Book Title: Jain Rasa kavya Ek Adhyayan
Author(s): Vijay Kulshreshth
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 1
________________ जैन रास काव्य : एक अध्ययन -डा० विजय कुलश्रेष्ठ हिन्दी साहित्य का आदिकाल पं० रामचन्द्र शुक्ल के साहित्येतिहास' के कालविभाजन से ही विचार विमर्श का कारण नहीं रहा है अपित इसलिए भी रहा है कि आदिकाल की सम्पूर्ण सामग्री का पूर्णत: विवेचन नहीं हो पाया है। पं० रामचन्द्र शक्ल द्वारा प्रणीत साहित्येतिहास के काल-विभाजन के अनुसार हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल को वीरगाथाकाल का नाम दिया गया था और परवर्ती विद्वान् शुक्लजी द्वारा प्रस्तुत इस नामक रण को उपयुक्त नहीं मानते थे । शुक्लजी ने इस आदिकाल अथवा उन्हीं के शब्दों में वीरगाथा काल का समय सम्वत् १०५० से सम्वत् १३७५ (सन् ६६३ ई०-१३१८ ई०) माना है। शक्लजी का इतिहास कई कारणों से महत्त्वपूर्ण है और आज भी आदिकाल विषयक विवाद के इतर भी उसका अपना स्थान विशिष्ट है। शुक्लजी ने इस इतिहास लेखन में यह स्पष्ट घोषणा की थी कि सिद्धों' और योगियों की रचनाएँ साहित्य कोटि में नहीं आतीं और योगधारा काव्य या इतिहास की कोई धारा नहीं मानी जा सकती। इसी प्रकार उन्होंने जैन यतियोंमुनियों की रचनाओं को धार्मिक कह दिया तथा स्वीकार किया कि-"इस काल की जो साहित्यिक सामग्री प्राप्त है, उसमें काम तो असंदिग्ध हैं और कुछ संदिग्ध । असंदिग्ध सामग्री जो कुछ प्राप्त है, उसकी भाषा अपभ्रंश अर्थात् प्राकृताभास (प्राकृत की रूढ़ियों से बहत कुछ बद्ध) हिन्दी है।" इस कालावधि में ऐसी अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं जो तत्कालीन अपभ्रंश में लिखी गई हैं तथा जिन्हें आचार्य शक्ल ने धार्मिक और साम्प्रदायिक रचनाएँ कहकर साहित्य के अंग के रूप में उन्हें अस्वीकार कर दिया है। आचार्य शुक्ल की मौलिक दृष्टि और माहित्येतिहास के क्षेत्र में उनके विद्वत्तापूर्ण योगदान को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। यह उनकी अपनी विवशता और सीमा थी कि वे अपभ्रंश आदि में उपलब्ध जैन रचनाओं को धार्मिक और साम्प्रदायिक कहकर अस्वीकार करते हैं । परन्तु कालान्तर में जैन काव्य की विशुद्ध साहित्यिक परम्परा का भी परिचय मिलता है। हिन्दी साहित्य के इस आदि काल और उसके पूर्व एवं परवर्ती काल में जैन रचनाओं की एक सुदीर्घ परम्परा उपलब्ध होती है। काव्यशास्त्रीय दृष्टि से विविध काव्य रूपों के आधार पर हिन्दी के काव्य रूपों का अध्ययन भी आज हो चका है। उसी दिशा में हिन्दी के तथा उसके पूर्ववर्ती काल में काव्य रूप में रास या रासो काव्य रूप का प्रचलन उपलब्ध होता है । आदिकाल में प्रमुख काव्य रूप के स्तर पर 'रासो' काव्य रूप की बहुलता रही है। हिन्दी में 'रास' या 'रासो' काव्य-परम्परा का एक विशिष्ट रूप है और 'शस' या रासो' की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'रासक' से मानी जाती है, पर यह निर्विवाद है कि रासो काव्यधारा के विषय में आज भी विद्वानों का ध्यान अधिक नहीं गया। डॉ. हरीश ने 'आदिकाल के अज्ञात रासकाव्य' नामक कृति में कतिपय रास रचनाओं का उल्लेख किया है। रास और रासायन्वी काव्य में भी कतिपय रासो रचनाओं पर विचार किया गया है। डॉ. सुमन राजे के शोधप्रबन्ध में पहली बार दो सौ से ऊपर रासो रचनाओं का उल्लेख मिलता है । इसके इतर इन पंक्तियों के लेखक ने अपने अध्ययन की अवधि में ही पौने सात सौ रास ग्रंथों की सूचना एकत्रित की और अपने शोधप्रबन्ध की पृष्ठभूमि में उक्त पौने सात सौ रासो रचनाओं को काल क्रमानुसार क्रम देकर प्रस्तुत किया, यद्यपि यह शोध का मूल नहीं था फिर भी शोधार्थियों के सम्मुख रास काव्यों की एक सुदीर्घ परम्परा का उल्लेख समीचीन समझा गया था। १. सन १९२६ में नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित 'हिन्दी शब्द सागर' को भूमिका रूप में लिखा गया था और उसी वर्ष उसी भूमिका का प्रादि और पन्त परिवर्धित करके उसे हिन्दी साहित्य के इतिहास के रूप में प्रकाशित किया गया। २. विस्तृत अध्ययन के लिये दखिए लेखक के अप्रकाशित शोध प्रबन्ध 'पृथ्वीराज रासो का लोकतात्त्विक अध्ययन' १९७३ (राजस्थान विश्वविद्यालय) का मध्याय "हिन्दी रासो काव्य परम्परा भौर पृथ्वीराज रासो' पृष्ठ १-७३ तक। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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