textPage 5
________________ १०९ जैन संघ में भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा का प्रश्न ३, ५ या ७ की संख्या में ही एक साथ जाने का विधान था। उनकी सुरक्षा के लिए साथ में एक स्थविरा भिक्षणी भी रहती थी। उन्हें उपयुक्त उपाश्रय में ही ठहरने का निर्देश दिया गया था । संदिग्ध चरित्र वाले स्वामी के उपाश्रय में रहना निषिद्ध था। उपाश्रय में भी उन्हें २, ३ या इससे अधिक की संख्या में ठहरने की सलाह दी गयी थी। उन्हें यह निर्देश दिया गया था कि उपाश्रय में रहते हुए वे परस्पर अपनी रक्षा में तल्लीन रहें। उपयुक्त उपाश्रय न मिलनेपर उन्हें रोष-बैरमाया आदि का त्याग कर, एकाग्र चित्त होकर ध्यान-अध्ययन करते हुए मर्यादापूर्वक रहने का निर्देश दिया गया था । नैतिक नियमों का पालन कठोरता से किया जाता था। उन्हें सांसारिक वस्तुओं के मोह से सर्वथा विरत रहने की सलाह दी गई थी। स्वयं स्नान करना तथा गृहस्थ के बच्चों को नहलाना तथा खिलाना पूर्णतया वर्जित था । सुन्दर दीखने के लिये अपने शरीर को सजाना तथा सुशोभित करना भी सर्वथा निषिद्ध था । भिक्षु-भिक्षुणियों के पारस्परिक सम्बन्धों के अति-विकसित होने से उनमें राग आदि की भावना उत्पन्न हो सकती थी-अतः उनके पारस्परिक सम्बन्धों को यथासम्भव मर्यादित करने का प्रयत्न किया गया था। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों में भिक्षुणियों के शील-सुरक्षार्थ अत्यन्त सतर्कता बरती जाती थी। इस सम्बन्ध में परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए अनेक नियमों का निर्माण किया गया था। इन नियमों की प्रकृति से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैन धर्म के आचार्यों ने इस सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन किया था। यही कारण था कि उन्होंने जिन नियमों का सृजन किया था उनमें उनकी सूक्ष्म मनोवैज्ञानिकता के दर्शन होते हैं। -शोध सहायक, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, आई० टी० आई० रोड, वाराणसी। १. मूलाचार, भाग प्रथम 4/194, पृ० 167 । २. "दो तिण्णि वा अज्जाओ बहुगीओ वा संहत्थति"-मूलाचार, भाग प्रथम, 4/191, पृ० 164 । ३. मूलाचार, भाग प्रथम, 41188-पृ०, 162 । ४. “अगृहस्थमिश्रनिलयेऽसन्निपाते विशुद्धसंचारे द्वे तिस्रौ बह्वयो वार्याः अन्योन्यानुकूलाः परस्पराभिरक्षणा भियुक्ता गतरोषवरमायाः सलज्जमर्यादक्रिया अध्ययनपरिवर्तनश्रवणकथनतपोविनयसंयमेषु अनुप्रेक्षासु च तथास्थिता उपयोगयोगयुक्ताश्चाविकारवस्त्रवेषा जल्लमलविलिप्तास्त्यक्तदेहा धर्मकुलकीर्तिदीक्षाप्रतिरूपविशुद्धचर्याः सन्त्यस्तिष्ठन्तीति समुदायार्थः ।" -मूलाचार, भाग प्रथम, 41191-टीका । पृ० 166 । ५. वही , भाग प्रथम, 41193, पृ० 164 । ६. वही, भाग प्रथम 41196, पृ० 168-169 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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