Book Title: Jain Sadhna ka Adhar Samyagdarshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 7
________________ 452 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ जगत सम्बन्धी अपने दृष्किोण पर विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहने कारण को जानने के कारण वह उसका निराकरण कर सत्य को पा लगा और जो लोग उसकी मान्यताओं के विपरीत मान्यता रखते थे सकेगा। यद्यपि पूर्ण यथार्थ दृष्टि तो एक साधक व्यक्ति में सम्भव नहीं है, उनको मिथ्यावादी कहने लगा और उनकी मान्यता को मिथ्यादर्शन। इस फिर भी उसकी राग-द्वेषात्मक वृत्तियों में जब स्वाभाविक रूप से कमी हो प्रकार सम्यग्दर्शन शब्द तत्त्वार्थश्रद्धान् (जीव और जगत के स्वरूप की) जाती है तो इस स्वाभाविक परिवर्तन के कारण पूर्वानुभूति और पश्चानुभूति के अर्थ में अभिरूढ हुआ। लेकिन तत्त्वार्थश्रद्धान के अर्थ में भी सम्यग्दर्शन में अन्तर ज्ञात होता है और इस अन्तर के कारण के चिन्तन में उसे दो शब्द अपने मूल अर्थ से अधिक दूर नहीं हुआ था। यद्यपि उसकी भावना बातें मिल जाती हैं- एक तो यह कि उसका दृष्टिकोण दूषित है और में दिशा बदल चुकी थी, उसमें श्रद्धा का तत्त्व प्रविष्ट हो गया था लेकिन उसकी दृष्टि की दूषितता का अमुक कारण है। यद्यपि यहाँ सत्य तो प्राप्त वह श्रद्धा थी तत्त्व के स्वरूप की मान्यता के सन्दर्भ में। वैयक्तिक श्रद्धा नहीं होता लेकिन अपनी असत्यता और उसके कारण का बोध हो जाता का विकास बाद की बात थी। श्रमण-परम्परा में सम्यग्दर्शन का दृष्टिकोणपरक है, जिसके परिणामस्वरूप उसमें सत्याभीप्सा जाग्रत हो जाती है। यही अर्थ ही ग्राह्य था जो बाद में तत्त्वार्थश्रद्धान् के रूप में विकसित हुआ यहाँ सत्याभीप्सा उसे सत्य या यथार्थता के निकट पहुँचती है और जितने तक तो श्रद्धा में बौद्धिक पक्ष निहित था, श्रद्धा ज्ञानात्मक थी। लेकिन अंश में वह यथार्थता के निकट पहुँचाता है उतने ही अंश में उसका ज्ञान जैसे-जैसे भागवत सम्प्रदाय का विकास हुआ, उसका प्रभाव जैन और और चारित्र शुद्ध होता जाता है। ज्ञान और चारित्र की शुद्धता से पुनः राग बौद्ध श्रमण परम्पराओं पर भी पड़ा। तत्त्वार्थ की श्रद्धा जब 'बुद्ध' और और द्वेष में क्रमश: कमी होती है और उसके फलस्वरूप उसके दृष्टिकोण 'जिन' पर केन्द्रित होने लगी- वह ज्ञानात्मक से भावात्मक और निर्वैयक्तिक में और अधिक यथार्थता आ जाती है। इसी प्रकार क्रमश: व्यक्ति स्वत: से वैयक्तिक बन गई जिसने जैन और बौद्ध परम्पराओं में भक्ति के तत्त्व ही साधना की चरम स्थिति में पहुँच जाता है। आवश्यकनियुक्ति में कहा का वपन किया।३६ मेरी अपनी दृष्टि में आगम एवं पिटक ग्रन्थों के गया है कि जल जैसे-जैसे स्वच्छ होता जाता है वैसे-वैसे द्रष्टा उसमें संकलन एवं लिपिबद्ध होने तक यह सब कुछ हो चुका था। अत: प्रतिबिम्बित रूपों को स्पष्टतया देखने लगता है, उसी प्रकार अन्तर में आगम और पिटक ग्रन्थों में सम्यग्दर्शन का भाषाशास्त्रीय विवेचन पर ज्यों-ज्यों तत्त्वरुचि जाग्रत होती है त्यों-त्यों तत्त्व-ज्ञान प्राप्त होता जाता आधारित यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ ही उसका प्रथम एवं मूल अर्थ है, है। इसे जैन परिभाषा में प्रत्येकबुद्ध (स्वत: ही यथार्थता को जानने वाले) लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण तो मात्र वीतराग पुरुष का ही हो सकता है, का साधना-मार्ग कहते हैं। जहाँ तक व्यक्ति राग और द्वेष से युक्त है उसका दृष्टिकोण यथार्थ नहीं लेकिन प्रत्येक सामान्य साधक यथार्थ दृष्टिकोण को इस प्रकार हो सकता। इस अर्थ को स्वीकार करने पर यथार्थ दृष्टिकोण तो प्राप्त नहीं करता है और उसके लिए यह सम्भव नही है; सत्य की साधनावस्था में सम्भव नहीं होगा, क्योंकि साधना की अवस्था सरागता स्वानुभूति का मार्ग कठिन हैं। सत्य को स्वयं जानने की विधि की अपेक्षा की अवस्था है। साधक- आत्मा में तो राग और द्वेष दोनों की दूसरा सहज मार्ग है और वह यह कि जिन्होंने स्वानुभूति से सत्य को उपस्थिति होती है, साधक तो साधना ही इसलिए कर रहा है कि वह जानकर उसका जो भी स्वरूप बताया है, उसको मानकर चलना। इसे ही इन दोनों से मुक्त हो, इस प्रकार यथार्थ दृष्टिकोण तो मात्र सिद्धावस्था जैनशास्त्रकारों ने तत्त्वार्थश्रद्धान् कहा है अर्थात् यथार्थ दृष्टिकोण से युक्त में होगा। लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण की आवश्यकता तो साधक के वीतराग ने अपने यथार्थ दृष्टिकोण में सत्ता का जो स्वरूप प्रकट किया लिए है, सिद्ध को तो वह स्वाभाविक रूप में प्राप्त है। यथार्थ है, उसे स्वीकार कर लेना। मान लीजिए कोई व्यक्ति पित्त विकार से दृष्टिकोण के अभाव में व्यक्ति का व्यवहार एवं साधना सम्यक् नहीं हो पीड़ित है, अब ऐसी स्थिति में वह किसी श्वेत वस्तु के यथार्थ ज्ञान से सकती अथवा अयथार्थ दृष्टिकोण ज्ञान और जीवन के व्यवहार को वंचित होगा। उसे वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्राप्त करने के दो मार्ग हो सम्यक् नहीं बना सकता है। यहाँ एक समस्या उत्पन्न होती है। यथार्थ सकते हैं- पहला मार्ग यह है कि उसकी बीमारी में स्वाभाविक रूप से दृष्टिकोण का साधनात्मक जीवन में अभाव होता है और बिना यथार्थ जब कुछ कमी हो जाये और वह अपनी पूर्व और पश्चात् की अनुभूति में दृष्टिकोण के साधना हो नहीं सकती। यह समस्या हमें ऐसी स्थिति में अन्तर पाकर अपने रोग को जाने और प्रयासों द्वारा उसे शान्त कर वस्तु डाल देती कि जहाँ हमें साधना मार्ग की सम्भावना को ही अस्वीकृत के यथार्थस्वरूप का बोध पा जाये। दूसरी स्थिति में जब किसी दूसरे करना होता है। यथार्थ दृष्टिकोण के बिना साधना सम्भव नहीं और व्यक्ति द्वारा उसे यह बताया जावे कि वह श्वेत वस्तु को पीत वर्ण की यथार्थ दृष्टिकोण साधना-काल में हो नहीं सकता। देख रहा है। यहाँ पर इस स्वस्थ दृष्टि वाले व्यक्ति की बात को स्वीकार लेकिन इस धारणा में एक भ्रान्ति है, वह यह कि साधना मार्ग कर लेने पर भी उसे अपनी रुग्णावस्था या अपनी दृष्टि की दृषितता का के लिए, दृष्टिकोण की यथार्थता के लिए, राग-द्वेष से पूर्ण विमुक्त दृष्टि ज्ञान हो जाता है और साथ ही वह वस्तुतत्त्व को यथार्थ रूप में जान भी का होना आवश्यक नहीं है, मात्र इतना आवश्यक है कि व्यक्ति लेता है। अयथार्थता को जाने और उसके कारण को जाने। ऐसा साधक यथार्थता सम्यग्दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहें या तत्त्वार्थश्रद्धान् उनमें को नहीं जानते हुए भी सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि वह असत्य मानता है वास्तविकता की दृष्टि से अन्तर नहीं होता है। अन्तर होता है उनकी और उसके कारण को जानता है अत: वह भ्रान्त नहीं है, असत्य के उपलब्धि की विधि में। एक वैज्ञानिक स्वत: प्रयोग के आधार पर किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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