Book Title: Jain Kumarsambhava Mahakavya
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 18
________________ प्रस्तावना जैनकुमारसम्भव के कर्ता-जैन कुमार सम्भव श्री जयशेखर सूरि की रचना है। जैन श्वेताम्बर परम्परा में इन आचार्य का उदय अञ्चल गच्छ के ५६वें पट्ट पर हुआ था। ये भट्टारक श्री महेन्द्रप्रभसूरि के शिष्य थे। श्री जयशेखर सूरि काव्य साहित्य और दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान् और कवि थे। इन्होंने उपदेश चिन्तामणि, प्रबोधचिन्तामणि और धम्मिल्लचरित्र आदि ग्रन्थों की रचना की थी। ये विक्रम संवत् १४३६ में विद्यमान थे। जिस प्रकार कालिदास ने कुमार कार्तिकेय की उत्पत्ति सम्बन्धी कथा कुमार सम्भव काव्य में ग्रथित की गई है। उसी प्रकार श्री जयशेखर सूरि ने कुमार भरत की उत्पत्ति सम्बन्धी कथा जैनकुमार सम्भव में ग्रथित की है। समस्त पुत्र 'कुमार' नाम से कहे जाते हैं । अत: कुमार सम्भव नाम यहाँ भी उपयुक्त है। पूर्व रचित कुमार सम्भव से पार्थक्य करने हेतु तथा जिनेन्द्र भगवान् से सम्बन्धित होने के कारण इसका जैनकुमारसम्भव नाम रखा गया। इसके कर्ता को सरस्वती का वर प्राप्त था, ऐसा विश्वास किया जाता है। जैनकुमारसम्भव के टीकाकार-जैनकुमारसम्भव महाकाव्य की टीका श्री जयशेखर सूरि के शिष्य श्री धर्मशेखर महोपाध्याय ने की थी। यह टीका मूल लेखक के दुरुह शब्दों के अर्थ को अभिव्यक्त करने में बहुत उपयोगी है। इस टीका का शोधन श्रीमणिक्यसुन्दर सूरि ने किया था, ऐसा टीकाकार के कथन से ज्ञात होता है। जैनकुमारसम्भव महाकाव्य की कथावस्तु जैनकुमारसम्भव महाकाव्य ग्यारह सर्गों में विभक्त है, समग्र ग्रन्थ में ८४९ पद्य हैं। प्रत्येक सर्ग के अन्त में एक पद्य में कवि ने अपनी प्रशस्ति दी है। प्रथम सर्ग में सतहत्तर पद्य हैं। प्रथम सर्ग के प्रारम्भ में प्रबन्ध की निर्विघ्न रूप से परिसमाप्ति के लिए वस्तु निर्देशात्मक रूप में मङ्गलाचरण किया है। इसमें कौशलपुरी को अलका नगरी के समान बतलाया है। प्रारम्भ के १६ पद्यों में कौशलपुरी का वर्णन है। इस नगरी में प्रभु आदिदेव ने राजा नाभि के पुत्रभाव को प्राप्त किया। वे गर्भ में स्थित रहते हुए भी मति, श्रुत और अवधि नामक तीन ज्ञान के धारी थे। ऋषभदेव के गर्भ में आने पर माता मरुदेवी के विषय में लोग कहने लगे कि यह पुण्या है, यह साध्वी है। भगवान् का उदय होने पर नारकियों ने भी सुख का अनुभव किया। इन्द्रों ने मन्दराचल के मस्तक पर बैठाकर उनका अभिषेक किया और स्तुति की। इन्द्र ने शिशु अवस्था में उनकी इक्षुदण्ड में रुचि जानकर उनके वंश का नाम इक्ष्वाकु रखा। उनको पालने में सोता हुआ देखकर तथा इनके यश को तीनों लोकों में व्यापक देखकर देवों ने कार्य कारण की कला को प्राप्त होता है, यह उक्ति झूठी ही घोषित कर दी। माता-पिता उन्हें पाकर अति हर्षित हुए। उन्होंने देवों के साथ बाल क्रीड़ा की। बाल्यावस्था पार कर वे यौवन को प्राप्त हुए। उनका रूप, यौवन विलक्षण था, शरीर सुवर्णमय था। देवसमूह ने उनका पट्टाभिषेक किया। वे विविध प्रकार के क्रीड़ारसों के समय बिताने लगे। [प्रस्तावना] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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