Book Title: Jain Sadhna evam Yoga ke Kshetra me Acharya Haribhadrasuri Author(s): Mahendra Rankavat Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 2
________________ अतः तात्त्विक या पारमार्थिक दृष्ट्या उससे अभीप्सित बोध हो नहीं पाता । वह अल्पस्थितिक होती है । इसलिए कोई संस्कार निष्पन्न कर नहीं पाती, जिसके सहारे व्यक्ति आध्यात्मिक बोध की ओर गति कर सके। केवल इतना सा उपयोग इसका है, बोधमय प्रकाश की एक हल्की सी रश्मि आविर्भूत हो जाती है, जो मन में आध्यात्मिक उद्बोध के प्रति किञ्चित् आकर्षण उत्पन्न कर जाती है । संस्कार निष्पत्ति नहीं पाता इसलिए ऐसे व्यक्ति द्वारा भावात्मक दृष्टि से शुभ कार्यों का समाचरण यथावत् रूप में सधता नहीं, मात्र बाह्य या द्रव्यात्मक दृष्टि से वैसा होता है । २. तारादृष्टि तारा दृष्टि में समुत्पद्यमान बोध गोमय (गोबर) या उपलों के अग्निकणों से उपमित किया गया है । तिनकों के अग्निकण और उपलों के अग्निकण प्रकाश तथा उष्मा की दृष्टि से कुछ तरतमता लिए रहते हैं । तिनकों की अग्नि की अपेक्षा उपलों की अग्नि के प्रकाश एवं उष्मा कुछ विशिष्टता लिए रहते हैं, पर बहुत अन्तर नहीं होता । उपलों की अग्नि का प्रकाश भी अपेक्षाकृत अल्पकालिक होता है | लम्बे समय तक टिक नहीं पाता। इसलिए इसके सहारे किसी भी वस्तु का सम्यक्दर्शन नहीं हो सकता । तारा दृष्टि की ऐसी ही स्थिति है । उसमें बोधमय प्रकाश की जो झलक उद्भासित होती है, यद्यपि वह मित्रादृष्टि में होने वाले प्रकाश से कुछ तीव्र अवश्य होती है पर स्थिरता, शक्तिमत्ता आदि की अपेक्षा से अधिक ३. बला दृष्टि Jain Education International - जैसे काष्ठ की अग्नि का प्रकाश कुछ स्थिर होता है, अधिक समय टिकता है, कुछ शक्तिमान् भी होता है, इसी प्रकार बलादृष्टि में उत्पन्न बोध आया और गया ऐसा नहीं होता। वह कुछ टिकता भी है, सशक्त भी होता है । इसलिए (वह) संस्कार भी छोड़ता है । छोड़ा हुआ संस्कार ऐसा होता है, जो तत्काल मिटता नहीं । स्मृति में आस्थित हो जाता है । वैसे संस्कार की विद्यमानता साधक को जीवन में वास्तविक लक्ष्य की ओर उबुद्ध रहने को प्रेरित करती है, जिससे साधक में सत्कर्म के प्रति प्रीति उत्पन्न होती है । प्रीति की परिणति चेष्टा या प्रयत्न में होती है। ४. दीप्रा दृष्टि - अन्तर नहीं होता, इसलिए उससे भी साधक का कोई विशेष कार्य नहीं सधता, इतना सा है, मित्रा दृष्टि में जो झलक मिली थी वह किञ्चित् अधिक ज्योतिर्मयता के साथ साधक को तारा दृष्टि में स्वायत्त हो जाती है । तरतमता की दृष्टि से इसमें कुछ वैशेष्य आता है। जैन साधना एवं योग के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र सूरि की अनुपम देन : आठ योग दृष्टियाँ For Private & Personal Use Only दीप्रा दृष्टि में होनेवाला बोध दीपक की प्रभा से उपमित किया गया है। पूर्वोक्त तीन दृष्टियों में उपमान के रूप में जिन-जिन प्रकाशों का उल्लेख हुआ है, दीपक का प्रकाश उनसे विशिष्ट है । वह लम्बे समय तक टिकता है। उसमें अपेक्षाकृत स्थिरता होती है । वह सर्वथा अल्प बल नहीं होता। उसके सहारे पदार्थ को देखा जा सकता है । उसी प्रकार दीप्रा दृष्टि में होने वाला बोध उपर्युक्त दृष्टियों के बोध की अपेक्षा दीर्घकाल तक टिकता है, अधिक शक्तिमान् होता है । बला दृष्टि की अपेक्षा कुछ और दृढ़ संस्कार छोड़ता है जिससे साधक की अन्तः स्फूर्ति, सक्रिया के प्रति प्रीति और तदुन्मुख चेष्टा की स्थिति बनी रहती है । इतना तो होता है, पर साधक के क्रिया-कलाप में अब तक सर्वथा अन्तर्भावात्मकता नहीं आ पाती, द्रव्यात्मकता या बहिर्मुखता ही रहती है । वन्दन, नमस्कार, अर्चना, उपासना जो कुछ वह करता है, वह द्रव्यात्मक, यांत्रिक या बाह्य ही होती है । सक्रिया में संपूर्ण तन्मयता का भाव उस पुरुष में आ नहीं पाता, इसलिए वह क्रिया आन्तरिकता से नहीं जुड़ पाती । जैन संस्कृति का आलोक - τε www.jainelibrary.orgPage Navigation
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