Book Title: Jain Sadhna Paddhati Arthat Shravak ki 11 Pratimaye
Author(s): Vidyullataben Shah
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 6
________________ 11. उद्दिष्ट आहार-त्याग प्रतिमा-अब न मकान व दुकान से वास्ता रहा न घर-गृहस्थी से / अब न रही खाने की चिता; न रही रहने की चिता / अब घर में रुकने की रुकावट खत्म हो चुकी है। जिसे घर से विरक्ति, गृह-क्रियाओं से विरक्ति हुई है फिर अब उनमें उसे क्यों रुकना ? अब घर में नहीं रहा जाता / अपना-पराया भेद खत्म हो चुका है। अब उस घर की भी जरूरत नहीं है। अब संकुचित भावनाएं गिर चुकी हैं। विशाल, व्यापक, उदात्त, विराट् दृष्टि हुई है। अब वह आत्मस्वरूप में बसता है, देह में नहीं। देह तो कहीं भी और कैसे भी रहे। ममत्व का कारण नहीं रहा तो घर का कारण भी नहीं रहा / विनय, भक्ति, श्रद्धा से आहार का योग मिले तो ठीक / नहीं तो निर्ममत्व बढ़ाने का मिला हुआ एक अपूर्व अवसर / यहां इतनी विशेषता है कि गृहस्थ अपने लिए खाना बनाता है उसमें जो संरंभ, समारंभ, आरंभ क्रिया रूप हिंसा होती है वह टल नहीं सकती थी, वह खुद के लिए वह कार्य किये बिना नहीं रह सकता था। अनादि काल से इस आत्मा को विभाव-परिणमन से,विपरीत मान्यता से,क्षुधा-तृषा की बुरी आदत लगी है। आदत कभी भी जल्दी नहीं छटती। उसे तो मिटाना ही है। लेकिन चित्त की स्थिरता के साथ मिटाना मूलतः मिटाना है। एक साथ संपूर्ण आहार छोड़ने से शरीर तो उसे एडजेस्ट नहीं हुआ है। परिणामों में पीड़ा का अनुभव जरूर होने लगता है, तब परिणाम बिगड़ने से धर्म न रहकर अधर्म के होने का डर उपस्थित होता है / अच्छे परिणामों से पुण्यबंध और आर्त-रौद्र परिणामों से पाप-बंध होगा। इसलिए जैन शासन में परिणामों की शुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। जब आदर से, सम्मान से भोजन मिले तो लेना, लेकिन अपने लिए बनाये गये भोजन को नहीं लेना / यह उद्दिष्ट आहार प्रतिमा का उद्देश्य है। अपने लिए दूसरे ने भी भोजन क्यों न बनाया हो, वहां भी हिमा वह होती है जिसे टालने का वह इच्छुक था। इसलिए तो उसने आठवीं आरंभ-त्याग प्रतिमा में खुद के लिए अपने हाथों से भोजन बनाना तक छोड़ दिया था। उसमें मुख्यत: जीव-रक्षा का प्रधान हेतु था वह हेत, अपने लिए पराया भी भोजन क्यों न बनाये, उसमें नहीं पल सकता। हेतु की पूर्ति नहीं होती, इसलिए मन-वचन-काय और कृत-कारित अनुमोदन----इन सबका नव कोटी की विशुद्धि से आहार लेने की अत्यंत संगत विधि बताई गई है। ग्यारह प्रतिमाधारी नियम से गृह में नहीं रह सकता / अब इसे 'क्षुल्लक' कहते हैं। क्षुल्लक एक लंगोट और एक खंड वस्त्र ही धारण करता है। शास्त्र, पीछी, कमंडलु ; और दो अत्यन्त अल्प वस्त्र-इतना परिग्रह रह जाता है। स्वावलंबी आत्मा के फूटती किरणों के साथ, एकेक वस्त्र और भी गिरता है। जब ओढ़ा हुआ खंड वस्त्र गिरता है उसे 'ऐलक' कहते हैं। जब वह लंगोटी गिर जाती है तब उसे निर्ग्रन्थ 'दिगम्बर कहा जाता है। स्वावलंबन, आत्मनिर्भर, स्वयंपूर्ण जीवन का पूर्ण रूप से साकार हुआ यह दर्शन है। यह अंदर के चैतन्य की चरम सीमा की विशुद्धि का अत्यंत प्रकट दर्शन है / यह उस सीमा का सदाचार है, जगत के सब सदाचार जिसकी तुलना में निस्तेज, निष्प्रभ, निर्माल्य मूल्य हो जाते हैं, गिनती में भी नहीं आते / कोटि-कोटि जिह्वा के उपदेश से उस सदाचार की मूर्ति का दर्शनमात्र ही कराया जा सकता है। वहां शरीर का रोम-रोम मानवता का संगीत मूर्त रूप से गा रहा है। इस एक संदेश में जो ताकत है वह कोरी बकवास में कहां? इसलिए नाम-निक्षेप रूप प्रतिमा ही क्यों, मुनिव्रत भी आत्म-विकास में साधन नहीं है। इसलिए व्रत जहां हो वहां आत्म-विकास अवश्य हो-यह नहीं बनता। लेकिन जहां सर्वोच्च पूर्णतारूप परम वीतरागता की शुद्धि की तीव्रतम उत्सुकता होती है, वहां प्रतिमा, मुनिचर्या मिलती है। वहां तो पूर्ण वीतराग होना ही अभिप्रेत है। लेकिन वीतरागता में स्थिर नहीं रहा जा सकता,यह देखकर यह पर्यायी मार्ग स्वीकारा है जो अपनी चर्यात्मक मन-वचन-काय की चेष्टा को अपने ध्येय में पूरक बनाया जाना है। पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक दर्शनादि आरंभिक प्रतिमा से उत्तरोत्तर प्रतिमा को आत्मलीनता में स्थिरता के हेतु अंगीकार करता है। नीचे की दशा को आगे की व्रत प्रतिमाओं में छोड़ता नहीं। १से 6 प्रतिमा तक जघन्यवती श्रावक 7 से 1 तक मध्यम प्रती श्रावक, देशव्रती अगारी 10 से 11 तक उत्कृष्ट व्रती श्रावक गृहस्थ के सदाचार की ये सीढ़ियां मुनिव्रत अंगीकार करने का लक्ष्य रखने वाला ही पार कर सकता है। जैन धर्म एवं आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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