Book Title: Jain Sadhna Paddhati Arthat Shravak ki 11 Pratimaye Author(s): Vidyullataben Shah Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 4
________________ ताकत है । इस तरह अपनी पूरी ताकत से अस्तेय, ब्रह्मचर्य और परिग्रह-परिमाण व्रत पालता है । प्रतिज्ञा तो अणुव्रत की है, लेकिन लगन तो महाव्रत की रहती है। भले ही स्वस्त्री से पूरा नाता, संबंध तोड़ नहीं पाया, तो भी श्रद्धान की अपेक्षा से पूरा नाता टूट गया है। स्वस्त्री से संबंध होता भी है, लेकिन अब उसे रखना नहीं, उसे भी छोड़ना ही है-यह भाव रहता है। परिग्रह-परिमाण की भी यही बात ! आवश्यकता से अधिक परिग्रह अब रखा ही नहीं जा रहा है। ३. सामायिक प्रतिमा-आत्मदर्शी की बढ़ती हुई विशुद्धि अब उसे प्रतिज्ञारूप सामायिक में बद्ध कर देती है। दूसरी प्रतिमा में भी सामायिक करता था, लेकिन यहां उसका निरतिचार पालन स्वीकार है । त्रिकाल सामायिक की जाहिर प्रतिज्ञा अब समाज की रूढ़ियों से बचाती है । अब त्रिकाल सामायिक के लिए, स्वकल्याण हेतु समय देने के लिए, कुटुम्बियों से, समाज से मुक्ति मिलती है । एटिकेट्स, मैनर्स, कोई आया-गया, उनका विचार करने के झंझट से मुक्ति हो जाती है। साधक तो समझता ही है, सामायिक ही आत्मस्थिरता के लिए सरलतम मार्ग है। जीवन में कुछ करने जैसा है तो वह सामायिक है ! आत्म-शान्ति का उपाय है वह सामायिक ही ! जीवन की जान, प्राण, शान है वह सामायिक ही ! लेकिन अपनी ही असमर्थता के कारण २४ घंटे सामायिक में नहीं ठहरा जाता। तब पछतावा करते हुए खाना-पीना गृहस्थी का कर्तव्य भी करता है। ४. प्रोषधोपवास-अनादि से चला आया शरीर का मोह एक समय में हरएक का नहीं छूटता, वैसा भाग्यशाली एकाध ही होता है। अब निर्ममत्व को मूर्त स्वरूप देने के लिए प्रोषधोपवास और अंतराय टालकर भोजन करने का अभ्यास करता है। यह जीवन-भर का अभ्यास अंतिम सल्लेखना में भी साथ देता है। केवल शरीर को कृश करना, यह उद्देश्य नहीं, यहां प्रथम से ही चित्त की शांति को प्राधान्य देता है। आहार न मिलने पर भी परिणाम शांत रह सके--इसका यह अभ्यास है । आत्म-अनुभव में न खाने का अनुभव था, न उस खाने की इच्छा है। केवल अपने द्रव्य मात्र का अनुभव होता है। वहां जितना और जिसका अनुभव होता है बस वही अपनी चीज है -ऐसा अनुभव हुआ है। अनादि काल से ही विपरीत मान्यता से, मोह से ही, इन क्षुधा-तृषा की, इच्छा की, उत्पत्ति हुई है । अब उस बुरी आदत को प्रयत्न से हटाता है। और वे प्रयत्न ही प्रोषधोपवास रूप से जीवन में आते हैं। सप्तमी और नवमी का एकाशन । अष्टमी का उपवास, अनशन । उसी तरह तेरस और पूर्णिमा या अमावस्या का एकाशन । और चतुर्दशी का उपवास---इसे प्रोषधोपवास कहते है। अपनी ध्येय प्राप्ति की धुन पर सवार हुआ आदसी अपना मार्ग सहज ही साफ करते जाता है। ५. सचित्त त्याग—अभी खाने की जरूरत लगती है, यह न शर्म की बात है न गौरव की । अपना स्वभाव स्वयं पूर्ण होने पर भी अभी तक जीवन में आनन्द आने के लिए आहार की सहायता लेनी पड़ती है । यह पारतंत्र्य कब मिटे--उसी दिन की राह है। अभी खाया जाता है, लेकिन अब भूख मिटाने के लिए खाया जाता है, अब असमर्थता जानकर खाया जाता है। अब खाने के लिए जीवन नहीं, जीवन के लिए खाना ‘सूत्र' बन जाता है । उस खाने में अब कुछ रस नहीं, स्वाद नहीं ! है एक परतंत्रता की याद ! सूचना स्मरण ! इसलिए जिसमें अत्यन्त अल्प हिंसा हो, वैसा भोजन करने लगता है । वनस्पति में 'प्रत्येक शरीर' वनस्पति और 'साधारण शरीर' वनस्पति के प्रकार हैं। पत्ता, सब्जी पर असंख्य सूक्ष्म निगोदिया जीव वास करते हैं। कितने तो नेत्र से भी दिखते हैं। केवल मेरी वजह से इन बेचारे सूक्ष्म जीवों की हत्या न हो, इस विशुद्ध भावना से जीवन भर के लिए सभी पत्ता-सब्जियों का प्रतिज्ञा रूप त्याग करता है। यही सचित्त त्याग पांचवीं प्रतिमा है। इसके पहले ही दो प्रतिभाओं में आठ मूलगुण रूप और कंदमूल के अभक्षण रूप प्रतिज्ञा ले चुका है। और भी अचार, मुरब्बा, पापड़ जैसी चीजें सिर्फ उसी दिन की खाता था। यहां सात शीलों में जो अनर्थदंड व्रत है, वह प्रतिमा रूप हो गया है । यह सब सम्यग्दर्शन की अपूर्व ताकत का चमत्कार-करामात है । यह उन्नत मनोदशा का प्रात्यक्षिक रूप है। आगे-आगे की प्रतिमा बढ़ाने वाला प्रथम की सभी प्रतिमाओं को निरतिचार रूप से पालता हुआ उत्तर की प्रतिमा में प्रतिज्ञापूर्वक बद्ध होता है। और जो शीलवत रह चुके हैं, वे भी अभ्यास रूप से पाले जाते हैं। यहां दूसरी प्रतिमा में से ही भद्र प्रकृति का द्योतक रूप ठहरा हुआ 'अतिथि संविभाग' व्रत शुरू होता है । यह कोई प्रतिमा नहीं है। क्योंकि इसमें सत्पात्र व्यक्तियों के बारे में जो चार प्रकार के दान वैयावृत्त्य, विनय का व्यापार होता है, उसका समावेश होता है। यह मात्र सदाचार है। सम्यग्दर्शन जैसी अनोखी विशुद्धि वाले का तो वह सहज स्वभाव ही है। जो कीड़े-मकोड़े के बारे में सहृदय होता है, वह सम्मान-पात्र आदरणीय व्यक्ति को चार प्रकार का दान दें तो इसमें कुछ अचरज की बात नहीं। ६. रात्रि-भोजन-त्याग प्रतिमा-अब वह आत्मदर्शी संसार से इतना विरक्त हो गया है कि पहले उसे संसार की एटीकेटस्, मैनर्सका खयाल आता था, घर में अगर रात को मेहमान आयें तो उसे कैसे खाली पेट रखा जाय? उसे कम-से-कम, 'खाना खाओ' ऐसा व्यवहार तो करना पड़ेगा---यह आशंका सताया करती थी। लेकिन अब परिणाम इतने विरक्त हो गये हैं,कि इन फालतू एटीकेटस की, मैनर्स इसाला जैन धर्म एवं माचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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