Book Title: Jain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Author(s): Priyadarshanshreeji
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान ___ आई. टी. आई. रोड, वाराणसी-५ साध्वी श्री प्रियदर्शनाजी का विशालकाय शोधप्रबन्ध "जैन साधना पद्धति में ध्यान योग" रुचिपूर्वक पढा। प्रस्तुत महाकाय ग्रन्थ अपने में लगभग एक हजार पृष्ठों की सामग्री संजोये हुए हैं। इस विशालकाय शोधप्रबन्ध को तैयार करने में लेखिका ने जो श्रम किया है, वह निश्चित ही सराहनीय है। मेरी दृष्टि में तो इसे जैन साधना में ध्यान योग की अपेक्षा समग्र जैन साधना पद्धति पर लिखा गया शोधप्रबन्ध ही मानना चाहिए। शोधविषय की दृष्टि से तो इसके केवल चतुर्थ, पञ्चम और षष्ठ अध्याय ही पर्याप्त थे। फिर भी लेखिका ने जो श्रम किया, वह सराहनीय है। यद्यपि शोध-विषय से असम्बन्धित अनेक विवरणों का अनावश्यक विस्तार खटकता है। उदाहरण के रूप में जैन साहित्य का विवरण देते हुए संक्षेप में जैन साहित्य का इतिहास ही लिख दिया गया है। अच्छा होता कि इसमें केवल उन्हीं ग्रंथों को समाहित किया जाता जो ध्यान पद्धति से संबंधित हैं और केवल इतना ही दिखाना पर्याप्त होता कि उनमें ध्यान - संबंधी क्या क्या उल्लेख हैं। जहां तक विषय के प्रस्तुतीकरण का प्रश्न है निश्चय ही वह सन्तोषजनक है और लेखिका ने विषय को उसकी गहराई तक छूने का प्रयत्न किया है। यदि ध्यान की इस चर्चा में प्राचीन और अर्वाचीन अन्य ध्यान पद्धतियों की तुलना को अधिक महत्त्व दिया जाता तो शायद शोधप्रबन्ध की गरिमा और अधिक बढ़ जाती, किन्तु लेखिका के श्रम, अध्ययन सुविधाएँ आदि की मर्यादाओं को ध्यान में रखकर निश्चय ही यह कहना पड़ेगा कि निश्चय ही यह शोध प्रबन्ध अपने विषय का सन्तोषजनक और गम्भीर प्रस्तुतीकरण है। अन्त में पारिभाषिक शब्दावली आदि परिशिष्टों ने शोधप्रबन्ध की उपयोगिता में वृद्धि ही की है। सामान्यतया ग्रन्थ के भाषायी स्वरूप को सन्तोषजनक कहा जा सकता है किन्तु मेरी दृष्टि में प्रकाशन के पूर्व इसका भाषायी परिष्कार आवश्यक है। स्वयं लेखिका ने भी अपनी इस कमी को स्वीकार किया है। शोधप्रबन्ध के टड्कण में प्राकृत और संस्कृत सन्दर्भो में तो अनेक अशुद्धियाँ हैं, प्रकाशन के पूर्व उनका परिमार्जन भी आवश्यक है। कहीं-कहीं सन्दर्भ छूट भी गये हैं। उदाहरण के रूप में पृष्ठ ३७७ पर सन्दर्भ क्रमांक १८१ छूटा हुआ है। फिर भी अपने प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षात्मक विवरण तथा यथासम्भव अन्य परम्पराओं से तुलना आदि के आधार पर निश्चय ही यह शोधप्रबन्ध पीएच. डी. की उपाधि हेतु स्वीकृत करने योग्य है। अतः मैं विश्व विद्यालय से यह अनुशंसा करूंगा कि इस शोधप्रबन्ध पर लेखिका को अवश्य ही 'विद्या-वाचस्पति' (पी-एच. डी.) की उपाधि प्रदान की जाये। १२-५-८६ (प्रो. सागरमल जैन) चौदह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 650