Book Title: Jain Parampara ka Sanskrutik Mulyankan Author(s): Moreshwar Paradkar Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 3
________________ होने वाले ज्ञान को अवधि ज्ञान कहा जाता है, इसकी अपनी विशिष्ट सीमा होती है। ईर्ष्यादि अन्तरायों के दूर होने के बाद व्यक्ति दूसरों के मन के व्यापार को भांपने लगता है; इसी ज्ञान का नाम है मन:पर्यय । इसके बाद विशिष्ट तपस्या के बल पर व्यक्ति सर्व वस्तुओं के - ज्ञान से संपन्न होता है जो सम्पूर्ण एवं निराबाध होता है। इसी को 'केवल ज्ञान' कहते हैं जिसके अधिकारी हैं सिर्फ अर्हत्, सिद्ध एवं तीर्थङ्कर । ज्ञान एवं चारित्र की उपासना के बल पर जैन धर्म के अनुयायियों ने साहित्य के क्षेत्र में भी अविस्मरणीय कार्य किया है। दिगम्बर पंथ के विद्वान् आचार्यों ने परवर्ती काल में लुप्त आगमों के स्थान पर नवीन धर्म-ग्रन्थों का प्रणयन करके उन्हें चारों वेदों का प्रामाण्य प्रदान किया। ये वेद हैं प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग एवं चरणानुयोग । धार्मिक विधि-विधानों को चर्चा करने वाले चरणानुयोग में वट्टकेरकृत 'मूलाचार', 'विचार' अथवा समंतभद्रप्रणीत 'रत्नकरण्डक आवकाचार जैसे ग्रन्थों का अन्तर्भाव होता है। द्रव्यानुयोग अधिकतर दर्शन से सम्बद्ध है; इसमें कुन्दकुन्दाचार्य के विख्यात ग्रन्थों के साथ-साथ उमास्वामि प्रगीत 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' तथा सन्तभद्रविरचित 'आप्तमीमांसा' जैसे ग्रन्थों का समावेश करना समीचीन है । करणानुयोग में 'सूर्यप्रज्ञप्ति', 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' अथवा 'धरा' जैसी रचनाओं का समावेश है जिनमें सृष्टि के रहस्य को सुलझाने का महान् प्रयत्न किया गया है। प्रथमानुयोग में वे पुराण ग्रन्थ समाविष्ट हैं जिनमें काव्य एवं इतिहास का मनोज समन्वय किया गया है । वैदिक संस्कृति में पुराण को इतिहास के साथ जोड़ा गया है; 'इतिहासः पुराणानि च' का उल्लेख कई स्थानों पर पाया जाता है । इतिहास में अगर 'इति ह आस' याने घटित घटनाओं के कथन पर जोर दिया जाता है तो पुराणों में प्राचीन ऋषियों, राजाओं एवं महापुरुषों के चरित्र कथन को महत्त्व प्राप्त होता है । 'पुराणं पञ्चलक्षणम्' भी इसी के प्राधान्य की ओर संकेत करता है । क्या -वंश, क्या मन्वन्तर क्या वंशानुचरित सभी में महापुरुषों की गाथाएं सामने आती है महापुरुषों के जीवन से सम्बद्ध होने के कारण इनमें जनमानस को प्र ेरणा देने की अनूठी शक्ति होती है और इसीलिए जनजीवन पर पुराणों का महत्त्व अंकित है । जैन धर्म के पुराणों में उपर्युक्त पांचों लक्षण तो हैं ही; साथ-साथ इनमें इतिवृत्त की या इतिहास की सुरक्षा अधिक अनुपात में की गई है। उपलब्ध जैन पुराणों की रचना संस्कृत साहित्य के विख्यात भाष्यकारों के काल में आरम्भ हुई; अतएव इनकी भाषा अधिकतर संस्कृत ही है। जैन संस्कृत साहित्य के पुरस्कताओं में तस्वार्थसूत्र के रचयिता आचार्य गुद्धपिच्छ का उल्लेख सर्वप्रथम करना चाहिए। इन सूत्रों पर संस्कृत में भाष्य लिखने वाले पूज्यपाद अकलंक तथा विद्यानन्द जैसे महर्षियों का कार्य सराहनीय है। श्वेतांबराचार्य पादलिप्तसूरि प्रणीत 'निर्वाण कलिका' परवर्ती काल में अवतीर्ण हुई ईसा की तीसरी शताब्दी में आचार्य मानदेव रचित 'शान्तिस्ताव' श्वेतांबर जैनों द्वारा समादृत ग्रन्थ है । परवर्ती काल में श्वेतांबर आचार्य सिद्धसेन दिवाकर तथा दिगम्बर आचार्य समन्तभद्र को आदरपूर्वक बन्दना करना समीचीन होगा। आचार्य सिद्धसेन प्रणीत 'सन्मतितर्क' एवं समन्तभद्र विरचित 'आप्तमीमांसा' जैन दर्शन को सुव्यवस्थित रूप प्रदान करने वाले महान् ग्रन्थ है। ईसा की छठवीं शताब्दी में दिगम्बर आचार्य पूज्यपाद ( अथवा देवनन्दी) की "कृतियों से जैन संस्कृत साहित्य गौरवान्वित हुआ। सातवीं शताब्दी के आचार्य मानवुद्ध ने 'आदिनाथ स्तोत्र' लिखकर संस्कृत स्तोत्रसाहित्य को समलंकृत किया। इसी का प्रचलित नाम है 'भक्तामर स्तोत्र' जिसकी लोकप्रियता उस पर लिखी गई अनगिनत टीकाओं से स्पष्ट है। ईसा की आठवीं शताब्दी पर दिगम्बर आचार्य अकलंक तथा श्वेतांबर आचार्य हरिभद्रसूरि के कर्तुत्व की छाप अमिट रूप से अति है। इनकी कृतियों के कारण जैन संस्कृत साहित्य को वैचारिक विश्व में अनुपम प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। दिगम्बर आचार्य रविषेण का 'पद्मपुराण' इसी समय प्रकाशित हुआ । यह ग्रन्थ जैन पुराणों की उज्ज्वल परम्परा का प्रवर्तक सिद्ध हुआ । दिगम्बराचार्य जिनसेन विरचित महापुराण इसी उज्ज्वल परम्परा का जगमगाता रत्न है । दार्शनिक एवं वैचारिक साहित्य की उपर्युक्त पार्श्वभूमि के कारण ईसा की नववीं शताब्दी में विरचित 'महापुराण' ऋषिप्रणीत होने के कारण आर्ष तो है ही; साथ-साथ 'सूनृतशासनात् सूक्त' एवं 'धर्माअनुशासनात् धर्मशास्त्रम्' का रूप धारण कर चुका है। जैन दर्शन का उत्तम काव्य के साथ अनूठा मेल उपस्थित करने वाला महापुराण दो भागों में उपलब्ध है; पहला पूर्वपुराण (आदिपुराण) तथा दूसरा 'उतरपुराण' । पूर्वपुराण के १०००० श्लोक आचार्य जिनसेन द्वारा रचित हैं। उनके पश्चात् उनके सुशिष्य आचार्य गुणभद्र ने २००० श्लोक लिखकर पूर्वपुराण पूरा किया और ८००० श्लोकों के उत्तर "पुराण ' की रचना की । इस महापुराण में २४ तीर्थङ्कर, १२ चक्रवर्ती, ६ बलभद्र, ६ नारायण तथा प्रतिनारायण याने कुल मिलाकर ६३ महापुरुषों के चरित्र उनके पूर्व जन्मों के साथ-साथ बॉत हैं। ये महापुरुष जैनों के लिए अनुकरणीय आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनकी महिमा क्या दिगम्बर क्या श्वेताम्बर जैन दोनों द्वारा स्वीकृत है। श्वेताम्बर जैन इसे 'पुराण' की संज्ञा देकर नहीं अपाते; वे इस ग्रन्थ को 'त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित' कहकर इसका गौरव करते हैं। जिनसेन -प्रणीत 'पाखाभ्युदय' काव्य भी संस्कृत साहित्य का चेतोहर अलङ्कार है। जैनों की अधिकांश पौराणिक कथाएं वैदिक पुराणों की कथाओं से ली गई हैं सही; किन्तु जैनों का कथाकोश जैन इतिहास, कला और संस्कृति 197440 Jain Education International For Private & Personal Use Only १२५ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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