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________________ इसके बाद तो समंतभद्र' सिद्धसेन, पूज्यमाद, की बँगला आदि अन्य प्रांतीय भाषाओं में भी जैनों की अकलंक हरिभद्र आदि श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों रचित प्राप्त हैं। हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती में सम्प्रदायों के विद्वानों द्वारा दार्शनिक, न्याय ग्रथ और तो लाखों श्लोक परिमित गद्य और पद्य की जैन रचटीकाएँ आदि संस्कृत में बराबर रची जाती रही। नाएं प्राप्त हैं एवं प्राचीनतम रचनाएं जैनों की ही और आगे चलकर तो संस्कृत में काव्य, चरित्र और प्राप्त हैं। सभी विषयों के जैन ग्रन्थ संस्कृत में खूब लिखे गये । कथाओं का भंडार जैन-साहित्यअपभ्रंश एवं लोकभाषाओं में जैन साहित्य-- लोकभाषा की तरह लोककथाओं और देशी जैन भाषा में निरन्तर परिवर्तन होता ही रहा संगीत को भी जैनों ने विशेष रूप से अपनाया। इसीहै अतः प्राकृत भाषा अपम्रश के रूप में लिए लोककथाओं का भी बहुत बड़ा भंडार जैन परिवर्तित हो गयी । अपभ्रंश में भी जैनों ने ही साहित्य में पाया जाता है। और लोकगीतों की चाल सर्वाधिक साहित्य का निर्माण किया है । वैसे तो था 'तर्ज' पर हजारों स्तवन, सझाय, ढाल आदि प्राचीन नाटकों में भिन्न जाति एवं साधारण छोटे-बड़े काव्य रचे गये हैं। उन ढाल आदि के प्रारम्भ पुरुषों और स्त्रियों की भाषा की 'रचनाएं 8 वीं में किस' लोक गीत की तर्ज पर इस 'गीत' रचना 9वीं शताब्दी से मिलने लगती हैं, और 17 वीं को गाना चाहिए, इसका कुछ उल्लेख करते हुए उस शताब्दी तक छोटी-बड़ी सैकड़ों रचनाएँ जैन कवियों लोकगीत की प्रारम्भिक कुछ पंक्तियाँ भी उद्धृत कर की रचित आज भी प्राप्त है। कवि स्वयंभू पुष्पदंत, दी गई हैं जिससे हजारों विस्मृत और लुप्त लोकधनपाल आदि अपभ्रश के जैन महाकवि हैं । जैनेतर गीतों की जानकारी मिलने के साथ-साथ कौनसा गीत रक्तिग्रंथ अपभ्रंश में नहीं मिलता क्योंकि उन्होंने कितना पुराना है, इसके निर्णय करने में भी सुविधा प्रारम्भ से ही संस्कृत को प्रधानता दी थी; अतः हो गई है। इस सम्बन्ध में मेरे कई लेख प्रकाशित हो उनका सर्वाधिक साहित्य संस्कृत में है। चुके हैं। अपभ्रश से उत्तर भारत की प्रान्तीय भाषाओं एक-एक लोककथा को लेकर अनेकों जैन रचनाएँ का विकास हआ । 13वीं शताब्दी से राजस्थानी, प्राकृत, संस्कृत, राजस्थानी आदि भाषाओं में जैन गुजराती और हिन्दी में साहित्य मिलने लगता है। विद्वानों ने लिखी हैं। इससे वे लोककथाएं कौनसी यद्यपि 15वीं शताब्दी तक अपभ्रंश का प्रभाव कितनी पुरानी है, उनका मूल रूप क्या था उन रचनाओं में पाया जाता है। उस समय तक और कब-कब कैसा और कितना परिवर्तन उनमें होता राजस्थान और गुजरात में तो एक ही भाषा बोली रहा, इन सब बातों की जानकारी जैन कथा साहित्य जाती थी, जिसे राजस्थान वाले पुरानी राजस्थानी एवं से ही अधिक मिल सकती है । उन लोककथाओं को गुजरातवाले जूनी-गुजराती कहते हैं अतः कई विद्वानों धर्म प्रचार का माध्यम बनाने के लिए उनमें जैन ने उसे 'मरु-गूजर' भाषा कहना उचित अधिक माना सिद्धांतों और आचार विचार का पुट दे दिया है। आगे चलकर राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी में गया है जिससे जनता उन कथाओं को सुनकर पापों से प्रान्तीय भेद अधिक स्पष्ट होता गया। और इन बचे और अच्छे कार्यों की प्रेरणा प्राप्त करे । क्योंकि तीनों भाषाओं में जैन विद्वानों ने प्रचूर रचनाएँ कथाएँ, बालक, युवा-वृद्ध स्त्री-पुरुष सभी को समान बनायी हैं। वैसे कुछ रचताए सिन्धी, मराठी रूप से प्रभावित करती है इसलिए जैन लेखकों ने २.६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210928
Book TitleJain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherZ_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Publication Year
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size693 KB
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