Book Title: Jain Sadhna me Dhyan swarup aur Darshan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 5
________________ में पाण्डुक शिला पर उज्ज्वल स्फटिक-सिंहासन सुशोभित हो रहा है, उस सिंहासन पर मेरा आत्मा योगी के रूप में आसीन है। इस प्रकार की कल्पना से उसका मन स्थिर हो जाता है। याज्ञवल्क्य के अनुसार पृथ्वी-धारणा सिद्ध होने पर शरीर में किसी प्रकार का रोग नहीं होता। आग्नेयी धारणा पार्थिवी धारणा के पश्चात् साधक आग्नेयी धारणा में प्रविष्ट होता है। वह कल्पना करता है कि आत्मा सिंहासन पर विराजमान होकर नाभि के भीतर हृदय की ओर ऊपर मुख किये हुए सोलह पंखुड़ियों वाले रक्त कमल या श्वेत कमल की कल्पना की जाती है। और उन पंखुड़ियों पर अ, आ, ई, ऋ, ल, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं अः इन स्वरों की स्थापना की जाती है और कमल के मध्य में 'ह' अक्षर की कल्पना की जाती है। कमल के ठीक ऊपर हृदय-स्थान में नीचे की ओर मुख किये हुए औंधे मुख वाले मटिया रंग के कमल की कल्पना की जाती है। और उसके प्रत्येक पत्ते पर श्याम रंग से लिखे हुए आठ कर्मों का चिन्तन किया जाता है। प्रस्तुत चिन्तन में नाभि में स्थित कमल के बीच लिखे हुए 'ह' अक्षर के ऊपरी सिरे रेफ में से धुआं निकल रहा है-इस प्रकार कल्पना की जाती है। उसी के साथ रक्त वर्ण की ज्वाला को भी कल्पना से अवलोकन करना चाहिए और वह ज्वाला प्रतिपल बढ़ती हुई आठ कर्मों को जला देती है। कमल के मध्य भाग को छेदकर ज्वाला मस्तक तक पहुंच जाए फिर यह चिन्तन करे कि ज्वाला की एक रेखा बाईं ओर से और दूसरी रेखा दाईं ओर से निकल रही है। और दोनों ज्वाला-रेखाएं नीचे आकर पुनः मिल जाती हैं। इस आकृति से शरीर के बाहर तीन कोशवाला अग्नि-मंडल बनता है। उस अग्निमंडल से तीव्र ज्वालाएं धधकती हैं जिससे आठों कर्म भस्म हो जाते हैं। और आत्मा तेज रूप में दमकता है। उसके दिव्य आलोक में साधक अपना प्रतिबिंब देखता है। उपनिषदों के अनुसार, जिसको आग्नेयी धारणा सिद्ध हुई हो उस योगी को धधकती हुई आग में डाल दिया जाये तो भी वह जलता नहीं है। वायवी धारणा आग्नेयी धारणा से कर्मों को भस्म कर देने के पश्चात् पवन की कल्पना की जाती है और उसके साथ मन को जोड़ते हैं। साधक चिंतन करता है कि तेज पवन चल रहा है, उस पवन से आठ कर्मों की राख अनन्त आकाश में उड़ गई है, नीचे हृदय-कमल सफेद और उज्ज्वल हो गया है। जिसे वायवी धारणा सिद्ध हो जाती है वह योगी आकाश में उड़ सकता है। वायु-रहित स्थान में भी वह जीवित रह सकता है, और उसे वृद्धावस्था नहीं आती। वारुणी धारणा यह चतुर्थ धारणा है । पवन के आगे आकाश में उमड़-घुमड़कर घटाएं आ रही हैं, बिजली कौंध रही है, तेज वर्षा हो रही है और उस वर्षा से मेरे आत्मा पर लगी हुई कर्म-रूपी धूल नष्ट हो गयी है। आत्मा पूर्ण निर्मल और पवित्र हो गया है। कहा जाता है, जिसे जलधारणा सिद्ध हो जाती है वह साधक अगाध जल में भी डूबता नहीं। उसके समस्त ताप और पाप शान्त हो जाते हैं।' तत्त्वरूपवतीधारणा इसे तत्त्वभूधारणा भी कहते हैं। इसे आकाश-धारणा भी कहा गया है। इस धारणा में साधक यह चिन्तन करता है-मुझ में अनन्त शक्तियां हैं। मैं आकाश के समान अनन्त हूँ। जैसे आकाश पर किसी प्रकार का लेप नहीं होता, उसी तरह मुझ पर भी किसी प्रकार का लेप (आवरण) नहीं । वह आत्मस्वरूप का चिन्तन करता है । इस तरह इस पिण्डस्थ ध्यान की पांच धारणाएं हैं। इन धारणाओं से साधक अपने ध्येय के सन्निकट पहुंचता है। इन धारणाओं के सिद्ध होने पर आत्म-शक्तियां अत्यधिक जाग्रत हो जाती हैं। इससे कोई भी शक्ति उसे पराभूत नहीं कर पाती। पदस्थ ध्यान ध्यान का दूसरा रूप पदस्थ है। पद का अर्थ अक्षरों पर मन को स्थिर करना। पवित्र पदों का अवलंबन लेकर चित्त को स्थिर किया जाता है।' इस ध्यान में मंत्र पदों की कल्पना से शरीर के विभिन्न स्थानों पर लिखा जाता है और उन अक्षरों को कल्पना-चक्षु से १.योगवाशिष्ठ, निर्वाण-प्रकरण, पृ०८१ से १२ २. वही ३. यत्पदानि पवित्राणि समालम्थ्य विधीयते । तत्पदस्थं समाख्यातं ध्यानं सिद्धान्तपारगः ॥ योगशास्त्र, ८/१ जैन धर्म एवं आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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