Book Title: Jain Sadhna me Dhayn
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 30
________________ ३) अशुभानुप्रेक्षा संसार, देह और भोगों की अशुभता का विचार करना । ४) अपायानुप्रेक्षा राग द्वेष से होनेवाले दोषों का विचार करना । - - शुक्लध्यान के चार प्रकारों के सम्बन्ध में बौद्धों का दृष्टिकोण भी जैन परम्परा के निकट ही आता है। बौद्ध परम्परा में चार प्रकार के ध्यान माने गये हैं। 73 १) सवितर्क - सविचार - विवेकजन्य प्रीतिसुखात्मक प्रथम ध्यान। २) वितर्क विचार - रहित समाधिज प्रीतिसुखात्मक द्वितीय ध्यान । ३) प्रीति और विराग से उपेक्षक हो स्मृति और सम्प्रजन्य से युक्त उपेक्षा स्मृति सुखविहारी तृतीय ध्यान। . - ४) सुख-दुःख एवं सौमनस्य- दौर्मनस्य से रहित असुख - अदुःखात्मक उपेक्षा. एवं परिशुद्धि से युक्त चतुर्थ ध्यान । इस प्रकार चारों शुक्ल ध्यान बौद्ध परम्परा में भी थोड़े शाब्दिक अन्तर के साथ उपस्थित है। योग परम्परा में भी समापत्ति के चार प्रकार बतलाये हैं, जो कि जैन परम्परा के शुक्लध्यान के चारों प्रकारों के समान ही लगते हैं। समापत्ति के वे चार प्रकार निम्नानुसार है - सवितर्का, २. निर्वितर्का, ३. सविचारा और ४. निर्विचारा | Jain Education International शुक्लध्यान के स्वामी के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर मूलपाठ और दिगम्बर मूलपाठ में तो अन्तर नहीं है किंतु 'च' शब्द से क्या अर्थ ग्रहण करना इसे लेकर मतभेद है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार उपशान्त कषाय एवं क्षीणकषाय पूर्वधरों में चार शुक्लध्यानों में प्रथम दो शुक्लध्यान सम्भव है। बाद के दो केवली (सयोगी केवली और अयोगी केवली) में सम्भव हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार . आठवें गुणस्थान से चोदहवें गुणस्थान तक शुक्लध्यान सम्भव है। पूर्व के दो शुक्लध्यान सम्भव आठवें से बारहवें गुणस्थानवर्ती पूर्वधरों के होते हैं और शेष दो तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली के । १ जैनधर्म में ध्यान साधना का इतिहास जैन धर्म में ध्यान साधना की परम्परा प्राचीनकाल से ही उपलब्ध होती है। सर्वप्रथम हमें आचारांग में महावीर के ध्यान साधना संबंधी अनेक सन्दर्भ उपलब्ध हैं। आचारांग के अनुसार महावीर अपने साधनात्मक जीवन में अधिकांश समय ध्यान साधना में ही लीन रहते थे। आचारांग से यह भी ज्ञात होता है कि महावीर न केवल १) तत्त्वार्थ सूत्र ९३३९-४०, २) आचारांग १।९।१२६, १।९।२।४ १ ९ २ १२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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