Book Title: Jain Sahitya me Ganitik Sanketan
Author(s): Mukutbiharilal Agarwal
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५४६ : जैन साहित्य में गाणितिक संकेतन श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ जैन साहित्य में गाणितिक संकेतन Mathematical Notations म - डा० मुकुट बिहारीलाल अग्रवाल, एस-सी०, पी-एच० डी० [जैन तत्त्वविद्या में 'गणितानुयोग' एक स्वतन्त्र अनुयोग (विषय) है । प्राचीन जैन मनीषी आत्मा-परमात्मा आदि विषयों पर गणित को भाषा में किस प्रकार विश्लेषण करते थे, उनकी शैली, उनके संकेतन आदि के प्रसिद्ध विद्वान् तथा लेखक डा० अग्रवाल का यह लेख एक नये डालता है । ] सम्बन्ध में गणित के विषय पर प्रकाश * पूर्वाभास - मानवीय जीवन में संकेत की महत्ता प्रायः देखी जाती हैं । भाषा ने जब तक शब्दों की पकड़ नहीं की थी तब भी अभिव्यक्ति (Expression ) होती रहती थी । यह अभिव्यक्ति केवल संकेतों के कारण ही थी- यह सर्वविदित ही है। यदि कहा जाये कि भाषा का जन्म ही संकेतों से हुआ है तो असंगति न होगी। जीवन में गणित का अपना विशिष्ट महत्व है, क्योंकि मानव अपनी आँखें खोलते ही गण ( गिनना) के चक्कर में फँस जाता है । यह चक्कर इतना सरल तो नहीं है कि वह आसानी से समझ सके । परन्तु कुछ ऐसे साधन हैं जो इस कार्य को सरल बना देते हैं; वे हैं। गणित संकेत अर्थात् गणित सम्बन्धी संकेत । इसी गाणितिक सांकेतिकता के विकास पर विचार करना अपना परम लक्ष्यमय कर्त्तव्य है । प्रयुक्त ये वे संकेत होते हैं जो किसी गणित सम्बन्धी क्रिया को व्यक्त करने में, किसी गणितीय राशि को दर्शाने में अथवा गणित में प्रयुक्त होने वाली गणितीय राशि को निर्दिष्ट करने के लिए किये जाते हैं । यथा a: b में, भाग का चिह्न ( : ) निर्दिष्ट करता है कि a में b का भाग देना है | a b में असमता का चिह्न Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ संख्या के अन्त में लिखा जाता था। जैसे ४ और ९ जोड़ने होते थे तो इस प्रकार लिखा जाता था -- ह १ १ यु 'बक्षाली हस्तलिपि' में पूर्णांक लिखने की यह पद्धति थी कि अङ्क के नीचे १ लिख दिया जाता था, किन्तु दोनों के बीच भाग रेखा नहीं लगाई जाती थी। जैन ग्रन्थ 'तिलोयपण्णत्ति' (ईसा की दूसरी शताब्दी का ग्रन्थ) में जोड़ने के लिए 'धण' शब्द लिखा है क्योंकि प्राचीन साहित्य में धन के लिए 'धण' शब्द प्रयोग होता था । जोड़ने के लिए पं० टोडरमल ने 'अर्थसंदृष्टि' में log log (अं) + १ के लिए उसमें इस प्रकार लिखा है' चिह्न का प्रयोग किया है । यथा १व २ जोड़ने के लिए, विशेषकर भिन्नों के योग में, 'अर्थसंदृष्टि' में खड़ी लकीर का प्रयोग मिलता हं । यथा चिन्तन के विविध बिन्दु : ५५० : ―― १ का आशय १ + से है । घटाने के लिए संकेत - 'बक्षाली हस्तलिपि' में घटाने के लिए + संकेत का प्रयोग किया गया है । यह + चिह्न उस अङ्क के बाद लिखा जाता या जिसे घटाना होता था । जैसे २० में से ३ घटाने के लिए इस प्रकार लिखा जाता था ― ३+ १ कुछ जैन ग्रन्थों में भी घटाने के लिए उपरोक्त संकेत का प्रयोग मिलता है परन्तु यह + चिह्न घटायी जाने वाली संख्या के ऊपर लिखा जाता था । आचार्य वीरसेन ने 'धवला' (ईसा की नवीं शताब्दी का ग्रन्थ) में इस प्रकार के संकेत का प्रयोग किया है जो निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट है' |१| सोज्ज्ञ माणावो एविस्से रिण सण्णा" अर्थात् १ शोष्यमान (अर्थात् घटाने योग्य) होने से इसकी ऋण संज्ञा है । घटाने के लिए + चिन्ह की उत्पत्ति के बारे में प्रोफेसर लक्ष्मीचन्दजी जैन का मत है कि यह चिन्ह ब्राह्मी भाषा से बना है । ब्राह्मी भाषा में ऋण के लिए 'रिण' लिखा जाता है और रिण का प्रथम अक्षर रि ब्राह्मीभाषा में लिखा जाता है। अधिक प्रयोग होते-होते इसका रूप + हो गया है । + जैन ग्रन्थों में घटाने के लिए 2 चिन्ह भी मिलता है। यह चिन्ह जिस अङ्क को २० १ १ पं० टोडरमल की अर्थसंदृष्टि, पृष्ठ ६, ७, ८, १५, १८, २०, २१ २ अर्थसंदृष्टि, पृष्ठ ११ 쿠 धवला, पुस्तक १०, सन् १६५४, पृष्ठ १५१ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५५१ : जैन साहित्य में गाणितिक संकेतन घटाना होता था उसके बाद लिखा जाता था । यथा का आशय जघन्य युक्त असंखेय - १ से है । यहाँ पर २ का आशय जघन्य युक्त असंखेय से है । 'अर्थदृष्टि' में इसी प्रकार के अनेक उदाहरण मिलते हैं ।" यथा - यदि ला५५४१३ का आशय ल X ५ × ४ X ३ अर्थात् ६० लाख से है और १ लाख इस राशि में से घटाया जावे तो शेषफल को इस प्रकार लिखते हैं 골드 ल श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ 'त्रिलोकसार' (दशवीं शताब्दी का जैन ग्रन्थ) में भी घटाने के लिए इसी प्रकार का संकेत मिलता है । इसमें लिखा है कि मूलराशि के ऊपर घटाई जाने वाली संख्या लिखो और उसके आगे पूछड़ी का सा आकार बिन्दी सहित करो जैसे २०० में से २ घटाने के लिए इस प्रकार लिखा है— 2 200 ८ घटाने के लिए में से २ घटाने के लिए इस प्रकार लिखा है - घटाने के लिए उपरोक्त चिन्ह १० ५/४/३ संकेत भी जैन ग्रन्थों में प्रयोग किया गया है । यथा १ करोड़ को भर होता है।" कहीं-कहीं घटाने के लिए • संकेत का भी प्रयोग किया गया है। पं० टोडरमलजी ने इस संकेत का प्रयोग इस प्रकार किया है— ई० पू० तीसरी शताब्दी में भी दृष्टिगोचर ४ अर्थसंदृष्टि, पृष्ठ ४; तिलोयपण्णत्ति, भाग २, पृष्ठ ६०६, ७१७ ५ वही, पृष्ठ २० ६ त्रिलोकसार, परिशिष्ट, पृष्ठ २ ७ अर्थसंदृष्टि, पृष्ठ गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा, भारतीय प्राचीनलिपि माला १९५६, प्लेट १ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ · १ को इसका आशय १ करोड़ – १ है । एक करोड़ में से २ घटाने के लिए इस प्रकार भी लिखा है को २ घनलोक में से २ घटाने के लिए इस प्रकार लिखा है ० २ = यहाँ पर संकेत पनलोक के लिए प्रयोग किया गया है। एक लाख में से १ घटाने के लिए इस प्रकार लिखा है' ल १ o 'त्रिलोकसार' में भी घटाने के लिए उपरोक्त चिन्ह मिलता है। उसमें लिखा है कि मूल राशि (जिसमें से घटाना हो) के नीचे बिन्दी लिखो और फिर बिन्दी के नीचे ऋण राशि (घटाई जाने वाली संख्या) लिखो । यथा यदि २०० में से २ घटाने हों तो इस प्रकार लिखते है" तथा ६. अर्थसंदृष्टि, पृष्ठ ६ १० त्रिलोकसार, परिशिष्ट, पृष्ठ २ ११ अर्थसंदृष्टि, पृष्ठ ६ १२ तिलोयपण्णत्ति, भाग १, पृष्ठ २० o चिन्तन के विविध विन्दु ५५२ २०० घटाने के लिए 'अर्थसंदृष्टि' में किया है। जैसे एक लाख में ल ७५ घटाने के लिए संकेत के स्थान पर ऋण शब्द का प्रतीकात्मक प्रथम अक्षर भी प्रयोग किया गया है। प्राचीन साहित्य में ऋण के लिए रिण लिखा जाता था । अतः घटाने के लिए 'रि' और कहीं-कहीं 'रिण' का प्रयोग होता था परन्तु यह अक्षर जिस अ को घटाना होता था, उसके बाद में लिखा जाता था। 'तिलोयपण्णत्ति' में ऐसे उदाहरण अनेक जगह मिलते हैं। यथा संकेतों का प्रयोग भी पं० टोडरमल ने से ५ घटाने के लिए इस प्रकार लिखा है" लु) तथा Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५५३ : जैन साहित्य में गाणितिक संकेतन || श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ % 3D १४- रि० यो० १००००० । ३ अर्थात्-मध्यलोक के ऊपरी भाग से सौधर्म विमान के ध्वजदण्ड तक १ लाख योजन कम डेढ़ राजू ऊंचाई प्रमाण है । इसमें स्पष्ट है कि 'रि०' का आशय यहाँ पर घटाने से है। यहाँ १४-३ का अर्थ डेढ़ राजू से है। गुणा के लिए संकेत-गुणा के लिए 'बक्षाली हस्तलिपि' में 'गु' संकेत का प्रयोग मिलता है। यह संकेत 'गु' शब्द 'गुणा' अथवा 'गुणित' का प्रथम अक्षर है । यथा-१३ इसका आशय ३४३४३XX ३४३४३४१० है। 'तिलोयपण्णत्ति' में गुणा के लिए एक खड़ी लकीर का प्रयोग किया गया है । यथा १०००x ६६X५००XCXCXCXCXCXCXX८ के लिए इस प्रकार लिखा है।" %६६.५००।८८८८८८८८। यहाँ पर%0 का आशय १००० है। 'अर्थसंदष्टि' में भी गुणा के लिए यही चिह्न मिलता है । यथा-१६ को २ से गुणा करने के लिए १६।२ लिखा है । त्रिलोकसार' में भी गुणा के लिए यही चिह्न मिलता है । यथा--१२८ को ६४ से गुणा करने के लिए १२८।६४ लिखा है ।१६ भाग के लिए संकेत-भाग के लिए 'बक्षाली हस्तलिपि' में 'भा' संकेत का प्रयोग मिलता है। यह संकेत 'भा' शब्द 'माग' अथवा 'भाजित' का प्रथम अक्षर है। यथा-१० इसका आशय ४० मा १६० | १३ | مہ ب इसका आशय १३०-४१३१० से है। | १ १ भिन्नों को प्रदर्शित करने के लिए प्राचीन जैन साहित्य में अंश और हर के बीच रेखा का प्रयोग नहीं मिलता है । 'तिलोयपण्णत्ति' में बेलन का आयतन मालम किया है जो आया है। इस १९ को इस ग्रन्थ में इस प्रकार लिखा है-- २४ १३ बक्षाली हस्तलिपि Folio 47, recto १४ तिलोयपण्णत्ति, भाग १, गाथा १, १२३-१२४ १५ अर्थसंदृष्टि, पृष्ठ ६ १६ त्रिलोकसार, परिशिष्ट, पृष्ठ ३ १७ बक्षाली हस्तलिपि Folio 42, recto १८ त्रिलोयपण्णत्ति, भाग १, गाथा १,११८ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । चिन्तन के विविध बिन्दु : ५५४; 'त्रिलोकसार' में भी इसी प्रकार के उदाहरण उपलब्ध होते हैं । इसमें लिखा है कि इक्यासी सौ वाणवै का चौंसठवाँ भाग इस प्रकार लिखिये ८१६२ ६४ _ 'त्रिलोकसार' में भाग देकर शेष बचने पर उसको लिखने की विधि का भी उल्लेख किया है, जो आधुनिक विधि से भिन्न है । यथा ८१६४ में ६४ का भाग दें तो १२८ बार भाग जावेगा और २ शेष रहेंगे । अर्थात् १२८ २ को इस ग्रन्थ में इस प्रकार लिखा है १२८।२ शून्य का प्रयोग-० का प्रयोग आदि संख्या के रूप में प्रारम्भ नहीं हुआ अपितु रिक्त स्थान की पूर्ति हेतु प्रतीक के रूप में प्रयोग हुआ था । आधुनिक संकेत लिपि में जहाँ • लिखा जाता है वहाँ पर प्राचीनकाल में ० संकेत न लिखकर उस स्थान को खाली छोड़ दिया जाता था। जैसे ४६ का अर्थ होता था छियालीस और ४ ६ का अर्थ होता था चार सौ छः । यदि दोनों अंकों के मध्य जितना उपयुक्त स्थान छोड़ना चाहिए उससे कम छोड़ा जाता था तो पाठकगण भ्रम में पड़ जाते थे कि लेखक का आशय ४६ से है अथवा ४०६ से । इस भ्रम को दूर करने के लिए उस संख्या को ४ ६ न लिखकर ४.६ के रूप में अंकित किया जाने लगा। धीरे-धीरे इस प्रणाली का आधनिक रूप ४०६ हो गया। इस प्रकार के प्रयोग का उल्लेख प्राचीन जैन ग्रन्थों एवं मन्दिरों आदि में लिखा मिलता है। उदाहरणार्थ आगरा के हींग की मण्डी में गोपीनाथ जी के जैन मन्दिर में एक जैन प्रतिमा है जिसका निर्माण काल सं० १५०६ है, परन्तु इस प्रतिमा पर इसका निर्माण काल १५०६ न लिखकर १५ ॥ लिखा है। वर्ग के लिए चिह्न-किसी संख्या को वर्ग करने के लिए 'व' चिह्न मिलता है। यह चिह्न 'व' उस संख्या के बाद लिखा जाता है, जिसका वर्ग करना होता है । यथा 'ज जु अ' एक संख्या है जिसका अर्थ जघन्य युक्त अनन्त है । यदि इसका वर्ग करेंगे तो उसे इस प्रकार लिखेंगे -- ज जु अव इसी प्रकार धन का संकेत 'घ', चतुर्थ घात के लिए 'व-ब' (वर्ग-वर्ग), पाँचवीं घात के लिए 'व-घ-घा' (वर्ग घन घात), छठवीं घात के लिए 'घ-व' (धन वर्ग), सातवीं घात के लिए 'व-व-घ-घा' (वर्ग वर्ग घन घात) आदि संकेत उपलब्ध होते हैं। बगित-संवगित के लिये चिह्न-वगित-संवगित शब्द का तात्पर्य किसी संख्या का उसी संख्या तुल्य घात करने से है। जैसे ५ का वर्गित-संवर्गित ५५ हुआ। जैन ग्रन्थों में इसके लिये विशेष चिह्न प्रयोग किया है। किसी संख्या को प्रथम बार वर्गित-संगित करने के लिए इस प्रकार लिखा जाता है ना १६ त्रिलोकसार, परिशिष्ट, पृष्ठ ५ २० वही, परिशिष्ट, पृष्ठ ६ २१ अर्थसंदृष्टि, पृष्ठ ५ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 555 : जैन साहित्य में गाणितिक संकेत जन साहित्य में मासिक पतिः श्री जैल दिवकर स्मृति ग्रन्थ / श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ इसका आशय है न से है / द्वितीय वगित-संगित के लिए इस प्रकार लिखा जाता है / इसका आशय न को वगित-संगित करके प्राप्त राशि को पुनः वगित-संवगित करना है / अर्थात् ( न') है। जैसे 2 का द्वितीय वगित-संगित (२२)हुआ / अतः का 44 =256 हुआ। द्वितीय वर्गित-संगित राशि को पूनः एक बार वगित-संवगित करने पर तृतीय वगित-संवगित प्राप्त होता है। 2 के तृतीय वगित-संवगित को 'धवला' में इस प्रकार लिखा है२२ // 256 (256) वर्गमूल के लिए संकेत-'तिलोयपण्णत्ति' और 'अर्थसंदृष्टि' आदि में वर्गमूल के लिए 'म' का प्रयोग किया है। 'तिलोयपण्ण त्ति' के निम्नलिखित अवतरण में 'मू०' संकेत वर्गमूल के = 5864 रिण रा• : - ... पं० टोडरमल की 'अर्थसंदृष्टि' में 'के मू' प्रथम वर्गमूल और 'के मू,' वर्गमूल के वर्गमूल के लिए प्रयोग किया गया है। __संकेत 'मू०' मूल अर्थात् वर्गमूल शब्द का प्रथम अक्षर है / इस संकेत को उस संख्या के अन्त में लिखा जाता था जिसका वर्गमूल निकालना होता था / 'बक्षाली हस्तलिपि' में भी 'मु०' का प्रयोग मिलता है जो निम्न उदाहरण से स्पष्ट है | 11 यु० 5 मू० 4 22 धवला, पुस्तक 3, अमरावती 1941, परिशिष्ट पृ० 35 23 तिलोयपण्णत्ति, भाग 2, पंचम अधिकार, पृष्ठ 606 24 Bulletin of Mathematical Society, Calcutta, Vol. 21, 1929 पत्रिका में प्रकाशित विभूतिभूषणदत्त का 'बक्षाली गणित' पर लेख, पृष्ठ 24