Book Title: Jain Parampara me Kashi
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf

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Page 6
________________ १२२ पुनः नवीं, दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दियों के भी जैन पुरातात्विक अवशेष हमें वाराणसी में मिलते हैं। नवी शताब्दी की विमलनाथ की एक मूर्ति सारनाथ संग्रहालय में उपलब्ध हैं (क्रमांक २३६ ) । पुनः राजघाट से ऋषभनाथ की एक दसवीं शताब्दी की मूर्ति तथा ग्यारहवीं शताब्दी को तीर्थंकर मूर्ति का शिरोभाग उपलब्ध हुआ है। ये मूर्तियाँ भी भारत कला भवन में उपलब्ध हैं। (क्रमांक १७६ तथा १९७) । उपरोक्त अधिकांश मूर्तियों के कालक्रम का निर्धारण डॉ० मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी ने अपने लेख "काशी में जैनधर्म और कला" में किया है । ४५ हमने उन्हीं के आधार पर यह कालक्रम प्रस्तुत किया है। पुन: हमें बारहवीं, तेरहवीं और चौदहवी शताब्दी की वाराणसी के सम्बन्ध में प्रबन्धकोश और विविधतीर्थकल्प से सूचना मिलती है । प्रबन्धकोश में वाराणसी के राजा गोविन्दचन्द्र और उनके पुत्र विजयचन्द्र४६ तथा तेजपाल - वस्तुपाल द्वारा वाराणसी तक के विविध जिन मन्दिरों के जीर्णोद्धार के उल्लेख हैं । ४७ विविधतीर्थकल्प में वाराणसी के सन्दर्भ में जो कहा गया है, उसमें अधिकांश तो आगमकालीन कथाएँ ही हैं किन्तु विविधतीर्थकल्प के कर्ता ने इसमें हरिश्चन्द्र की कथा को भी जोड़ दिया है। इस ग्रन्थ से चौदहवीं शताब्दी की वाराणसी के सम्बन्ध में दो-तीन सूचनाएँ मिलती हैं। " प्रथम तो यह कि यह एक विद्या नगरी के रूप में विख्यात थी और दूसरे परिबुद्धजनों (संन्यासियों) एवं ब्राह्मणों से परिपूर्ण थी। वाराणसी के सन्दर्भ में विविधतीर्थकल्पकार ने जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण सूचना दी है वह यह कि वाराणसी उस समय चार भागों में विभाजित थी। देव वाराणसी, जहाँ विश्वनाथ का मन्दिर था और वहीं जिनचतुर्विंशति पट्ट की पूजा भी होती थी। दूसरी राजधानी वाराणसी थी जिसमें यवन रहते थे। तीसरी मदन वाराणसी और चौथी विजय वाराणसी थी। इसके साथ ही इन्होंने वाराणसी में पार्श्वनाथ के चैत्य, सारनाथ के धर्मेक्षा नामक स्तूप और चन्द्रावती में चन्द्रप्रभ के जिनालय का भी उल्लेख किया है। उस समय वाराणसी में बन्दर इधर-उधर कूदा करते थे, पशु भी घूमा करते थे और धूर्त भी निःसंकोच टहलते थे आज भी यही स्थिति दिखाई देती है । ४९ जिनप्रभ के इस वर्णन से ऐसा लगता है कि उन्होंने वाराणसी का आँखों देखा वर्णन किया है। देव वाराणसी को विश्वनाथ मन्दिर के आस-पास के क्षेत्र से जोड़ा जा सकता है। राजधानी वाराणसी का सम्बन्ध श्री मोतीचन्द्र ने आदमपुर और जैतपुरा के क्षेत्रों से बताया है। श्री मोतीचन्द्र ने मदन वाराणसी को गाजीपुर की जमनिया तहसील में स्थित तथा विजय वाराणसी को मिर्जापुर के विजयगढ़ से सम्बन्धित माना है किन्तु मेरी दृष्टि से मदन वाराणसी और विजय वाराणसी बनारस के ही अंग होने चाहिए। कहीं मदन वाराणसी आज का मदनपुरा तो नहीं था ? इसी प्रकार विजय वाराणसी वर्तमान भेलूपुर के आस-पास तो स्थित नहीं थी । विद्वानों से अपेक्षा है कि वे इस सम्बन्ध में अधिक गवेषणा कर सूचना देंगे। पन्द्रहवीं - सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों में वाराणसी में जैनों की स्थिति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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