Book Title: Jain Sahitya me Ganitik Sanketan Author(s): Mukutbiharilal Agarwal Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf View full book textPage 7
________________ : 555 : जैन साहित्य में गाणितिक संकेत जन साहित्य में मासिक पतिः श्री जैल दिवकर स्मृति ग्रन्थ / श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ इसका आशय है न से है / द्वितीय वगित-संगित के लिए इस प्रकार लिखा जाता है / इसका आशय न को वगित-संगित करके प्राप्त राशि को पुनः वगित-संवगित करना है / अर्थात् ( न') है। जैसे 2 का द्वितीय वगित-संगित (२२)हुआ / अतः का 44 =256 हुआ। द्वितीय वर्गित-संगित राशि को पूनः एक बार वगित-संवगित करने पर तृतीय वगित-संवगित प्राप्त होता है। 2 के तृतीय वगित-संवगित को 'धवला' में इस प्रकार लिखा है२२ // 256 (256) वर्गमूल के लिए संकेत-'तिलोयपण्णत्ति' और 'अर्थसंदृष्टि' आदि में वर्गमूल के लिए 'म' का प्रयोग किया है। 'तिलोयपण्ण त्ति' के निम्नलिखित अवतरण में 'मू०' संकेत वर्गमूल के = 5864 रिण रा• : - ... पं० टोडरमल की 'अर्थसंदृष्टि' में 'के मू' प्रथम वर्गमूल और 'के मू,' वर्गमूल के वर्गमूल के लिए प्रयोग किया गया है। __संकेत 'मू०' मूल अर्थात् वर्गमूल शब्द का प्रथम अक्षर है / इस संकेत को उस संख्या के अन्त में लिखा जाता था जिसका वर्गमूल निकालना होता था / 'बक्षाली हस्तलिपि' में भी 'मु०' का प्रयोग मिलता है जो निम्न उदाहरण से स्पष्ट है | 11 यु० 5 मू० 4 22 धवला, पुस्तक 3, अमरावती 1941, परिशिष्ट पृ० 35 23 तिलोयपण्णत्ति, भाग 2, पंचम अधिकार, पृष्ठ 606 24 Bulletin of Mathematical Society, Calcutta, Vol. 21, 1929 पत्रिका में प्रकाशित विभूतिभूषणदत्त का 'बक्षाली गणित' पर लेख, पृष्ठ 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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