Book Title: Jain Parampara me Kashi
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf

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Page 7
________________ १२३ सम्बन्ध में भी हमें पुरातात्विक एवं साहित्यिक, दोनों ही प्रकार के साक्ष्य मिलते हैं। प्रथम तो यहाँ के वर्तमान मन्दिरों की अनेक प्रतिमायें इसी काल की हैं। दूसरे इस काल के अनेक हस्तलिखित ग्रन्थ भी वाराणसी के जैन-भण्डारों में उपलब्ध हैं। तीसरे इस काल की वाराणसी के सम्बन्ध में कुछ संकेत हमें कविवर बनारसीदास के अर्धकथानक से मिल जाता है। बनारसीदास, जो मूलतः आगरा के रहने वाले थे, अपने व्यवसाय के लिए काफी समय बनारस में रहे और उन्होंने अपनी आत्मकथा 'अर्धकथानक' में उसका उल्लेख भी किया है। उनके उल्लेख के अनुसार १५९८ ई० में जौनपुर के सूबेदार नवाब किलच खां ने वहाँ के सभी जौहरियों को पकड़कर बन्द कर दिया था। उन्होंनें अर्धकथानक में विस्तार से सोलहवीं शताब्दी के बनारस का वर्णन किया है।' यह ग्रन्थ अद्यावधि प्रकाशित है। 10 सत्रहवीं शताब्दी में उपाध्याय यशोविजय नामक श्वेताम्बर जैन मुनि गुजरात से चलकर बनारस अपने अध्ययन के लिए आये थे। वाराणसी सदैव से विद्या का केन्द्र रही और जैन विद्वान् अन्य धर्म-दर्शनों के अध्ययन के लिए समय-समय पर यहाँ आते रहे । यद्यपि यह भी विचारणीय है कि इस सम्बन्ध में उन्हें अनेक बार कठिनाईयों का भी सामना करना पड़ा। सोलहवीं, सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दियों की जैन मूर्तियाँ तथा हस्तलिखित ग्रन्थ वाराणसी में उपलब्ध हैं, यद्यपि विस्तृत विवरण का अभाव ही है। उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में वाराणसी में जैनों की संख्या पर्याप्त थी । विशप हेबर ने उस समय जैनों के पारस्परिक झगड़ों का उल्लेख किया है। सामान्यतया जैन मन्दिरों में अन्यों का प्रवेश वर्जित था। विशप हेबर को प्रिंसेप और मेकलियड के साथ जैन मन्दिर में प्रवेश की अनुमति मिली थी। उसने अपने जैन मन्दिर जाने एवं वहाँ जैन गुरु से हुई उसकी भेंट का तथा स्वागत का विस्तार से उल्लेख किया है (देखेंकाशी का इतिहास, मोतीचन्द्र, पृ० ४०२- ४०३)। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशक में जैन आचार्यों ने इस विद्या नगरी को जैन विद्या के अध्ययन का केन्द्र बनाने के प्रयत्न किये। चूंकि ब्राह्मण अध्यापक सामान्यतया जैन को अपनी विद्या नहीं देना चाहते थे अतः उनके सामने दो ही विकल्प थे; या तो छद्म वेष में रहकर अन्य धर्म दर्शनों का ज्ञान प्राप्त करें अथवा जैन विद्या के अध्ययन-अध्यापन का कोई स्वतन्त्र केन्द्र स्थापित करें । गणेशवर्णी और विजयधर्मसूरि ने यहाँ स्वतन्त्ररूप से जैन विद्या के अध्ययन के लिए पाठशालाएँ खोलने का निर्णय लिया। उसी के परिणामस्वरूप अंग्रेजी कोठी में यशोविजय पाठशाला और भदैनी में स्याद्वाद महाविद्यालय की नींव रखी गयी। श्वेताम्बर परम्परा के दिग्गज जैन विद्वान् पं० सुखलालजी संघवी और पं० बेचरदास जी आदि जहाँ यशोविजय पाठशाला की उपज हैं वहीं दिगम्बर परम्परा के मूर्धन्य विद्वान् पं० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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