Book Title: Jain Nyaya ka Vikas Author(s): Nathmalmuni Publisher: Nathmal Muni View full book textPage 7
________________ प्रस्तावना राजस्थान विश्वविद्यालय के तत्वावधान में "जैन विद्या अनुशीलन केन्द्र" को विशिष्ट अनुदान द्वारा प्रतिष्ठित करने का श्रेय राजस्थान सरकार को है। सर्वप्रथम केन्द्र के कार्य को गति देने के लिए उसके तत्कालीन अधिष्ठाता डा० दयाकृ०॥ ने गण्यमान्य विद्वानो के भाषण की व्यवस्था करने की योजना बनायी। सौभाग्य से श्रादरणीय मुनिवर नयमलजी ने इस भाषणमाला का श्रीगणेश करने की स्वीकृति प्रदान की। फलत मुनिजी के चार भाषण करवाये गये। इनको लिपिवद्ध किया गया और उनका केन्द्र के द्वारा प्रकाशन आपके समक्ष है। जैन न्याय का प्राणभूत सिद्धान्त स्थाद्वाद है और उसका सकेत प्राचीनतम जैन न थो मे स्पष्ट मिलता है। परवर्तीकाल मे बौद्ध और ब्राह्मण नैयायिकी के साथ परस्पर विचार एव शास्त्रार्थ के द्वारा जन न्याय का विकास हुआ। समन्तभद्र और सिद्धमेन ने जिस न्याय शास्त्र का बीजारोपण किया उसे अकलक ने एके सूक्ष्म शास्त्र के रूप में परिवर्षित किया और विद्यानन्द एवं प्रभाचन्द्र ने इस शास्त्र को बृहत् श्राकार प्रदान किया। न्याय के सूक्ष्म और जटिल प्रकरणों से मूल तत्वो का सरल और मौलिक प्रतिपादन मुनि नयमलजी ने अपने व्याख्यानो मे किया है । उनके प्रतिपादन मे गभीरता के साथ-साथ प्रसादगुण अद्भुत रूप से विद्यमान है जोकि उनकी तलस्पर्शी विद्या का घोतक है । हमे आशा है कि प्रस्तुत न थ विद्वानो तथा जैन न्याय की जानकारी के जिज्ञासुओ के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। मैं विश्वविद्यालय की ओर से विद्वान् मुनि श्री के प्रति आभार प्रकट करता है और पा०को से अनुरोध करता हूँ कि न थ के सारगर्भित विषय से लाभ उ०ावें । केन्द्र के वर्तमान अधिष्ठाता डा० गोपीनाथजी शर्मा बधाई के पात्र हैं कि उनके प्रयत्नो से यह प्रकाशन पूरा हो सका है। વિન્ય વન્દ્ર પાડે कुलपति राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर। मार्च 12, 19771Page Navigation
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