Book Title: Jain Katha Sahitya Ek Paryavekshan Author(s): Jayantvijay Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf View full book textPage 2
________________ शास्त्रीय काव्य के अतिरिक्त जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र को स्पर्श करने वाली लोककथाएं, दस्तकाएं पाविकाएं. कथाएं, साहित्यिक कथाएं, उपन्यास, रमन्यास दृष्टान्त कथाएँ उपलब्ध हैं। इनमें से अनेक स्वतंत्र कथाएं हैं और कथाओं की परम्परा संबद्ध श्रृंखलाएँ भी है। कुछ छोटी-छोटी कहानियां हैं। तो कुछ पर्याप्त बड़ी। जैन कथा साहित्य के बारे में इतना संकेत करना ही पर्याप्त है कि यह बहुत ही विशाल है, इसकी दृष्टि विशाल है और मानवीय जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जिसका समावेश जैन कथा साहित्य में न हुआ हो । जैन कथाओं को विशेषता जैन कथाओं की निर्मिति यथार्थवाद के धरातल पर हुई है। और इनकी रूपरेखा आदर्शवाद के रंग से अनुरंजित है । अपने आदर्श को नष्ट करते हुए एक बार नहीं हजार बार बताया है कि मानव जीवन का श्रेय मोक्ष प्राप्ति है और उसमें सफल होने के लिए संसार से विरक्त होना पड़ेगा । यद्यपि पुण्य सुखकर है और पाप की तुलना में इसकी लब्धि भी श्रेयस्कर है फिर भी पुण्य कामना का परित्यागविशुद्ध आत्म स्वरूप की प्राप्ति के लिए आवश्यक है । जैन कथाओं में वर्णनात्मक शैली की मुख्यता है फिर भी उनमें मानवीय संवेदनाओं भावनाओं का आरोह-अवरोह जीवन का क्रमिक विकास एवं मानवता का उच्च संदेश विद्यमान है। जैन कथाएं भारतीय सभ्यता संस्कृति के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं एवं मानव को बर्बरता एवं क्रूरता के नागपाश से मुक्त कर आध्यात्मिक भाव भूमि पर महान एवं नैतिकता का अधिष्ठाता बनाने में सक्षम है। जैन कथानक विशुद्ध भारतीय है और अनेक बार शुद्ध देशज है तथा पर्याप्त रूप से मौलिक । इनमें लोक संस्कृति की झलक देखने के साथ उस प्रदेश व युग में बोली जाने वाली भाषा का भी यथार्थ रूप देखने को मिलता है । भाषा का प्रवाह ऐसा है कि पढ़ने में मस्तिष्क पर किसी प्रकार का भार नहीं पड़ता है । जैन कथाओं में कर्म सिद्धान्त के निरूपण द्वारा पुण्य-पाप की विशद व्याख्या हुई है कि प्रत्येक जीव को स्वकर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। इस अटल सिद्धान्त की परिधि के बाहर संसार का कोई भी प्राणी नहीं जा सकता है। अपने अपने कृत्यों के शुभाशुभ परिणामों का अनुभव करना पड़ता है । यह बात दूसरी है कि पुण्यवान पान कर्म के फलस्वरूप स्वर्ग सुख भोगे और पशु भी सामान्य व्रतों का पालन करके देव बन सकता है। जैन धर्म पुनर्जन्म सिद्धान्त में पूर्ण आस्थावान है इसलिए कर्मवाद की अभिव्यक्ति अधिक प्रभावशाली बन जाती है । यदि कारण विशेष से कोई जीव अपने वर्तमान जीवन में स्वकृत कर्मों का फल भोग नहीं पाता है तो उसे दूसरे जन्मों में अवश्य भोगना पड़ता है । जैम कथाओं में वर्तमान मुख्य है और भूतना वर्तमान सुख दुख की व्याख्या या कारण निदेश के रूप में आता है। भूत गौण है भूत को वर्तमान से सम्बद्ध रखती है तथा अपने सिद्धान्त का सीधा उपदेश न देकर कथानथों के माध्यम से उद्देश्य प्रकट करती है । १७४ Jain Education International जैन कथानकों में समस्त प्राणियों की चिन्ता करने वाले जैन धर्म के आध्यात्मिक विकास के सिद्धान्तों का दिग्दर्शन कराने के साथ-साथ सर्वभूतहिताय की भावना सदैव स्पन्दित रही है, जाति भेद या वर्ग भेद की कल्पना के लिये यहां स्थान ही नहीं है। जैन कथाओं में विरक्ति व्रत, संयम, सदाचार को विशेषतः प्रतिफलित किया है। जीवन में व्रतों की आवश्यकता, उनके प्रयोग, उनकी उपयोगिता आदि पर अनेक कहानियां हैं जो जीवन के उज्ज्वल पक्ष को प्रदर्शित करती है और कहानियों के चिन्तन मनन से प्रेरणा पाकर मानव आध्यात्मिकता एवं पवित्रता की ओर अग्रसर होता है। जैन कथाओं में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं कुछ ऐसे हैं जो सार्वभौम होने के कारण विश्व के कथाकारों को विविध रूपों से प्रभावित कर सके और उन्होंने प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से इन्हें अपनाया है । इन कल्याणदायिनी कहानियों में केवल पारलौकिक अथवा अध्यात्मवाद की ही प्रमुखता नहीं है अपितु लौकिक जीवन के सभ्य सुसंस्कृत गौरवशाली धरातल को भी अभिव्यंजित किया है। यहां दोनों का समन्वयात्मक रूप दृष्टव्य है । संक्षेप में उन विशेषताओं को निम्न प्रकार से आकलित किया जा सकता है । १. विश्व कल्याण की भावना का प्राधान्य । २. जीवन के चरम लक्ष्य एवं कर्म सिद्धान्त का निरूपण । सांसारिक वैभव की क्षणभंगुरता का मनोरम चित्रण । ३. ४. आदर्शवाद और यथार्थवाद के समन्वयात्मक दृष्टिकोण का संतुलित निरूपण । पुण्य-पाप की रोचक व्याख्या । कहानी सुखद परिसमाप्ति एवं वर्णन की रोचकता । आध्यात्मिक चिंतन की प्रचुरता । ८. लोक प्रचलित उदाहरण के माध्यम से सैद्धांतिक गहन विषयों का सुगम विवेचन । ९. जैन धर्म की उदारता को प्रमाणित करने हेतु जाति बंधन के शैथिल्य का वर्णन | ५. ६. ७. १०. भारत के प्राचीन वैभव की अनुपम अभिव्यक्ति एवं ऐतिहासिक तथ्यों की निष्पक्ष एवं समुचित व्याख्या । ११. सूक्तियों और कल्पना का उचित उपयोग तथा रूपकों व प्रतीकों का विविध प्रकार से प्रयोग । १२. विभिन्न भाषाओं और बोलियों की शब्दावली का उदारतापूर्वक प्रयोग । १३. परम्पराओं, उत्सवों और मंगलमय आचार व्यवहारों का सहज उल्लेख और विवरण । १४. मानवीय नैसर्गिक वृत्तियों और प्रवृत्तियों का चित्रण । १५. कृत्रिमता का अभाव एवं शांत रस की प्रचुरता । १६. अतीत के साथ वर्तमान काल की अभिवृद्धि की कामना । १७. मानवीय पुरुषार्थं को जागृत करने की प्रेरणा । १८. कष्ट सहिष्णु बनने का संदेश । १९. जैन धर्म के आचार-विचार मूलक सिद्धान्त की समुचित व्याख्या | For Private & Personal Use Only राजेन्द्र- ज्योति www.jainelibrary.orgPage Navigation
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