Book Title: Jain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 14
________________ xii... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन शास्त्रकारों ने मुख्य रूप से भिक्षा के तीन प्रकारों का वर्णन किया है - 1. दीनवृत्ति, 2. पौरुषघ्नी एवं 3. सर्व सम्पतकरी | इसमें से मुनि द्वारा याचित भिक्षा सर्व सम्पत्करी कहलाती है। क्योंकि अहिंसक एवं संयमी मुनि सहज रूप से प्राप्त निर्दोष भिक्षा ही ग्रहण करते हैं। जैन ग्रन्थों में मुनि भिक्षा के लिए गोचरी, माधुकरी, कापोती वृत्ति, उञ्छवृत्ति, एषणा, पिण्डैषणा आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। यह शब्द जैन मुनि की भिक्षा विधि के वैशिष्ट्य को द्योतित करते हैं। सर्वथा निराहार रहकर साधना करना असंभव है । शरीर के सम्यक संचालन एवं समाधियुक्त साधना के लिए आहार अत्यन्त आवश्यक है अतः श्रमण नीरस भाव से औषधि के समान भोजन का सेवन करता है। उसका भोजन हित, मित एवं परिमित होता है। आहार शुद्धि की अपेक्षा जैन मुनि के लिए भिक्षाशुद्धि की नवकोटियाँ बताई गई है। तदनुसार मुनि के निमित्त वस्तु खरीदना, निर्माण करना या हिंसा करना वर्जित है। इसी प्रकार किसी के द्वारा करवाना अथवा इन कार्यों की तनिमित्त अनुमोदना करना भी निषिद्ध है। इन नव कोटियों से यह स्पष्ट है कि जैन मुनि किसी पर भी भारभूत नहीं बनता । सहजता से गृहस्थ के घर में जो भी निर्दोष आहार प्राप्त हो जाए, उस सात्विक आहार से ही अपना जीवन यापन करते हैं। दशवैकालिकसूत्र में मुनि की भिक्षाचर्या को अदीनवृत्ति कहा है, क्योंकि मुनि को अदीन भावपूर्वक भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । निरस भोजन मिलने पर न तो उसे विषाद करना चाहिए और न ही सरस भोजन मिलने पर आनन्दित होना चाहिए। इसी के साथ भिक्षाचर्या सम्बन्धी 42 दोषों का वर्णन भी मुनि भिक्षा की सूक्ष्मता का परिज्ञान करवाता है। भिक्षाचर्या मुनि जीवन का आवश्यक अंग है। आगमकाल से ही हमें इसकी विस्तृत चर्चा प्राप्त होती है। आचारांग एवं दशवैकालिक सूत्र में भिक्षाचर्या का प्राचीनतम स्वरूप दृष्टिगत होता है। उक्त दोनों ग्रन्थ इस विषय में महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक स्थान रखते हैं। इसी के साथ स्थानांग, भगवती, प्रश्नव्याकरण, निशीथ आदि सूत्रों में भी विषयगत सामान्य चर्चा की गई है। जहाँ तक 42 या 47 दोषों का वर्णन है वह आगमों में विकीर्ण रूप से प्राप्त होता है। आगमिक व्याख्या साहित्य में सर्वप्रथम पिण्डनिर्युक्ति में 47 दोषों का

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