Book Title: Jain Sadhna ka Adhar Samyagdarshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 3
________________ ४४८ (२०) (२१) (२२) (२३) (२४) (२५) १. २. ३. ४. २. आसातना मिध्यात्वपूज्य वर्ग की निन्दा और आलोचना करना। अविनय और आसातना को मिथ्यात्व इसलिए कहा गया है। कि इनकी उपस्थिति से व्यक्ति गुरुजनों का यथोचित सम्मान नहीं करता है और फलस्वरूप उनसे मिलने वाले यथार्थता के बोध से वंचित रहता है। बौद्ध दर्शन में मिध्यात्व के प्रकार महात्मा बुद्ध ने सद्धर्म का विनाश करने वाली कुछ धारणाओं का विवेचन अंगुत्तरनिकाय १० में किया है जो कि जैन विचारणा के मिध्यात्व की धारणा के बहुत निकट है। तुलना की दृष्टि से हम उनकी संक्षिप्त सूची प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसके आधार पर यह जाना जा सके कि दोनों विचार परम्पराओं का इस सम्बन्ध में कितना अधिक साम्य है। अधर्म को अधर्म बताना। धर्म को धर्म बताना। भिक्षु अनियम (अविनय) को भिक्षुनियम (विनय) बताना । भिक्षु नियम को अनियम बताना। ५. ६. ७. ८. जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ अधिक मिथ्यात्व-आंशिक सत्य को उससे अधिक अथवा पूर्ण सत्य समझ लेना। विपरीत मिथ्यात्व वस्तुतत्त्व को उसके विपरीत रूप में समझना । अक्रिया मिथ्यात्व - आत्मा को ऐकान्तिक रूप से अक्रिय मानना अथवा सिर्फ ज्ञान को महत्त्व देकर आचरण के प्रति गीता में अज्ञान : उपेक्षा रखना। अज्ञान मिध्यात्व ज्ञान अथवा विवेक का अभाव। अविनय मिथ्यात्व पूज्य वर्ग के प्रति समुचित सम्मान प्रकट न करना अथवा उनकी आज्ञाओं का परिपालन नहीं करना । पूज्यबुद्धि और विनीतता का अभाव अविनय मिथ्यात्व है। ९. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १९. तथागत (बुद्ध) द्वारा अभाषित को तथागत भाषित कहना। तथागत द्वारा भाषित को अभाषित कहना। तथागत द्वारा अनाचरित को आचरित कहना। तथागत द्वारा आचरित को अनाचरित कहना | तथागत द्वारा नहीं बनाए हुए (अप्रज्ञप्त ) नियम को प्रज्ञप्त कहना तथागत द्वारा प्रज्ञप्त (बनाए हुए नियम) को अप्रज्ञप्त बताना। अनपराध को अपराध कहना । अपराध को अनपराध कहना । लघु अपराध को गुरु अपराध कहना। गुरु अपराध को लघु अपराध कहना । गम्भीर अपराध को अगम्भीर कहना। अगम्भीर अपराध को गम्भीर कहना। निर्विशेष अपराध को सविशेष कहना। सविशेष अपराध को निर्विशेष कहना । २०. Jain Education International गीता के मोह, अज्ञान या तामसिक ज्ञान भी मिथ्यात्व कहे जा सकते हैं। इस आधार पर विचार करने से गीता में मिथ्यात्व का निम्न स्वरूप उपलब्ध होता है १. अयोग्य कहना । प्रायश्चित्त के अयोग्य (अप्रतिकर्म) आपत्ति को प्रायश्चित्त के योग्य (सप्रतिकर्म) कहना। (२) (३) परमात्मा लोक का सर्जन करने वाला, कर्म का कर्ता एवं कर्मों के फल का संयोग करने वाला है अथवा वह किसी के पाप-पुण्य को ग्रहण करता है, यह मानना अज्ञान है (५-१४, १५) | पाश्चात्य दर्शन में मिथ्यात्व का प्रत्यय मिथ्यात्व यथार्थता के बोध का बाधक तत्त्व है। वह एक ऐसा रंगीन चश्मा है जो वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को आवृत कर व्यक्ति के समक्ष उसका अयथार्थ किंवा भ्रान्त स्वरूप ही प्रकट करता है। भारत ही नहीं, पाश्चात्य देशों के विचारकों ने भी यथार्थता या सत्य के जिज्ञासु को मिथ्या धारणाओं से परे रहने का संकेत किया है। पाश्चात्य दर्शन के नवयुग के प्रतिनिधि फ्रांसिस बेकन शुद्ध और निर्दोष ज्ञान की प्राप्ति के लिए मानस को निम्न चार मिथ्या धारणाओं से मुक्त रखने का निर्देश करते हैं, चार मिथ्या धारणाएँ निम्न हैं (१) (४) प्रमाद, आलस्य और निद्रा अज्ञान है (१४-८), धन परिवार एवं दान का अहंकार करना अज्ञान है (१६-१५) विपरीत ज्ञान के द्वारा क्षणभंगुर नाशवान शरीर में आत्म-बुद्धि रखना व उसमें सर्वस्व की भाँति आसक्त रहना, जो कि तत्त्व-अर्थ से रहित और तुच्छ है, तामसिक ज्ञान है (१८-१२)। इसी प्रकार असद् का ग्रहण, अशुभ आचरण (१६-१०) और संशयात्मकता को भी गीता में अज्ञान कहा गया है। जातिगत मिथ्या धारणाएँ (Idola Tribus) सामाजिक संस्कारों से प्राप्त मिथ्या धारणाएँ । बाजारू मिथ्या विश्वास (Idola Fori)- असंगत अर्थ आदि । व्यक्तिगत मिथ्या विश्वास (Idola Speces) व्यक्ति के द्वारा बनाई गयी मिथ्या धारणाएँ (पूर्वाग्रह) रंगमंच की भ्रान्ति (Idola Theatri)- मिथ्या सिद्धान्त या मान्यताएँ । वे कहते हैं- 'इन मिथ्या विश्वासों (पूर्वाग्रहों) से मानस को मुक्त करके ही ज्ञान को यथार्थ और निर्दोष रूप में ग्रहण करना चाहिए । १८ जैन दर्शन में अविद्या का स्वरूप जैन दर्शन में अविद्या का पर्यायवाची शब्द मोह भी है। मोह आत्मा को सत् के सम्बन्ध में यथार्थ दृष्टि को विकृत कर उसे गलत प्रायश्चित्त योग्य (सप्रतिकर्म) आपत्ति को प्रायश्चित के मार्ग दर्शन करता है और असम्यक् आचरण के लिए प्रेरित करता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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