Book Title: Jain Sadhna me Dhayn Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf View full book textPage 5
________________ 48 उसके द्वारा संकल्प - विकल्पों में विभक्त चित्त को केन्द्रित किया जाता है। विविध वासनाओं, आकांक्षाओं और इच्छाओं के कारण चेतना शक्ति अनेक रूपों में विखण्डित होकर स्वतः में ही संघर्षशील हो जाती है।" उस शक्ति का यह बिखराव ही हमारा आध्यात्मिक पतन है। ध्यान इस चैत्तसिक विघटन को समाप्त कर चेतना को केन्द्रित करता है। चूंकि वह विघटित चेतना को संगठित करता है। इसीलिए वह 'योग' (Unification) है। ध्यान चेतना के संगठन की कला है। संगठित चेतना ही शक्तिस्रोत है, इसीलिए यह माना जाता है कि ध्यान से अनेक आत्मिक लब्धियां या सिद्धियां प्राप्त होती है। चित्तधारा जब वासनाओं एवं आकांक्षाओं के मार्ग से बहती है तो वह वासनाओं, आकांक्षाओं, इच्छाओं की स्वाभाविक बहुविधता के कारण अनेक धाराओं में विभक्त होकर निर्बल हो जाती है। ध्यान इन विभक्त एवं निर्बल चित्तधाराओं को एक दिशा में मोड़ने का प्रयास है। जब ध्यान की साधना या अभ्यास से चित्तधारा एक दिशा में बहने लगती है, तो न केवल वह सबल होती है, अपितु नियंत्रित होने से उसकी दिशा भी सम्यक् होती है। जिस प्रकार बांध विकीर्ण जलधाराओं को एकत्रित कर उन्हें सबल और सुनियोजित करता है, उसी प्रकार ध्यान भी हमारी चेतनाधारा को सबल और सुनियोजित करता है। जिस प्रकार बांध द्वारा सुनियोजित जल- शक्तिः का सम्यक् उपयोग सम्भव हो पाता है, उसी प्रकार ध्यान द्वारा सुनियोजित चेतनशक्ति का सम्यक् उपयोग सम्भव है। संक्षेप में आत्मशक्ति के केन्द्रीकरण एवं उसे सम्यक् दिशा में नियोजित करने के लिए ध्यान साधना आवश्यक है। वह चित्त वृत्तियों की निरर्थक भागदौड़ को समाप्त कर हमें मानसिक विक्षोभ एवं विकारों से मुक्त रखता है। परिणामतः वह आध्यात्मिक शान्ति और निर्विकल्प चित्त की उपलब्धि का अन्यतम साधन है। ध्यान के पारम्पारिक एवं व्यावहारिक लाभ ध्यानशतक (झाणज्झयन) में ध्यान से होनेवाले पारम्परिक एवं व्यावहारिक लाभों को विस्तृत चर्चा है। उसमें कहा गया है कि धर्मध्यान से शुभास्स्रव, संवर, निर्जरा और देवलोक के सुख प्राप्त होते हैं। शुक्ल ध्यान के भी प्रथम दो चरणों का परिणाम शुभास्रव एवं अनुत्तर देवलोक के सुख हैं, जबकि शुक्ल ध्यान के अन्तिम दो चरणों का फल मोक्ष या निर्वाण है। यहां यह स्मरण रखने योग्य है कि जब तक ध्यान में विकल्प है, आकांक्षा है, चाहे वह प्रशस्त ही क्यों न हो, तब तक वह शुभास्रव का कारण तो होगा ही । १) पुढो छंदा इह माणवा, पुढो दुक्खं पवेदितं । - आचारांग १।५।२।२५ अगचित्ते खलु अयं पुरिसे से केयणं अरिहए पूरइत्तर - आचारांग ५।३।२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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