Book Title: Jain Sahitya
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य वे महान अविष्कर्ता थे । उन्होंने अपनी बड़ी पुत्री ब्राह्मी को जो लिपि सिखाई वह भारत की प्राचीनतम लिपि ब्राह्मी के नाम से प्रसिद्ध हुई और छोटी पुत्री सुन्दरी को अंक आदि सिखाये, जिससे गणित का विकास हआ । पूरुषों की 72 तथा स्त्रियों की 64 कलाएँ या विद्याएँ भगवान ऋषभदेव की ही विशिष्ट देन हैं। भगवान ऋषभदेव के बड़े पुत्र भरत 6 खण्डों को विजय कर चक्रवर्ती सम्राट बने, और उन्हीं के नाम से इस देश का नाम भारत प्रसिद्ध हुआ। व्यावहारिक शिक्षा देने के बाद भगवान ऋषभदेव ने पिछली आयु में सन्यास ग्रहण किया और तपस्या तथा ध्यान आदि । साधना से आत्मिक ज्ञान प्राप्त किया । उस परिपूर्ण और विशिष्ट ज्ञान का नाम केवल 'ज्ञान' जैन धर्म में प्रसिद्ध है। इसके बाद उन्होंने आध्यात्मिकअगरचन्द नाहटा साधना का मार्ग प्रवर्तित किया, आत्मिक उन्नति और मोक्ष का मार्ग सबको बतलाया इसीलिए भगवान ऋषभदेव का जैन साहित्य में सर्वाधिक जैन धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म है । उसके महत्व है यद्यपि उनको हए असंख्यात वर्ष हो गये, प्रवर्तक और प्रचारक 24 तीर्थ कर सभी इम भारत- इसलिए उनकी वाणी या उपदेश तो हमें प्राप्त नहीं हैं, भमि में ही जन्मे, साधना करके विशिष्ट ज्ञान प्राप्त पर उनकी परम्परा में 23 तीर्थकर और हए । उन्होंने किया और जनता को धर्मोपदेश देकर भारत में ही भी साधना द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त किया और सभी निर्वाण को प्राप्त हुए। जैन परम्परा के अनुसार भग- केवलियों का ज्ञान एक जैसा ही होता है। इसलिये वान ऋषभदेव प्रथम तीर्थ कर थे। उन्होंने युगलिक ऋषभदेव की ज्ञान की परम्परा अंतिम तीर्थ कर धर्म का निवारण करके असी शास्त्र की मसी भगवान महावीर की वाणी और उपदेश के रूप में लिख कृषि, तथा विद्याओं और कलाओं की आज भी हमें प्राप्त है। समस्त जैन साहित्य का मूल शिक्षा देकर भारतीय संस्कृति को एक नया रूप दिया। आधार वही केवल ज्ञानी-तीर्थ करों की वाणी ही है। २१७ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनतम जैन साहित्य कर बाकी में रचियता का नाम नहीं मिलता उनमें से रचियता के नामवाले ग्रन्थों में सबसे पहला सूत्र है भगवान महावीर के पहले के तीर्थ करों के दशवकाल्पिक, जिनमें जैन मुनियों का आधार संक्षेप में मुनियों का जो विवरण आगमों में प्राप्त है, उससे वणित है। इस सूत्र के रचियता राय्यंभव सूरि महामालूम होता है कि 'पूर्वो' का ज्ञान उस परम्परा में चालू वीर निर्वाण के 98 वर्ष में स्वर्गस्थ 5 वें पक्षधर हुए था। आगे चलकर उनको 14 पूर्वो में विभाजित कर र हैं। इसके बाद आचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवली ने वृहददिया मालूम देता है। अतः भगवान महावीर में समय कल्प, ब्यवहार और दशाथ त स्कन्ध नामक उछेद सूत्रों और उसके कई शताब्दियों तक 14 पूर्वो का ज्ञान की रचना की। 10 आगमों की नियुक्तियाँ रूप प्राचीन प्रचलित रहा। 'क्रमशः' उसमें क्षीणता होती गई और , आत विटर टीकाएँ भी भद्रबाहु रचित हैं । पर आधुकरीब 2 हजार वर्षों से 14 पूर्वो के ज्ञान की वह निक विद्वानों की राय में उनके कर्ता द्वितीय भद्रबाह विशिष्ट परम्परा लुप्त सी-हो गयी। पीछे हुए हैं । इसके बाद स्यामाचार्य ने पत्रवणा सूत्र बनाया। इस तरह समय-समय पर अन्य कई आचार्यों भगवान महावीर ने जो 30 वर्ष तक अनेक और विद्वानों ने ग्रंथ बनाकर जैन साहित्य की अभिस्थानों में विचरते हुए धर्मोपदेश दिया, उसे अनेक वृद्धि की। प्रवान गौतम आदि गणधरों ने सुत्र रूप में निबद्ध कर । दिया। वह उपदेश 12 अंग सूत्रों में विभक्त कर दिया संस्कृत में जैन साहित्य - गया जिसे 'द्वादशांग गणि-पिटक' कहा जाता है। इनमें भगवान महावीर ने तत्कालीन लोकभाषा अर्द्धसे 12वां दृष्टिबाद अंग सत्र जो बहत बड़ा और विशिष्ट माथी में पटेडा दिया था बहुत बड़ा और विशिष्ट मागधी में उपदेश दिया था और उसी परम्परा को और न ज्ञान का स्तोत्र था। पर वह तो लुप्त हो चुका है। जैनाचार्यों ने भी 500 वर्षों तक तो बराबर निभाया । बाकी "अंग सूत्र करीब हजार वर्ष तक मौखिक रूप अतः उस समय तक का समस्त जैन साहित्य प्राकृत । से प्रचलित रहे, इसलिए उनका भी बहुत-सा अंश भाषा में ही रचित है । इसके बाद संस्कृत के बढ़ते विस्मत हो गया। वीर निर्वाण संवत_980 में देवधि हए प्रचार से जैन विद्वान भी प्रभावित हुए और गणि क्षमाश्रमण ने सौराष्ट्र की वल्लभी नगरी में उस उन्होंने प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत में भी रचना करना समय तक जो अंग मौखिक रूप से प्राप्त थे उनको प्रारम्भ कर दिया । उपलब्ध जैन साहित्य में सबसे लिपिबद्ध कर दिया । अतः प्राचीनतम और जैन पहला संस्कृत ग्रंथ आचार्य उमास्वाति रचित 'त्वार्थ साहित्य में रूप के वे 11 अंग और उनके उपांग तथा । गि तथा सूत्र माना जाता है, जो विक्रम की दूसरी तीसरी शताब्दी उनके आधार पर बने हुए जो भी आगम आज प्राप्त की रचना है। इसमें छोटे-छोटे सूत्रों के रूप में जैन हैं उन्हें प्राचीनतम जैन साहित्य माना जाता है। सिद्धान्तों का बहत खुबी से संकलन कर दिया गया है। दिगम्बर सम्प्रदाय में तो ये अंग सूत्रादि लुप्त हो गये यह 10 अध्यायों में विभक्त है। श्वेताम्बर और दिगमाना जाता है, पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वे ही आगम म्बर दोनों सम्प्रदाय इसे समान रूप से मान्य करते ग्रंथ प्राप्त और मान्य हैं। हैं, और दोनों सम्प्रदायवालों की इस पर सही टीकाएँ प्राप्त हैं । श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार तो तत्थ्यार्थका प्राचीनतम जैन साहित्य सुत्र की भाष्य तो स्वय उमास्वाति ने ही रची है। भगवान महावीर के बाद कई जैनाचार्यों ने बहुत- सुत्र ग्रन्थों की परम्परा का यह महत्वपूर्ण संस्कृत से सूत्र ग्रंथ बनाये, पर उन सूत्रों में से 2-4 को छोड़- जैन ग्रन्थ है। २१८ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके बाद तो समंतभद्र' सिद्धसेन, पूज्यमाद, की बँगला आदि अन्य प्रांतीय भाषाओं में भी जैनों की अकलंक हरिभद्र आदि श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों रचित प्राप्त हैं। हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती में सम्प्रदायों के विद्वानों द्वारा दार्शनिक, न्याय ग्रथ और तो लाखों श्लोक परिमित गद्य और पद्य की जैन रचटीकाएँ आदि संस्कृत में बराबर रची जाती रही। नाएं प्राप्त हैं एवं प्राचीनतम रचनाएं जैनों की ही और आगे चलकर तो संस्कृत में काव्य, चरित्र और प्राप्त हैं। सभी विषयों के जैन ग्रन्थ संस्कृत में खूब लिखे गये । कथाओं का भंडार जैन-साहित्यअपभ्रंश एवं लोकभाषाओं में जैन साहित्य-- लोकभाषा की तरह लोककथाओं और देशी जैन भाषा में निरन्तर परिवर्तन होता ही रहा संगीत को भी जैनों ने विशेष रूप से अपनाया। इसीहै अतः प्राकृत भाषा अपम्रश के रूप में लिए लोककथाओं का भी बहुत बड़ा भंडार जैन परिवर्तित हो गयी । अपभ्रंश में भी जैनों ने ही साहित्य में पाया जाता है। और लोकगीतों की चाल सर्वाधिक साहित्य का निर्माण किया है । वैसे तो था 'तर्ज' पर हजारों स्तवन, सझाय, ढाल आदि प्राचीन नाटकों में भिन्न जाति एवं साधारण छोटे-बड़े काव्य रचे गये हैं। उन ढाल आदि के प्रारम्भ पुरुषों और स्त्रियों की भाषा की 'रचनाएं 8 वीं में किस' लोक गीत की तर्ज पर इस 'गीत' रचना 9वीं शताब्दी से मिलने लगती हैं, और 17 वीं को गाना चाहिए, इसका कुछ उल्लेख करते हुए उस शताब्दी तक छोटी-बड़ी सैकड़ों रचनाएँ जैन कवियों लोकगीत की प्रारम्भिक कुछ पंक्तियाँ भी उद्धृत कर की रचित आज भी प्राप्त है। कवि स्वयंभू पुष्पदंत, दी गई हैं जिससे हजारों विस्मृत और लुप्त लोकधनपाल आदि अपभ्रश के जैन महाकवि हैं । जैनेतर गीतों की जानकारी मिलने के साथ-साथ कौनसा गीत रक्तिग्रंथ अपभ्रंश में नहीं मिलता क्योंकि उन्होंने कितना पुराना है, इसके निर्णय करने में भी सुविधा प्रारम्भ से ही संस्कृत को प्रधानता दी थी; अतः हो गई है। इस सम्बन्ध में मेरे कई लेख प्रकाशित हो उनका सर्वाधिक साहित्य संस्कृत में है। चुके हैं। अपभ्रश से उत्तर भारत की प्रान्तीय भाषाओं एक-एक लोककथा को लेकर अनेकों जैन रचनाएँ का विकास हआ । 13वीं शताब्दी से राजस्थानी, प्राकृत, संस्कृत, राजस्थानी आदि भाषाओं में जैन गुजराती और हिन्दी में साहित्य मिलने लगता है। विद्वानों ने लिखी हैं। इससे वे लोककथाएं कौनसी यद्यपि 15वीं शताब्दी तक अपभ्रंश का प्रभाव कितनी पुरानी है, उनका मूल रूप क्या था उन रचनाओं में पाया जाता है। उस समय तक और कब-कब कैसा और कितना परिवर्तन उनमें होता राजस्थान और गुजरात में तो एक ही भाषा बोली रहा, इन सब बातों की जानकारी जैन कथा साहित्य जाती थी, जिसे राजस्थान वाले पुरानी राजस्थानी एवं से ही अधिक मिल सकती है । उन लोककथाओं को गुजरातवाले जूनी-गुजराती कहते हैं अतः कई विद्वानों धर्म प्रचार का माध्यम बनाने के लिए उनमें जैन ने उसे 'मरु-गूजर' भाषा कहना उचित अधिक माना सिद्धांतों और आचार विचार का पुट दे दिया है। आगे चलकर राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी में गया है जिससे जनता उन कथाओं को सुनकर पापों से प्रान्तीय भेद अधिक स्पष्ट होता गया। और इन बचे और अच्छे कार्यों की प्रेरणा प्राप्त करे । क्योंकि तीनों भाषाओं में जैन विद्वानों ने प्रचूर रचनाएँ कथाएँ, बालक, युवा-वृद्ध स्त्री-पुरुष सभी को समान बनायी हैं। वैसे कुछ रचताए सिन्धी, मराठी रूप से प्रभावित करती है इसलिए जैन लेखकों ने २.६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाओं सम्बन्धी साहित्य बहत बड़े परिमाण में रचा से प्रकाशित है। भाषा विज्ञान के अध्यापन में जैन है और इससे जन-साधारण के जीवन में सदाचार और साहित्य की उपयोगिता--भाषा विज्ञान की दृष्टि से जैन नैतिकता का खूब प्रचार हआ । जैन साहित्य की साहित्य का महत्व सबसे अधिक है क्योंकि जैन मुनि एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें निरन्तर घूमते रहते हैं और सब प्रान्तों में धर्म प्रचारार्थ विकार वर्द्धक और वासनाओं को उभारनेवाले और तीर्थ यात्रा आदि के लिए उनका यातायात होता साहित्य को स्थान नहीं मिला। इससे लोकजीवन का रहा है। उनका जीवन बहुत संयमित होने से उन्होंने नैतिक-पद ऊँचा उठा, उससे भारत का गौरव बढ़ा। साहित्य निर्माण और लेखन में बहुत समय लगाया, इसी का परिणाम है कि अलग-अलग प्रान्तों की साहित्य संरक्षण में जैनों का विशिष्ट योगदान भाषाओं में जैन विद्वान बराबर लिखते रहे । इससे उन भाषाओं का विकास किस तरह होता गया, शब्दों जैन साहित्य की एक दूसरी विशेषता यह है कि के रूपों में किस तरह का परिवर्तन हुआ, इसकी जानवह बराबर लिखा जाता रहा और उसकी सुरक्षा का कारी जैन रचनाओं से जितनी अधिक मिलती है जैनेभी बहुत अच्छा प्रयत्न किया जाता रहा । इसलिए तर रचनाओं से नहीं मिलती । क्योंकि एक तो वे हस्तलिखित प्रतियों के ज्ञान-भण्डार जैनों के पास बहुत इतनी सुरक्षित नहीं रहीं और प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक बड़ी व अच्छी संस्था में सुरक्षित हैं । प्राचीन और शुद्ध चरण की जैन रचनाएं जिस तरह की मिलती हैं वैसी प्रतियों की उपलब्धि स्वरूप ज्ञान भण्डार में एक ताड़ जैनेतरों की नहीं मिलती। पत्रीय प्रति, 10वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी तक की ताडपत्रीय प्रतियाँ जैसलमेर, पाटण, खंभात, बड़ौदा प्राकृत भाषा के दो प्रधान भेद हैं-खेरे सेनी और आदि में करीब एक हजार सुरक्षित हैं । 13वीं ___ महाराष्ट्री। खेरे सेनी में दिगम्बर और महाराष्ट्री में शताब्दी से कागज पर ग्रन्थ लिखे जाने लगे । तब से वेताम्बर साहित्य रचा गया । इनसे अपभ्रश और अब तक की लाखों प्रतियाँ कागज की प्राप्त हैं। इनमें ज का प्राप्त है । इनमें अपभ्रश से उत्तर भारत की प्रान्तीय भाषाओं की केवल जैन साहित्य ही नहीं है। ऐसा बहुतसा जनेतर शखला जडती है। साहित्य भी है जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। और यदि मिलता है तो भी उन जैनेतर ग्रन्थों की प्राचीन उत्तर भारत की प्रान्तीय भाषाओं की तरह व शुद्ध प्रतियां जैन भण्डारों में जितनी व जैसी मिलती दक्षिणी भारत की प्रमुख भाषा 'कन्नड' और 'तमिल, हैं उतनी और वैसी जनेतर संग्रहालयो में नहीं इन दोनों में भी जैन साहित्य बहुत अधिक मिलता है। मिलतीं । अर्थात् साहित्य के निर्माण में ही नहीं, आचार्य भद्रबाह, दक्षिणी भारत में अपने संघ को लेकर संरक्षण में भी जैनों का उल्लेखनीय योगदान रहा है। पधारे क्योंकि उत्तर भारत में उन दिनों बहुत बड़ा सचित्र, स्वर्णाक्षरी, गैष्याक्षरी, पंचपाठ, त्रिपाठ आदि दुष्काल पड़ा था। उनके दक्षिण भारत में पधारने से अनेक शैलियों की विशिष्ट प्रतियाँ बहुत ही उल्लेखनीय उनके ज्ञान और त्याग तप से प्रभावित होकर दक्षिण हैं। लेखनकला और चित्रकला का जैनों ने खूब भारत के अनेक लोगों ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया विकास किया । इस सम्बन्ध में सौजन्य मूर्ति, महान और उनकी संख्या क्रमशः बढ़ती ही गई। आसपास के साहित्य सेवी स्वर्गीय पूज्य विजयजी लिखित 'भारतीय क्षेत्रों में जैन धर्म का खूब प्रचार हुआ । जैन मुनि श्रवण संस्कृति अने लेखनकला' नामक गूजराती ग्रन्थ चातुर्मास के सिवाय एक जगह रहते नहीं बहत ही पठनीय हैं जो साराभाई नबाव, अहमदाबाद हैं, इसलिए उन्होंने घूम-फिरकर जैन धर्म का सन्देश २२० Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-जन में फैलाया । लोक सम्पर्क के लिए वहां जो अब उपलब्ध भी नहीं होते । बहुत से जनेतर ग्रंथों को कन्नड और तमिल भाषाएं अलग-अलग प्रदेशों में अन्तर बनाये रखने का श्रेय जनों को प्राप्त है। बोली जाती थीं, उनमें खूब साहित्य निर्माण किया । ऐतिहासिक दृष्टि से जैन साहित्य बहुत महत्वपूर्ण अतः इन दोनों भाषाओं का प्राचीन और महत्वपूर्ण है। भारतीय इतिहास, संस्कृति और लोकजीवन साहित्य जैनों का ही प्राप्त है। इस तरह उत्तर और सम्बन्धी बहुत ही महत्वपूर्ण सामग्री जैन ग्रंथों व प्रशदक्षिण भारत को प्रधान भाषाओं में जैन साहित्य का स्तियों एवं लेखों आदि में पायी जाती है। जैन आगम प्रचुर परिमाण में पाया जाना बहत ही उल्लेखनीय साहित्य में दो-अढाई हजार वर्ष पहले का जो सांस्कृऔर महत्वपर्ण है। भारतीय साहित्य को जैनों की यह तिक विवरण मिलता है, उसके सम्बन्ध में जगदीश चन्द्र बिशिष्ट देन ही समझी जानी चाहिए। जैन लिखित "जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज'', विषय वैविध्य-- नामक शोध प्रबन्ध चौखम्बा विद्या भवन-वाराणसी विषय वैविध्य की दृष्टि से भी जैन साहित्य बहुत से प्रकाशित हुआ है, उससे बहुत-सी महत्वपूर्ण वातों महत्वपूर्ण है क्योंकि जीवनोपयोगी प्रायः प्रत्येक का पता चलता है । जैन प्रबन्ध संग्रह पट्टाबलियाँ, विषय के जैन ग्रन्थ रचे गये हैं। इसलिए जैन साहित्य तीर्थ मालाएँ और ऐतिहासिक गीत, काव्य आदि में केवल जैनों के लिए ही उपयोगी नहीं, उसकी सार्वजनिक अनेक छोटे-बड़े ग्रामनगरों वहाँ के शासकों, प्रधान उपयोगिता है । व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, काव्य- व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है । जिनसे छोटे-छोटे शास्त्र, वैद्यक, ज्योतिषि मंत्र-तंत्र, गणित, रत्न परीक्षा गाँवों की प्राचीनता, उनके पुराने नाम और वहाँ की आदि अनेक विषयों के जैन ग्रन्थ प्राकृत, संस्कृत, कन्नड, स्थिति का परिचय मिलता है । बहुत से ऐसे शासको तमिल, और राजस्थानी, हिन्दी, गुजराती में प्राप्त है। के नाम जो इतिहास में कहीं नहीं मिलते, उनका इनमें से कोई ग्रन्थ तो इतने महत्वपूर्ण हैं कि जैनेतरों जैन ग्रथों में उल्लेख मिल जाता है। बहुत से राजाओं ने भी उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है और उन्हें आदि के काव्य निर्णय में भी जैन सामग्री काफी सूचअपनाया है । जैन विद्वानों ने साहित्यक क्षेत्र में बहत नाएँ देती है, व सहायक होती है। गुर्दावली तो बहुत उदारता रखी । किसी भी विषय का अच्छा नथ महत्वपूर्ण है। कहीं भी उन्हें प्राप्त हो गया तो जैन विद्वानों ने उसकी प्रति यदि मिल सकी तो ले ली या खरीद करवाली, . जैन साहित्य की गुणवता - नहीं तो नकल करवा के भण्डार में रख ली। जैनेतर अब यहाँ कुछ ऐसे जैन ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय ग्रन्थों का पठन-पाठन भी वे बराबर करते ही थे। अतः कराया जायगा जो अपने ढंग के एक ही हैं। आवश्यकता अनुभव करके उन्होंने बहुत से जैनेतर इनमें कई ग्रन्थ तो ऐसे-ऐसे भी हैं जो भारतीय साहित्य ग्रन्थों पर महत्वपूर्ण टीकाएँ लिखी हैं। इससे उन ग्रथों ही में नहीं विश्व साहित्य में भी अजोड़ हैं। प्राचीन का अर्थ या भाव को समझना सबके लिए सुलभ हो भारत में ज्ञान-विज्ञान का कितना अधिक विकास हआ गया और उन ग्रन्थों के प्रचार में अभिवद्धि हई। जैने- था और आगे चलकर उसमें कितना ह्रास हो गया, तर ग्रथों पर जैन टीकाओं सम्बन्धी मेरा खोजपूर्ण इसकी कुछ झाँकी आगे दिये जानेवाले विवरणों से लेख 'भारतीय विद्या' के 2 अंकों में प्रकाशित हो चुका पाठकों को मिल जायगी। ऐसे कई ग्रंथों का तो प्रकाहै। जैन नथों में अनेक बौद्ध और वैदिक ग्रंथों के शन भी हो चुका है पर उनकी जानकारी विरले ही उदाहरण पाये जाते हैं। उनमें से कई जनेतर ग्रथ तो व्यक्तियों को होगी। वास्तव में जैन साहित्य अब तक २२१ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत ही उपेक्षित रहा है और बहुत से विद्वानों ने तो दृष्टि से बड़े महत्व का है । फलादेश विषयक यह ग्रन्थ यह गलत धारणा बना ली है कि जैन साहित्य, जैन- एक पारिभाषिक ग्रन्थ है । डॉ. अग्रवालजी ने इसे धर्म आदि के सम्बन्ध में हो होगा । सर्वजनोपयोगी कुषाण गुप्त युग की सन्धि काल का बतलाया है अर्थात साहित्य उसमें नहीं है । पर वास्तव में सर्वजनोपयोगी यह ग्रन्थ बहुत पुराना है इस तरह के न मालूम कितने जैन साहित्य बहुत बड़े परिमाण में प्राप्त है जिससे महत्वपूर्ण ग्रन्थ काल में समा गये हैं। लाभ उठाने पर भारतीय समाज का बहुत बड़ा उपकार होगा। बहुत-सी नई और महत्वपूर्ण जानकारी प्राकृत भाषा का दूसरा महत्वपूर्ण ग्रन्थ है संघ जैन साहित्य के अध्ययन से प्रकाश में आ सकेगी। दास गणि रचित 'वसूदेव हिन्डी' यह भी तीसरी और पांचवीं शताब्दी के बीच की रचना है । इसमें मुख्यतः प्राकृत भाषा का एक प्राचीन ग्रन्थ 'अंगविज्जा' तो श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के भ्रमण और कई मूनि पूण्य विजय जी संपादित प्राकृत ग्रन्थ परिषद से विवाहों का वर्णन है, पर इसमें प्रासंगिक रूप में अनेक प्रथम ग्रन्थाङ्क के रूप में सन् 1947 में प्रकाशित हुआ पौराणिक और लौकिक कथाओं का समावेश भी पाया है। 1 हजार श्लोक परिमित यह ग्रन्थ अपने विषय का जाता है । पाश्चात्य विद्वानों और डॉ. जगदीश चन्द्र सारे भारतीय साहित्य में एक ही ग्रन्थ है। इसमें इतनी जेन तथा डॉ. सांडेसरा आदि के अनुसार यह दृहद् कथा विपुल और विविध सांस्कृतिक सामग्री सुरक्षित है कि नामक लुप्त ग्रंथ की बहुत अंशों में पूर्ति करता है। समय के जैनाचार्य का किन-किन विषयों का कैसा सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से इसका बहत ही महत्व विशद शान था यह जानकर आश्चर्य होता है। डॉ.वासु- है । इस सम्बन्ध में 2 बड़े-बड़े शोध प्रबंध ग्रन्थ लिखे देव शरण अग्रवाल ने हिन्दी में और डा. मोतीचन्द्र जा चुके हैं । वसुदेव हिन्दी व मध्यम खण्ड भी असंख्य ने अंग्रेजी में इस ग्रन्थ का जो विवरण दिया है, उससे मिले हैं - प्राकृत भाषा का तीसरा उल्लेखनीय ग्रंथ इसका महत्व स्पष्ट हो जाता है । निवित्त शास्त्र के है-ऋषि जैन बौद्ध और वैदिक तीनों धर्मों के हैं। 8 प्रकारों में पहली 'अंग विद्या' है। अग्रवालजी ने अपने ढ़ग का यह एक ही ग्रंथ है। इसी तरह हरिभद्र लिखा है कि अंग विद्या क्या थी ? इसको बतानेवाला सूरि का धुर्ताख्यान भी प्राकृत भाषा का अनूठा नथ एकमात्र प्राचीन ग्रन्थ यही जैन साहित्य में अंग विज्जा है । ये दोनों ग्रथ. प्रकाशित हो चुके हैं । के नाम से बच गया है। भारतीय मुद्रा शास्त्र सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण ग्रंथ यह अंग विज्जा नामक प्राचीन शास्त्र सांस्कृतिक दृष्टि है 'द्रव्य परीक्षा' जिसकी रचना अलाउद्दीन खिलजी से अति महत्वपूर्ण सामग्री से परिपूर्ण है। अंग विज्जा के कोषाध्यक्ष या भण्डारी खरतर गच्छीय जैन श्रावक के आधार पर वर्तमान प्राकृत कोषों में अनेक नये ठक्कुर फेरु' ने की है। उस समय की प्रचलित सभी शब्दों को जोड़ने की आवश्यकता है। मुनि पुण्य मुद्राओं के तील, माप मूल्य आदि की जो जानकारी विजयजी ने जो ग्रंथ के अन्त में शब्दकोश दिया है, उसमें इस ग्रंथ में दी गई है, वैसी और किसी भी नथ में हजारों नाम व शब्द आये हैं जिनमें से बहत सों का नहीं मिलती। ठक्कुर फेरु ने इसी तरह धापत्ति सही अर्थ बतलाना भी आज कठिन हो गया है। मुनि- वास्तुनुसार गणितसार, ज्योतिषसार रत्न परीक्षा आदि श्री ने लिखा है कि सामान्यतया प्राकृत वाकया में जिन महत्वपूर्ण नथ बनाये हैं । इन सबकी प्राचीन हस्तक्रियापदों का उल्लेख सग्रह नहीं हआ है, उनका संग्रह लिखित प्रति की खोज मैंने ही की. और मनि जिन इस ग्रन्थ में विपुलता से हुआ है जो प्राकृत समृद्धि की विजयजी द्वारा सभी ग्रंथों को एक संग्रह प्रथ में २२२ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशित करवा दिया है / राजस्थान प्राच्य विद्या रूप में प्रकाशित हो चुका है। वैसे द्विसंधान, पचसंधान प्रतिष्ठान जोधपुर से यह प्रकाशित है / आदि तो कई काव्य मिलते हैं पर सप्तसंधान काव्य विश्वभर में यह एक ही है / ग्रथकार ने ऐसा काव्य संस्कृत भाषा में एक विलक्षण ग्रोथ है 'पाश्वभ्युि 3 पहले आचार्य हेमचन्द ने बनाया था, उल्लेख किया दय काव्य जिसकी रचना आ. जिनसेन ने की है। __ है, पर वह प्राप्त नहीं है / इसमें मेघदून के समग्रचरणों की पादपूर्ति रूप में भगवान पार्श्वनाथ का चरित्र दिया है / कालिदास के दक्षिण के दिगम्बर जैन विद्वान हसदेव रचित, मग पद्यों के भावों को आत्मसात करके ऐसा काव्य यह सबसे पक्षी शास्त्र, भी अपने ढ़ग का एक ही नथ है। इसमें पहले समग्र पादपूर्ति के रूप में बनाकर ग्रंथकार ने पशु-पक्षियों की जाति एवं स्वरूप का निरूपण है। अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है। इस नथ का विशेष विवरण मेरी प्रेरणा से श्री जयंत ठाकुर ने गुजराती में लिखकर 'स्वाध्याय पत्रिका' में विश्व साहित्य में अजोड़ अन्य जैन संस्कृत ग्रथ है प्रकाशित कर दिया है। इस ग्रथ की प्रतिलिपि बड़ौदा 'अष्ठ लक्षी' / इसे सम्राट अकबर के समय में महो के प्राच्यविद्या मन्दिर में है / पशु-पक्षियों सम्बन्धी पाध्याय समय सून्दर ने संवत 1649 में प्रस्तुत किया। ऐसी जानकारी अभी किसी भी प्राचीन ग्रंथ में नहीं था। इस आश्चर्यकारी प्रयत्न से सम्राट बहुत ही प्रसन्न मिलती। र हआ। इस ग्रंथ में 'राजा नोद दते सोख्यम' इन आठ अक्षरोंवाले वाक्य के 10 लाख से भी अधिक कन्नड साहित्य का एक विलक्षण ग्रथ है 'भूवलय'। अर्थ किये हैं। रचियता ने लिखा है कि कई अर्थ संगति यह अंकों में लिखा गया है। कहा जाता है कि इसमें में ठीक नहीं बैठे तो भी 2 लाख शब्दों को बाद देकर अनेकों ग्रंथ संकलित हैं एवं अनेकों भाषाएं प्रयुक्त हैं। आठ लाख अर्थ तो इसमें व्याकरण सिद्ध हैं ही इसीलिए इसका एक भाग जैन मित्र मंडल दिल्ली से प्रकाशित इसका नाम 'अष्ट लक्षी' रखा है। यह ग्रंथ देवचन्द हआ है। राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद जी के समय तो इस लाल भाई पुस्तकोद्वार फण्ड सूरत से प्रकाशित 'अनेकार्थ ग्रंथ के सम्बन्ध में काफी चर्चा हुई थी। पर उसके रत्न मंजूषा' में प्रकाशित हो चुका है। बाद उसका पूरा रहस्य सामने नहीं आ सका। संस्कृत का तीसरा अपूर्व ग्रंथ है-सप्त संधान हिन्दी भाषा में एक बहुत ही उल्लेनीय रचना है महाकाव्य, यह 18वीं शताब्दी के महान विद्वान 'अर्द्ध कथानक' / 17वीं शताब्दी के जैनसुकवि बनारसी उपाध्याय मेघविजय रचित है / इसमें भी ऋषभदेव, दासजी ने अपने जीवन की आत्मकथा बहुत ही शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर इन पाँच रोचक रूप में इस ग्रंथ में दी है इस आत्मकथा की तीर्थंकरों और श्लोक प्रसिद्ध महापुरूष राम और प्रशंसा श्री बनारसी दास चतुर्वेदी ने मुक्त कंठ से की कृष्ण, इन संतों-महापुरुषों की जीवनी एक साथ चलती है। इस तरह के और भी अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ जैन है / यह रचना विलक्षण तो है ही / कठिन भी इतनी साहित्य-सागर में प्राप्त हैं, जिससे भारतीय साहित्य है कि बिना टीका के सातों महापुरुषों में सजीवन प्रत्येक अवश्य ही गौरवान्वित हुआ है। वास्तव में इस श्लोक की संगति बैठाना विद्वानों के लिए भी संभव विषय पर तो एक स्वतंत्र ग्रंथ ही लिखा जाना नहीं होता। यह महाकाव्य टीका के साथ पत्राकार अपेतिक्ष है। यहाँ तो केवल संक्षिप्त झाँकी ही दी है 223