Book Title: Jain Parampara ka Sanskrutik Mulyankan
Author(s): Moreshwar Paradkar
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ महत्त्वपूर्ण कथाओं का संग्रह है। जैन कथा साहित्य में गुजरात के महान् पण्डित कवि एवं साधु हेमचन्द्र (जन्म ई० सं० 1086) द्वारा प्रणीत 'त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित' का स्थान उच्च कोटि का है। तत्त्वदर्शन तथा तर्कशास्त्र में जैन धर्म ने जो कार्य किया उसका मूल्य शाश्वत माना जाएगा। 'षड्दर्शनसमुच्चय' जैसे अनेक असाधारण ग्रन्थों के प्रणेता हरिभद्रसूरि से लेकर वर्तमान समय के तेरापंथी आचार्य तुलसी तथा उनके सुशिष्य आचार्य नथमल जैन तक पण्डितों की परम्परा अविछिन्न रूप में चली आ रही है / क्या तर्कशास्त्र, क्या व्याकरण, क्या कोश, क्या काव्य सभी क्षेत्रों को समृद्ध करने का श्रेय इन पण्डितों को प्राप्त है। जैनों की दार्शनिक विचार-पद्धति में 'अनेकान्तवाद' वह मौलिक सिद्धान्त है जिसमें पश्चिमीय दार्शनिक हेगेल और कार्ल मार्क्स द्वारा पुरस्कृत एवं प्रतिपादित विरोध-विकास पद्धति के बीज पाए जाते हैं। स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्यः, स्यादस्ति च नास्ति च, स्यादस्ति अवक्तव्यश्च, स्यान्नास्ति अवक्तव्यश्च-सप्तभङ्गीनय के इन सातों प्रकारों द्वारा किया गया वर्णन ही वस्तु के संपूर्ण ज्ञान का परिचायक है / यह सिद्धान्त वास्तव में दर्शन के क्षेत्र में 'परमतसहिष्णुता' का आदर्श उपस्थित करता है और उपनिषदों के 'नेति नेति' की तरह मानव की अपूर्णता की ओर संकेत करके जैन दर्शन की अनूठी दृष्टि का प्रमाण प्रस्तुत करता है। कोई अचरज नहीं कि सभी दर्शनों के प्रकाण्ड पण्डित हरिभद्रसूरि 'लोकतत्त्वनिर्णय' में कहते हैं पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु / युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः / जिस जैन धर्म में दीक्षित महापण्डित एवं कवि हेमचन्द्र सोमनाथ के मन्दिर में प्रणाम करते हुए कह उठते हैं “मैं उसकी वन्दना करता हूं जिसके मन के राग, द्वेष आदि संसार के बीज के अंकुर की वृद्धि में सहायक विकारों का क्षय या विध्वंस हुआ है; चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, हर हो अथवा जिन हो"1 उस धर्म की एवं साहित्य की उदार देन के विषय में कोई सन्देह नहीं हो सकता। श्री हॉपकिन्स का आचार्य श्री विजय सूरि को लिखा पत्र "मैंने अब महसूस किया है कि जैनों का आचार धर्म स्तुति योग्य है / मुझे अब खेद होता है कि पहले मैंने इस धर्म के दोष दिखाये थे और कहा था कि ईश्वर को नकारना, आदमी की पूज करना तथा कीड़ों को पालना ही इस धर्म की प्रमुख बातें हैं / तव मैंने नहीं सोचा था कि लोगों के चरित्र एवं सदाचार पर इस धर्म का कितना बड़ा प्रभाव है / अक्सर यह होता है कि किसी धर्म की पुस्तकें पढ़ने से हमें उसके बारे में वस्तुनिष्ठ ही जानकारी मिलती है, परन्तु नजदीक से अध्ययन करने पर उसके उपयोगी पक्ष की भी हमें जानकारी मिलती है और उसके बारे में अधिक अच्छी राय बनती है।" एस० गोपालन, जैनधर्म की रूपरेखा (अनुवादक-गुणाकर मुले), दिल्ली 1673, पृ० 11 से सभार 2. देखें-भवबीजाङकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य / ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो वा जिनो वा नमस्तस्मै // आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4