Book Title: Jain Sangh me Bhikshuniyo ki Sheel Suraksha ka Prashna
Author(s): Arun Pratap Sinh
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 1
________________ जैन संघ में भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा का प्रश्न अरुण प्रताप सिंह जैन ग्रन्थों के अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन काल से ही जैन संघ में भिक्षुणियों की संख्या भिक्षुओं से अधिक रही है। कल्पसूत्र के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के चौरासी हजार भिक्षु तथा तीन लाख भिक्षुणियाँ थीं ' ; अरिष्टनेमि के अठारह हजार भिक्षु तथा चालीस हजार भिक्षुणियाँ थीं २; पार्श्वनाथ के सोलह हजार भिक्षु तथा अड़तीस हजार भिक्षुणियाँ थीं ; तथा महावीर के चउदह हजार भिक्षु तथा छत्तीस हजार भिक्षुणियाँ थीं । ४ संघ में भिक्षुणियों की अधिक संख्या ने जहाँ एक ओर धर्म के प्रसार को अति व्यापक बनाया, वहीं दूसरी ओर भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा के प्रश्न को भी महत्त्वपूर्ण बना दिया । जैन आचार्यों के समक्ष सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा का था, एक स्त्री जब भिक्षुणी बन जाती थी, तो उसकी सुरक्षा का पूरा उत्तरदायित्व संघ पर आता था । जैन संघ में भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा किस प्रकार की जाती थी, इस सम्बन्ध में हमें नियमों की एक विस्तृत रूप-रेखा प्राप्त होती है । उपाश्रय में भिक्षुणी को कभी भी अकेला नहीं छोड़ा जाता था । यात्रा के समय उन्हें सुरक्षित आवास में ही ठहरने का निर्देश दिया गया था । सुरक्षित आवास न प्राप्त होने पर शीलसुरक्षा हेतु अनेक वैकल्पिक नियमों का विधान किया गया था । अनावृत द्वार वाले उपाश्रय में ठहरना भिक्षुणी के लिए निषिद्ध था । परन्तु आवृत द्वार वाले उपाश्रय के न मिलने पर वह अनावृत द्वार के उपाश्रय में रह सकती थी, यद्यपि इसके लिए निम्न सावधानियाँ रखी जाती थीं । अनावृत द्वार को छिद्ररहित पर्दे से दोनों ओर कसकर बाँधा जाता था । बन्धन अन्दर से ही खुलता था । उसके खोलने के रहस्य को या तो प्रतिहारी जानती थी या वह जो सिकड़ी बाँधती थी, अन्य कोई नहीं। सूत्रों के अर्थ में पारंगत ( सम्यगधिगतसूत्रार्था ), उच्चकुल में उत्पन्न ( विशुद्धकुलोत्पन्ना ), भयहीन (अभीरु), गठीले शरीर वाली ( वायामियसरीर ) बलिष्ठ प्रतिहारी उपयुक्त मानी जाती थी । वह हाथ में मजबूत डण्डा लेकर द्वार के पास बैठती थी, जो कोई भी भिक्षुणी - वेश में उपाश्रय के अन्दर प्रवेश करने का प्रयत्न करता था, प्रतिहारी भिक्षुणी उसकी पूरी जांच करती थी । वह आगन्तुक के सिर, गाल, छाती का भली प्रकार स्पर्श कर पता लगाती थी कि आने वाला व्यक्ति स्त्री है या पुरुष । फिर वह उसका नाम पूछती थी । इन सारी क्रियाओं के बाद जब वह सन्तुष्ट हो जाती थी कि वह भिक्षुणी ही है, तभी प्रतिहारी आगन्तुक को उपाश्रय के अन्दर प्रवेश की आज्ञा देती थी । उपाश्रय के अन्दर उसे देर तक रुकने या व्यर्थ का वार्तालाप करने की आज्ञा नहीं थी । यदि इन सारी सतर्कताओं के बावजूद भी कोई दुराचारी व्यक्ति उपाश्रय में प्रविष्ट हो जाता था, तो सभी भिक्षुणियाँ मिलकर भयंकर कोलाहल करती थीं। वे प्रविष्ट चोर या कामी पुरुष को I १. कल्पसूत्र, 197 पृ० 266 | ३. वही, 157 पृ० 220 1 ५. बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, 2331-52 १४ Jain Education International २. वही, 166 पृ० 236 1 ४. वही, 133-34, पृ० 198 । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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