Book Title: Jain Sahitya aur Sanskruti ki Bhumi Mevad Author(s): Kasturchand kasliwal Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 4
________________ जैन साहित्य और संस्कृति की भूमि : मेवाड़ | १९७ ०००००००००००० 000000000000 पण ALERTAITAL है । मन्दिर के विभिन्न भागों में अनेक लेख अंकित हैं जो इस मन्दिर के विकास की कहानी कहने वाले हैं। सम्पूर्ण मेवाड़ में ही नहीं बल्कि बागड़ प्रदेश तथा गुजरात में भगवान रिषभदेव के प्रति गहरी श्रद्धा है और प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में यात्री एवं दर्शनार्थी आते हैं। इसी तीर्थ पर 'मट्टारक यश:कीर्ति सरस्वती भवन' भी है जिसमें प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों का अच्छा संग्रह है । एक सूची के अनुसार यहाँ लगभग १०७० ग्रन्थ हैं जिनमें काफी अच्छी संख्या में गुटके भी सम्मिलित हैं। इनमें १५वीं एवं १६वीं शताब्दी में लिखे हुए ग्रन्थों की अच्छी संख्या है। वैसे चरित, पुराण, काव्य, रास, बेलि, फागु, दर्शन, जैसे विषयों पर यहाँ अच्छा संग्रह मिलता है । सभी ग्रन्थ अच्छी दशा में हैं तथा सुरक्षित हैं । आजकल भंडार को देखने वाले पं० रामचन्द जी जैन हैं । इस भंडार में संग्रहीत कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ निम्न प्रकार हैं (१) महावीर चरित अथवा महावीर रास-इसके रचयिता पद्मा कवि हैं जो भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य थे। रास का रचना काल संवत् १६०६ है। (२) नरसिंहपुरा जाति रास-इसमें नरसिंहपुरा जैन जाति की उत्पत्ति एवं उसके विकास की कहानी कही गयी है । रास ऐतिहासिक है।। (३) शांतिनाथ पुराण-यह भट्टारक रामचन्द्र की कृति है, जिसमें उन्होंने संवत् १७८३ में समाप्त की थी। यह पांडुलिपि कवि की मूल पांडुलिपि है । (४) श्रेणिक चरित-यह दौलतराम कासलीवाल की कृति है जिसे उन्होंने संवत् १७८२ में निबद्ध किया था । इसी भंडार में कवि द्वारा निबद्ध श्रीपाल चरित की प्रति भी सुरक्षित है। (५) प्रद्युम्नरास-यह ब्रह्म गुणराज की कृति है जिसे उन्होंने संवत् १६०६ में निबद्ध किया था। (६) लवकुश आख्यान-यह भट्टारक महीचन्द का १७वीं शताब्दी का काव्य है । उक्त शास्त्र भंडारों के अतिरिक्त मेवाड़ के अन्य नगरों एवं गाँवों में शास्त्र भंडार है, जिनका पूरी तरह से अभी सर्वे नहीं हो सका है, जिसकी महती आवश्यकता है। मेवाड़ जैनाचार्यों एवं साहित्यकारों की प्रमुख प्रश्रय भूमि रही है। यहां प्रारम्म से ही जैनाचार्य होते रहे जिन्होंने इस प्रदेश में बिहार किया तथा साहित्य संरचना द्वारा जन-जन तक सत् साहित्य का प्रचार किया। ऐसे जैन आचार्यों में कुछ का संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है (१) आचार्य वीरसेन-आचार्य वीरसेन सातवीं शताब्दी के महान् सिद्धान्तवेत्ता थे। वे प्राकृत एवं संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। सर्वप्रथम उन्होंने चित्रकूट (चित्तौड़) में एलाचार्य के पास रहकर शास्त्रों का गहन अध्ययन किया था और उसके पश्चात् ही धवला की ७२ हजार श्लोक प्रमाण टीका लिख सके थे । उन्होंने दूसरे आगम-ग्रन्थ कषय पाहुड पर भी जय धवला की टीका लिखना प्रारम्भ किया था लेकिन एक-तिहाई रचना होने के पश्चात् उनका स्वर्गवास हो गया । आचार्य वीरसेन का सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण, तर्क आदि विषयों पर पूर्ण अधिकार था, जिसका दर्शन हमें धवला टीका में होता है। उनके शिष्य जिनसेन के कथनानुसार उनका सब शास्त्रों का ज्ञान देखकर सर्वज्ञ के अस्तित्व के विषय में लोगों की शंकाएँ नष्ट हो गई थीं। (२) आचार्य हरिभद्रसूरि-आचार्य हरिभद्रसूरि प्राकृत एवं संस्कृत के महान् विद्वान थे। इनका भी चित्तौड़ से गहरा सम्बन्ध था । इन्होंने अनुयोगद्वार सूत्र, आवश्यक सूत्र, दशवकालिक सूत्र, नन्दी सूत्र तथा प्रज्ञापना सूत्र पर टीकाएँ लिखी थीं। अनेकांतजय पताका, अनेकांतवाद प्रवेश जैसे उच्च दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की थी। इनकी समराइच्च्कहा प्राकृत की महत्त्वपूर्ण कृति है तथा धूर्ताख्यान एक व्यंग्यात्मक रचना है। हरिभद्र की योगबिन्दु एवं योगदृष्टि सम्मुचय में जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में पतंजलि एवं व्यास के दार्शनिक मान्यताओं पर अच्छा वर्णन किया गया है। ये आठवीं शताब्दी के विद्वान थे। (३) हरिषेण-अपभ्रंश के महान् विद्वान भी चित्तौड़ के रहने वाले थे। उनके पिता का नाम गोवर्द्धन धक्कड़ था। एक बार कवि को अचलपुर जाने का अवसर मिला और उसने वहीं पर संवत् १०४४ में धम्मपरीक्षा की रचना की । इस कृति में ११ संधियाँ हैं और १०० कथाओं का समावेश किया गया है। हरिषेण मेवाड़ प्रदेश का बहुत बड़ा भक्त था और उसकी सुन्दरता का अपनी कृति में अच्छा वर्णन किया है। MAHINI द .. .' S XASE:Page Navigation
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