Book Title: Jain Sadhna evam Yoga ke Kshetra me Acharya Haribhadrasuri Author(s): Mahendra Rankavat Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 6
________________ जैन संस्कृति का आलोक ही सर्वथा स्वाश्रित, स्वभावनिष्ठ, दिव्य, सौम्य बोध-ज्योति से आभासित रहता है। उसकी स्थिति सर्वथा आत्मपरायण अथवा स्वभावपरायण बन जाती है, जिसे वेदान्त की भाषा में विशद्ध-केवल 'अद्वैत' से उपमित किया जा सकता है। है, जिसका सुख सर्वथा निर्विकल्प है। बोध तो निर्विकल्प है ही। बोध और सुख की निर्विकल्पता में ध्याता, ध्यान और ध्येय की त्रिपुटी, ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की त्रिपदी एकमात्र अभेद-आत्मस्वरूप में परिणत हो जाती है, जहाँ द्वैतभाव सर्वथा विलय पा लेता है। यह साधक की परम आनन्दावस्था है, परं ब्रह्मनिष्ठ योगी वहाँ आनन्दघन बन जाता है। परम आत्मसुख या अनुपम ब्रह्मानन्द का वह आस्वाद लेता है। साध्य सध जाता है, करणीय कत हो जाता है, प्राप्य प्राप्त हो जाता है। ... __ साधक की यह सद्ध्यान रूप दशा है, जिसमें अव्यवहित तथा निरन्तर आत्मसमाधि विद्यमान रहती है। आत्मस्वरूप में निष्प्रयास परिरमण की यह उच्चतम दशा 0 श्री महेन्द्र कुमार जी रांकावत संस्कृत, सांख्य, योग, न्याय, वेदान्त एवं जैन जैनेत्तर दर्शनों के अभिरुचिशील अध्येता एवं युवा लेखक है। शोधार्थी भी। प्रो. डॉ. छगनलाल जी शास्त्री के निकटतम अन्तेवासी है। विज्ञान में स्नातक होने के पश्चात् संस्कृत में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। सम्प्रति : शोधकार्य में संलग्न ! युवाओं के लिए अनुकरणीय रांकावत से साहित्य जगत् को बहुत ही अपेक्षाएं हैं। -सम्पादक जीवन व्यवहार में कठोर वचन, क्रोध के वचन, अहंकार के वचन तथा अहंकार की वाणी काम नहीं देती। इससे मुसीबतें खड़ी हो जाती हैं, आदमी विपद्ग्रस्त हो जाता है। इसके विपरीत नम्रता धारण करने से व्यक्ति संकटों से उबर जाता है। जाति-समाज और राष्ट्र में समय-समय पर असर प्रबुद्ध नारी-जीवन का ही रहा है, जिसने स्वयं के साथ व्यक्ति व समाज को नई दिशा दी है। मात्र धर्मक्षेत्र में ही नहीं अपितु कर्म क्षेत्र में भी वे अग्रणी रही हैं। आपने कभी ध्यान दिया हो सत्ताधीश लोग जब गद्दी पर बैठे होते हैं तब और, जब गद्दी से उतर जाते हैं तब दशा और हो जाती है। जिस सताधीश में परार्थ वृत्ति रहती है वह सदा ही यश का पात्र होता है, आत्म सन्तुष्ट होता है। जो स्वार्थी होता है और किसी के प्रति उदारता, सहयोग नहीं करता जनता में अपयश का भागीदार बन कर पतित हो जाता है। - सुमन वचनामृत | जैन साधना एवं योग के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र सूरि की अनुपम देन : आठ योग दृष्टियाँ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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