Book Title: Jain Samaj Darshan Author(s): Sangamlal Pandey Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 4
________________ चतुर्थ खण्ड / ५६ शक्तियाँ हैं। इनका दायित्व अपने सदस्यों को रोजगार देना है। ऐसी श्रेणियाँ प्राचीन काल में थी। आज इनका पुनरुद्धार करना है। इस प्रक्रिया में नवीनीकरण भी अपेक्षित है। अतः इन्हें श्रेणियाँ न कहकर व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्था का नाम देना है और इनकी व्यवस्था में गुणानुरूप सुधार करना है। ४. अहिंसा की प्रतिष्ठा अहिंसा जैनदर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है। उसमें अहिंसा की ऐसी व्यापक परिभाषा की गयी है कि समस्त सद्गुण या मूल्य अहिंसा के ही विकास सिद्ध होते हैं। अहिंसा का अर्थ जीव-हिंसा से विरमण ही नहीं किन्तु जीवन से प्रेम करना भी है। हिंसा समाज की आत्मघाती बुराई है। उसके बढ़ते रहने से समाज का अस्तित्व ही नष्ट होने लगता है। वह मानव-समाज को बर्बर या जंगली बना देती है। उसके रहते मात्रयन्याय तथा अराजकता रहते हैं । अतः सभ्यता हिंसा के परित्याग से प्रारम्भ होती है। ज्यों-ज्यों हिंसा छुटती है त्यों-त्यों अहिंसा का विकास होता है। पूर्ण अहिंसा की स्थापना से वैरत्याग हो जाता है। शत्रुभाव नष्ट होता है, मित्र भाव प्रकट होता है। ये सभी गुण सभ्य समाज के लक्षण हैं, इसलिए कहा जाता है कि अहिंसा पर ही सभ्य समाज प्रतिष्ठित है। अहिंसा का पालन करने के लिए समाज की स्थापना नहीं होती, वरन् इस नीति की भी स्थापना होती है जो उस समाज की प्रतिजीविता का हेतु है। यह नीति चार प्रकार की है, साम, दान, दण्ड और भेद । इनसे भिन्न युद्ध है जो वस्तुतः नीति की असफलता और बर्बरता की वापिसी है। इसलिए राज्य-संचालन के लिए साम, दान, दण्ड और भेद, इन चार नीतियों का ही प्रयोग होना चाहिए और हर संभव प्रकार से युद्ध को रोकने का प्रयास करना चाहिए। जिस राज्य में केवल दण्ड और भेद के सिद्धान्तों का पालन होता है वह जघन्य है। इसके साथ उसमें शान्ति (साम) और समवितरण (दान) के सिद्धान्तों का पालन भी अपेक्षित है। ५. अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा अनेकान्त की प्रतिष्ठा समाज के लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि समाज की अनेक बुराइयाँ तथा विविध प्रकार की हिंसाएँ एकान्तवाद को मानने के कारण होती हैं। एकान्तवाद का अर्थ है विचार की एक अति । जो लोग सोचते हैं कि उनका मत ही एकमात्र सत्य है और अन्य मनुष्यों के मत असत्य हैं, उनका मत एक अन्त या अति है। उससे कद्ररता धर्मान्धता, असहिष्णुता तथा हिंसा उत्पन्न होती है। विभिन्न धर्मों के पारस्परिक संघर्ष और विभिन्न विचारधाराओं के विवाद इसके उदाहरण हैं। इन संघर्षों और विवादों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए अनेकान्तवाद आवश्यक है जिसके अनुसार प्रत्येक मत या विचार किसी सन्दर्भ-विशेष में ही सत्य होता है और वह निरपेक्ष सत्य नहीं है। सभी सत्य सापेक्ष सत्य हैं । अतएव उन सब का सामंजस्य हो सकता है। अथवा वे सभी अपने-अपने अनुयायियों के लिए सत्य हो सकते हैं । इस प्रकार विभिन्न मतों की सह स्थिति संभव ही नहीं किन्त अपेक्षित भी है, ऐसा मानना अनेकान्तवाद है। स्पष्ट है कि अनेकान्तवाद प्रत्येक मनुष्य को नम्रता सहिष्णता, उदारता और करुणा की शिक्षा देता है। इनके बिना समाज की विविधता जी नहीं सकती। इसलिए अनेकान्तवाद समाज की आवश्यक प्रागपेक्षा या प्रतिष्ठा है। वह अहिंसा का भी प्राधार है । इसलिए निष्कर्षतः कहा जाता है कि विचार में जो अनेकान्तवाद है वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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