Book Title: Jain Sahitya
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 4
________________ कथाओं सम्बन्धी साहित्य बहत बड़े परिमाण में रचा से प्रकाशित है। भाषा विज्ञान के अध्यापन में जैन है और इससे जन-साधारण के जीवन में सदाचार और साहित्य की उपयोगिता--भाषा विज्ञान की दृष्टि से जैन नैतिकता का खूब प्रचार हआ । जैन साहित्य की साहित्य का महत्व सबसे अधिक है क्योंकि जैन मुनि एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें निरन्तर घूमते रहते हैं और सब प्रान्तों में धर्म प्रचारार्थ विकार वर्द्धक और वासनाओं को उभारनेवाले और तीर्थ यात्रा आदि के लिए उनका यातायात होता साहित्य को स्थान नहीं मिला। इससे लोकजीवन का रहा है। उनका जीवन बहुत संयमित होने से उन्होंने नैतिक-पद ऊँचा उठा, उससे भारत का गौरव बढ़ा। साहित्य निर्माण और लेखन में बहुत समय लगाया, इसी का परिणाम है कि अलग-अलग प्रान्तों की साहित्य संरक्षण में जैनों का विशिष्ट योगदान भाषाओं में जैन विद्वान बराबर लिखते रहे । इससे उन भाषाओं का विकास किस तरह होता गया, शब्दों जैन साहित्य की एक दूसरी विशेषता यह है कि के रूपों में किस तरह का परिवर्तन हुआ, इसकी जानवह बराबर लिखा जाता रहा और उसकी सुरक्षा का कारी जैन रचनाओं से जितनी अधिक मिलती है जैनेभी बहुत अच्छा प्रयत्न किया जाता रहा । इसलिए तर रचनाओं से नहीं मिलती । क्योंकि एक तो वे हस्तलिखित प्रतियों के ज्ञान-भण्डार जैनों के पास बहुत इतनी सुरक्षित नहीं रहीं और प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक बड़ी व अच्छी संस्था में सुरक्षित हैं । प्राचीन और शुद्ध चरण की जैन रचनाएं जिस तरह की मिलती हैं वैसी प्रतियों की उपलब्धि स्वरूप ज्ञान भण्डार में एक ताड़ जैनेतरों की नहीं मिलती। पत्रीय प्रति, 10वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी तक की ताडपत्रीय प्रतियाँ जैसलमेर, पाटण, खंभात, बड़ौदा प्राकृत भाषा के दो प्रधान भेद हैं-खेरे सेनी और आदि में करीब एक हजार सुरक्षित हैं । 13वीं ___ महाराष्ट्री। खेरे सेनी में दिगम्बर और महाराष्ट्री में शताब्दी से कागज पर ग्रन्थ लिखे जाने लगे । तब से वेताम्बर साहित्य रचा गया । इनसे अपभ्रश और अब तक की लाखों प्रतियाँ कागज की प्राप्त हैं। इनमें ज का प्राप्त है । इनमें अपभ्रश से उत्तर भारत की प्रान्तीय भाषाओं की केवल जैन साहित्य ही नहीं है। ऐसा बहुतसा जनेतर शखला जडती है। साहित्य भी है जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। और यदि मिलता है तो भी उन जैनेतर ग्रन्थों की प्राचीन उत्तर भारत की प्रान्तीय भाषाओं की तरह व शुद्ध प्रतियां जैन भण्डारों में जितनी व जैसी मिलती दक्षिणी भारत की प्रमुख भाषा 'कन्नड' और 'तमिल, हैं उतनी और वैसी जनेतर संग्रहालयो में नहीं इन दोनों में भी जैन साहित्य बहुत अधिक मिलता है। मिलतीं । अर्थात् साहित्य के निर्माण में ही नहीं, आचार्य भद्रबाह, दक्षिणी भारत में अपने संघ को लेकर संरक्षण में भी जैनों का उल्लेखनीय योगदान रहा है। पधारे क्योंकि उत्तर भारत में उन दिनों बहुत बड़ा सचित्र, स्वर्णाक्षरी, गैष्याक्षरी, पंचपाठ, त्रिपाठ आदि दुष्काल पड़ा था। उनके दक्षिण भारत में पधारने से अनेक शैलियों की विशिष्ट प्रतियाँ बहुत ही उल्लेखनीय उनके ज्ञान और त्याग तप से प्रभावित होकर दक्षिण हैं। लेखनकला और चित्रकला का जैनों ने खूब भारत के अनेक लोगों ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया विकास किया । इस सम्बन्ध में सौजन्य मूर्ति, महान और उनकी संख्या क्रमशः बढ़ती ही गई। आसपास के साहित्य सेवी स्वर्गीय पूज्य विजयजी लिखित 'भारतीय क्षेत्रों में जैन धर्म का खूब प्रचार हुआ । जैन मुनि श्रवण संस्कृति अने लेखनकला' नामक गूजराती ग्रन्थ चातुर्मास के सिवाय एक जगह रहते नहीं बहत ही पठनीय हैं जो साराभाई नबाव, अहमदाबाद हैं, इसलिए उन्होंने घूम-फिरकर जैन धर्म का सन्देश २२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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