Book Title: Jain Samt Vyapti Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 3
________________ अवश्यं भावनियम: क: परस्याऽन्यथा परैः । अर्थान्तरनिमित्ते वा धर्मे वाससि रागवत् ॥३४॥ प्रमाणवार्तिक स्वार्थानुमान-परिच्छेद पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्विधैव सः । अविनाभावनियमान् हेत्वाभासास्ततोऽ परे ॥३॥ जैनों का संशोधन यह है कि तादात्म्य और तदुत्पत्ति ये दो ही अविनाभाव के नियामक नहीं । बिना तादात्म्य-तदुत्पत्ति के भी सहभावी और क्रमभावी पदार्थों में अविनाभाव हो सकता अनुमान प्रयोग में भी जैनों का यह आग्रह नहीं है कि दृष्टान्त के आधार पर व्याप्ति का कथन किया जाय । इस विषय में चर्चा करते हुए जैनों ने व्याप्ति के दो प्रकारों की चर्चा की है—अन्तर्व्याप्ति और बहिर्व्याप्ति । अन्तर्व्याप्ति वह है जो प्रस्तुत साध्य और साधनगत है। और बहिर्व्याप्ति वह है जो प्रस्तुत साध्य और साधन के अतिरिक्त पदार्थों में भी देखी जाती है। यदि अन्तर्व्याप्ति सिद्ध है तो बहिर्व्याप्ति का उल्लेख दृष्टान्त द्वारा आवश्यक नहीं । अन्तर्व्याप्ति और बहिर्व्याप्ति का भेद करने के पीछे यह भी धारणा रही है कि कभी-कभी अन्वय दृष्टान्त के न होने पर भी व्याप्ति होती है और वह है अन्तर्व्याप्ति । असाधारण धर्म को लेकर साध्य जब सिद्ध करना होता है तब अन्वय दृष्टान्त का मिलना संभव नहीं होता। फिर भी असाधारण धर्म के बल पर साध्य की सिद्धि हो सकती है-इस मान्यता के आधार पर अन्तर्व्याप्ति का सामर्थ्य स्वीकृत हुआ है। आचार्य हेमचन्द्र ने व्याप्ति का जो लक्षण दिया है वह है व्याप्ति व्यापकस्य व्याप्ये सति भाव एव, व्याप्यस्य वा तत्रैव भावः । प्रमाणमीमांसा १.२.६ आचार्य हेमचन्द्र की यह व्याख्या आचार्य धर्मकीर्ति के हेतुबिन्दु की अर्चरटीका से लिया गया है। इसके विशेष विवरण के लिए प्रमाण मीमांसा के पंडित श्री सुखलालजी कृत भाषा टिप्पण को देखना चाहिए- पृ.७५-८० । टिप्पणी १-अष्टशती और अष्टसहस्त्री पृ.-७४, जैन संमत व्याप्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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