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जैन कथा साहित्य : एक पर्यवेक्षण
जयन्तविजय, "मधुकर"
जीवन में कथा-कहानी का महत्त्व ___ सत्य तो यह है कि प्रत्येक मानव अपने जन्म के साथ एक कथा लेकर आया है। जिसको वाणी द्वारा नहीं किन्तु अपने अहर्निश के क्रिया-कलापों द्वारा कहता हुआ समाप्त करता है। तब जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जिसमें कहानी की मधुरिमा अभिव्यंजित नहीं हुई हो, कथा के प्रति मानवमात्र का सहज आकर्षण न हो। इसलिए विश्व के संपूर्ण साहित्य को लें अथवा किसी भी देश, जाति या भाषा का साहित्य लें उसका बहुभाग एवं सर्वाधिक जनप्रिय अंश किसी न किसी रूप में रचित उसका कथा साहित्य ही माना जाता है। यह स्थिति मात्र लौकिक साहित्य की ही नहीं वरन् धार्मिक साहित्य के बारे में भी यही बात शत-प्रतिशत सत्य है कि लोक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण रोचक व जनप्रिय अंश उसका कथा साहित्य ही है। ___ कथा साहित्य प्राचीन परम्परा की पावन गंगा है जो देश-काल के विस्तार के साथ अनेक कथा सरिताओं का संगत होते जाने से विशाल रूप धारण कर जन मानस को उल्लसित एवं उदान बनने के लिए प्रेरित करती है। कथाओं का उद्देश्य
लोक जीवन और लोक संस्कृति का उन्नयन एवं संरक्षण करने के साथ-साथ जन सामान्य को सुगम रीति से धार्मिक नियमों, नैतिक आचार-विचारों के प्रचार-प्रसार करने एवं समझाने के लिए क्या साहित्य से बढ़कर अधिक प्रभावशाली साधन दूसरा नहीं है। जिनके बिना एक कदम चलना भी असंभव होता है। ऐसी स्थिति में उनका सरल मार्ग कहानी साहित्य ही होता है। कला के माध्यम से दर्शन के दुरूह प्रश्न, संस्कृति का गहरा चिन्तन व धर्म के विविध पहल सरलता से हृदयंगम किये व कराये जा सकते हैं। इसमें सभी बोलियों की आत्मा होती है। मित्र सम्मत उपदेश भी इसी माध्यम से होता है, जो श्रुति से मधुर, आचरण में सुकर व हृदय छूने वाला होता है।
जैन कथा साहित्य
उपर्युक्त कथन से यह भलीभांति ज्ञात हो जाता है कि कहानी, साहित्य, साहित्य की एक प्रमख विधा है जिसे सबसे अधिक लोक प्रियता प्राप्त है। उसके प्रकाश में अब हम जैन कथा साहित्य के बारे में विचार करते हैं।
साहित्य के साथ जैन विशेषण की उपस्थिति इस बात को सूचित करती है कि यहां जैन नाम से प्रसिद्ध धार्मिक परम्परा विशेष का साहित्य अभिप्रेत है जिसका उद्देश्य वैयक्तिक जीवन का नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नयन करना है। अत: उसकी दृष्टि केवल सामूहिक लोक जीवन अथवा किसी वर्ग या समाज विशेष तक सीमित नहीं है वरन् प्रत्येक जीवात्मा को स्पर्श किया है। यही कारण है । इस परम्परा द्वारा प्रेरित, जित, संरक्षित एवं प्रभारित साहित्य भारतीय भाषाओं में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है और उन-उन भाषाओं के साहित्य भण्डार की अभिवृद्धि की है।
जैन साहित्य केवल तात्विक, दार्शनिक या धार्मिक आचार विचारों तक ही सीमित नहीं है। उसमें ज्ञान विज्ञान की प्राय: प्रत्येक शाखा पर रचित रचनाएं समाविष्ट हैं, जिनमें उन सिद्धांतों की सनिःण व्याख्या की गई है जिनको आज तक कोई चुनौती नहीं दे सका है किन्तु लोक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण, रोचक एवं जनप्रिय अंश उसका कथा साहित्य है। जैन आगमों में से नाया धम्म कहा, उवासगदसाओं, अन्तगडदशा, अनुत्तरोपपातिक, विपाक सूत्र आदि तो समग्र रूप से कथात्मक हैं इनके अतिरिक्त सूयगडांगसूत्र, भगवतीसूत्र, ठाणंगसूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र आदि में भी अनेक रूपक व कथाएं हैं जो भाव पूर्ण होने के साथ प्रभावक भी हैं।
जैन कथा साहित्य अत्यन्त विशाल, व्याप। एवं विविध भाषा मय है। उसमें काव्य शास्त्र के सभी लक्षणों, नियमों की संपुष्टि करने वाले पौराणिक महाकाव्य, चरित्र काव्य, सामान्य काव्य,
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शास्त्रीय काव्य के अतिरिक्त जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र को स्पर्श करने वाली लोककथाएं, दस्तकाएं पाविकाएं. कथाएं, साहित्यिक कथाएं, उपन्यास, रमन्यास दृष्टान्त कथाएँ उपलब्ध हैं। इनमें से अनेक स्वतंत्र कथाएं हैं और कथाओं की परम्परा संबद्ध श्रृंखलाएँ भी है। कुछ छोटी-छोटी कहानियां हैं। तो कुछ पर्याप्त बड़ी। जैन कथा साहित्य के बारे में इतना संकेत करना ही पर्याप्त है कि यह बहुत ही विशाल है, इसकी दृष्टि विशाल है और मानवीय जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जिसका समावेश जैन कथा साहित्य में न हुआ हो ।
जैन कथाओं को विशेषता
जैन कथाओं की निर्मिति यथार्थवाद के धरातल पर हुई है। और इनकी रूपरेखा आदर्शवाद के रंग से अनुरंजित है । अपने आदर्श को नष्ट करते हुए एक बार नहीं हजार बार बताया है कि मानव जीवन का श्रेय मोक्ष प्राप्ति है और उसमें सफल होने के लिए संसार से विरक्त होना पड़ेगा । यद्यपि पुण्य सुखकर है और पाप की तुलना में इसकी लब्धि भी श्रेयस्कर है फिर भी पुण्य कामना का परित्यागविशुद्ध आत्म स्वरूप की प्राप्ति के लिए आवश्यक है ।
जैन कथाओं में वर्णनात्मक शैली की मुख्यता है फिर भी उनमें मानवीय संवेदनाओं भावनाओं का आरोह-अवरोह जीवन का क्रमिक विकास एवं मानवता का उच्च संदेश विद्यमान है। जैन कथाएं भारतीय सभ्यता संस्कृति के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं एवं मानव को बर्बरता एवं क्रूरता के नागपाश से मुक्त कर आध्यात्मिक भाव भूमि पर महान एवं नैतिकता का अधिष्ठाता बनाने में सक्षम है।
जैन कथानक विशुद्ध भारतीय है और अनेक बार शुद्ध देशज है तथा पर्याप्त रूप से मौलिक । इनमें लोक संस्कृति की झलक देखने के साथ उस प्रदेश व युग में बोली जाने वाली भाषा का भी यथार्थ रूप देखने को मिलता है । भाषा का प्रवाह ऐसा है कि पढ़ने में मस्तिष्क पर किसी प्रकार का भार नहीं पड़ता है ।
जैन कथाओं में कर्म सिद्धान्त के निरूपण द्वारा पुण्य-पाप की विशद व्याख्या हुई है कि प्रत्येक जीव को स्वकर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। इस अटल सिद्धान्त की परिधि के बाहर संसार का कोई भी प्राणी नहीं जा सकता है। अपने अपने कृत्यों के शुभाशुभ परिणामों का अनुभव करना पड़ता है । यह बात दूसरी है कि पुण्यवान पान कर्म के फलस्वरूप स्वर्ग सुख भोगे और पशु भी सामान्य व्रतों का पालन करके देव बन सकता है। जैन धर्म पुनर्जन्म सिद्धान्त में पूर्ण आस्थावान है इसलिए कर्मवाद की अभिव्यक्ति अधिक प्रभावशाली बन जाती है । यदि कारण विशेष से कोई जीव अपने वर्तमान जीवन में स्वकृत कर्मों का फल भोग नहीं पाता है तो उसे दूसरे जन्मों में अवश्य भोगना पड़ता है ।
जैम कथाओं में वर्तमान मुख्य है और भूतना वर्तमान सुख दुख की व्याख्या या कारण निदेश के रूप में आता है। भूत गौण है भूत को वर्तमान से सम्बद्ध रखती है तथा अपने सिद्धान्त का सीधा उपदेश न देकर कथानथों के माध्यम से उद्देश्य प्रकट करती है ।
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जैन कथानकों में समस्त प्राणियों की चिन्ता करने वाले जैन धर्म के आध्यात्मिक विकास के सिद्धान्तों का दिग्दर्शन कराने के साथ-साथ सर्वभूतहिताय की भावना सदैव स्पन्दित रही है, जाति भेद या वर्ग भेद की कल्पना के लिये यहां स्थान ही नहीं है। जैन कथाओं में विरक्ति व्रत, संयम, सदाचार को विशेषतः प्रतिफलित किया है। जीवन में व्रतों की आवश्यकता, उनके प्रयोग, उनकी उपयोगिता आदि पर अनेक कहानियां हैं जो जीवन के उज्ज्वल पक्ष को प्रदर्शित करती है और कहानियों के चिन्तन मनन से प्रेरणा पाकर मानव आध्यात्मिकता एवं पवित्रता की ओर अग्रसर होता है।
जैन कथाओं में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं कुछ ऐसे हैं जो सार्वभौम होने के कारण विश्व के कथाकारों को विविध रूपों से प्रभावित कर सके और उन्होंने प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से इन्हें अपनाया है । इन कल्याणदायिनी कहानियों में केवल पारलौकिक अथवा अध्यात्मवाद की ही प्रमुखता नहीं है अपितु लौकिक जीवन के सभ्य सुसंस्कृत गौरवशाली धरातल को भी अभिव्यंजित किया है। यहां दोनों का समन्वयात्मक रूप दृष्टव्य है । संक्षेप में उन विशेषताओं को निम्न प्रकार से आकलित किया जा सकता है ।
१. विश्व कल्याण की भावना का प्राधान्य ।
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जीवन के चरम लक्ष्य एवं कर्म सिद्धान्त का निरूपण । सांसारिक वैभव की क्षणभंगुरता का मनोरम चित्रण ।
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४. आदर्शवाद और यथार्थवाद के समन्वयात्मक दृष्टिकोण का
संतुलित निरूपण ।
पुण्य-पाप की रोचक व्याख्या ।
कहानी सुखद परिसमाप्ति एवं वर्णन की रोचकता । आध्यात्मिक चिंतन की प्रचुरता ।
८. लोक प्रचलित उदाहरण के माध्यम से सैद्धांतिक गहन विषयों का सुगम विवेचन ।
९. जैन धर्म की उदारता को प्रमाणित करने हेतु जाति बंधन के शैथिल्य का वर्णन |
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१०. भारत के प्राचीन वैभव की अनुपम अभिव्यक्ति एवं ऐतिहासिक तथ्यों की निष्पक्ष एवं समुचित व्याख्या ।
११. सूक्तियों और कल्पना का उचित उपयोग तथा रूपकों व प्रतीकों का विविध प्रकार से प्रयोग ।
१२. विभिन्न भाषाओं और बोलियों की शब्दावली का उदारतापूर्वक प्रयोग ।
१३. परम्पराओं, उत्सवों और मंगलमय आचार व्यवहारों का सहज उल्लेख और विवरण ।
१४. मानवीय नैसर्गिक वृत्तियों और प्रवृत्तियों का चित्रण । १५. कृत्रिमता का अभाव एवं शांत रस की प्रचुरता ।
१६. अतीत के साथ वर्तमान काल की अभिवृद्धि की कामना । १७. मानवीय पुरुषार्थं को जागृत करने की प्रेरणा । १८. कष्ट सहिष्णु बनने का संदेश ।
१९. जैन धर्म के आचार-विचार मूलक सिद्धान्त की समुचित
व्याख्या |
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२०. वर्ग विशेष की संस्कृति के साथ-साथ विशाल संस्कृति का सुहावनी अभिव्यंजनापूर्वक गतिशील वर्णन ।
२१. भारतीय गौरव और वैभव की अनुपम अभिव्यक्ति आदि । अभिप्राय यह है कि जैन कथा साहित्य की अपनी विशेषताएंमौलिकताएं है। इसलिये विश्व साहित्य के विशाल भण्डार की बहुमूल्य निधि मानी जाती है ।
जैन कथाकारों की उदारता
जैन कथाकारों की यह उदारता रही है कि किसी भी क्षेत्र से क्या स्रोत ग्रहण किये हों, कोई भी कथानक हो, कोई और कैसे भी पात्र हो या कैसी भी घटना क्रम या स्थिति का चित्रण हो वे अपनी कहानी को एक रोचक एवं वस्तुपरक ढंग से कहते चलते हैं।
जैन धर्म का प्रचार और प्रसार करने के लिये जैनाचार्यों ने अपूर्व प्रेरणाप्रद और प्रांजल नैतिक कथाओं की परम्पराओं का अनुसरण किया है। वे प्रचार-प्रसार के लिये कथाओं को सबसे सुलभ और प्रभावशाली साधन मानते हैं। उनकी कथाएं दैनिक जीवन की सरल से सरल भाषा में होती हैं। इसलिये उन्होंने अपने समय की प्रचलित लोक भाषाओं में यह गद्य या पद्य अथवा दोनों के संयुक्त रूप द्वारा कथा कला को चरम विकास की सीमा तक पहुंचाया ।
जैन कथाकारों की कथा करने की प्रणाली अन्यों की अपेक्षा विशेषतापूर्ण है । वे क्या के प्रारम्भ से अपने प्रसिद्ध धर्म वाक्य या पदांश द्वारा मंगलाचरण करके फिर बाद में क्या करना प्रारम्भ कर के कथा के प्रारम्भिक भाग में प्रमुख पात्र अथवा पात्रों के नाम, उनके निवास स्थान का उल्लेख नियमित रूप से होता है साथ ही पुण्यवान राजा-रानी शासक के नाम का भी उल्लेख कर दिया जाता है । उनकी शासन व्यवस्था की प्रशंसा करके क्षेत्र की भौगोलिक रमणीयता, वहां के निवासियों की वृत्ति का भी उल्लेख कर दिया जाता है। कथा के पात्र वर्ण्य विषय में ऐसा तालमेल बैठाया जाता है कि श्रोता या पाठक अपने जीवन को भी उनमें झाकने लगते हैं । वह इतना तन्मय हो जाता है कि यह कथा मेरे जीवन की ही कहानी है। कथा के अंत में श्रोताओं या पाठकों को सन्मार्ग पर चलने का उपदेश देते हैं । कथा पात्र पर विशेष आदर्श, भक्ति, तपस्या आदि का प्रभाव प्रकट हो जाने से वह संसार से छुटकारा प्राप्त करने का उपाय पूछता है, प्रत्युत्तर में जैन धर्म के मुख्य-मुख्य सिद्धान्तों को या प्रसंगोपयोगी किसी एक सिद्धान्त के प्ररूपण के प्रसंग में बताया जाता है कि पूर्व कृत कर्मों के फलस्वरूप ही वह सब घटना बनी, सुख-दुःख की प्राप्ति हुई है और अपने कथन के उदाहरण में संक्षिप्त रूप से कहानी के पात्रों के जीवन में घटित घटनाओं के वर्णन द्वारा उसे स्पष्टतया समझाते हैं जिससे वह कुत्सित मार्ग को छोड़कर मोक्ष मार्ग का पथिक बन जाता है । सांसारिक बंधनों से नाता छोड़ आत्मा से नाता जोड़ लेता है, इस प्रकार कथा का अन्त उपदेशात्मक पंक्तियों के साथ सुखद दृष्टिगोचर होता है ।
जैन कथाओं में लोक संस्कृति और समाज
हमारे देश की लोक संस्कृति धर्म परायण है और माननीय आदर्शों को निरन्तर अपनाती रहती है। उसमें विरक्ति, करुणा, उदारता,
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सेवा, त्याग, अहिंसा आदि के ऐसे स्वर गूंज रहे हैं जो परिवर्तन की मांग मुखर होने पर भी कोई उनमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन के लिये स्वीकृति नहीं देता है। उनमें मानवता की रक्षा के दर्शन करता है। इसलिये यह मानता है कि संस्कृति के मौलिक उपादानों में फेरबदल करना अपने अस्तित्व का नकारा करना है।
जैन कथाओं में लोक संस्कृति का यथार्थ रूप में चित्रण मिलता है । वस्तुतः लोक संस्कृति को अपनाने के कारण ही ये कथायें लोकप्रिय बनी हैं। संस्कृति और अन्तर बाह्य जीवन की अभिव्यक्ति है जिसमें हमारे जीवन के सभी भौतिक, सामाजिक आध्यात्मिक मूल्य उसमें समाहित हो जाते हैं। समाज निर्माण के मूल से कुछ नैतिक विश्वास, संस्कार, नियम और क्रियाकलाप होते हैं, जिनको उस समुदाय में रहने वाले आबाल-वृद्ध सभी व्यक्ति की स्वीकृति प्राप्त होती है यानी उन्हें सभी अंगीकार करते हैं। यद्यपि लोक संस्कृति का कोई पंक्तिबद्ध लेखा नहीं होता है वह न किन्हीं नियमउपनियम से भी बंधी रहती है । सामयिक आचार-विचार सभ्यता से कुछ रूपान्तरण हुआ अवश्य प्रतीत होता है लेकिन व्यक्ति की मानसिक धरोहर और विश्वास होने के कारण वह लोक मानव की
से पढ़ो दर पीढ़ी विरासत के रूप में मिलती रहती है। परिवर्तन होते जाते हैं पर उसके मौलिक रूप में कुछ विकार नहीं आता है । उसमें स्थायित्व रहता है ।
जैन कथाओं के आत्म विकासोन्मुखी होने के कारण यद्यपि उनका लक्ष्य सामाजिक रहन-सहन अथवा राजनीतिक वातावरण अंकित करना नहीं रखा है। फिर भी उनमें ऐसे अनेक संवेदनशील आख्यान उपलब्ध हैं जिनमें ऐतिहासिक तथ्यों की प्रतीति होने के साथ पाठक तत्कालीन सामाजिक रहन-सहन, आचार-विचार, व्यापार-व्यवहार का यथार्थ एवं सविस्तार परिचय प्राप्त कर लेता है । जैसे कि अर्थोपार्जन और आजीविका के अनेक साधन हैं फिर भी प्राचीनकाल से व्यापार और खेती की मुख्यता का उल्लेख है, नौकरी के प्रति जनता का आकर्षण नहीं था। व्यापार के निमित्त एक दूसरे प्रान्त में ही नहीं समुद्रपार सुदूर देशों में पहुंचते थे। पारस्परिक वस्तुओं का विनिमय करना व्यापार का आधार था । धन कमाकर दान में उसका उपयोग करना एवं धार्मिक कार्यों में जी खोलकर व्यय करना प्रत्येक व्यक्ति अपना कर्तव्य समझते थे ।
समाज व्यवस्था सुगठित थी और एक दूसरे को सहायता देना, गुरुजनों का आदर-सत्कार करना एक साधारण सी बात थी । लोक जीवन विशेष समृद्ध और सुखमय था । कृषि से पर्याप्त आय होती थी तथा खाद्य पदार्थ अल्प मूल्य में सुलभता से प्राप्त हो जाते थे । सर्वत्र समृद्धि परिलक्षित होती थी। स्त्री और पुरुषों में आभूषण पहनने का आम रिवाज था। दूध, दही, घी, विविध दालें, सुगंधित चावल, मिष्ठान्न आदि भोजन के प्रमुख अंग थे । मनोविनोदार्थ कई तरह के खेल खेले जाते थे। सामाजिक त्यौहारों एवं विशिष्ठ पर्वों को बड़े उल्लासपूर्वक मनाया जाता था ।
राज्य व्यवस्था कठोर थी। राजा अपराधी को कठोर दण्ड देते यहां तक कि चोरी के अपराध में सूली की सजा दे दी जाती थी ।
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महिलाओं को सम्माननीय स्थान प्राप्त था । बहुपनि प्रथा का भी प्रचलन था । कन्याएं विविध कलाओं का अध्ययन करती थी। वे अपनी इच्छानुसार जीवन साथी को चुनने के लिये स्वतंत्र थीं। वे कठिन परीक्षाओं में उत्तीर्ण पुरुष को अपना पति बनाना पसन्द करती थी। सम्पन्न व्यक्ति पुत्री के विवाह के समय दामाद को बहुत कुछ धन संपत्ति दिया करते थे। स्वयंबर प्रथा थी लेकिन वह माता-पिता, गुरुजनों की देखरेख और साक्षी में सम्पन्न होती थी।
इस प्रकार से ये कथाएं समसामयिक सभ्यता और समाज व्यवस्था का एक सुहावना चित्र उपस्थित करती हैं। जैन कथाओं का देशाटन
मनुष्य विविध देशों और दर्शनीय स्थानों को देखने या अर्थोपार्जन आदि के निमित्त देश-विदेश की यात्रा करता है, वहां के निवासियों से मिलता है, उनकी सुनता और कुछ अपनी कहता है । इस समय अपनी बोली, वेशभूषा, संस्कार के आदि के साथ कुछ न कुछ कंठस्थ साहित्य भी उसके पास होता है। उपदेशक तो परिभ्रमणशील होता है और उपदेशार्थ दूसरे प्रान्त में जाने पर उसके माध्यम से कंठस्थ साहित्य भी उन देशों की धरती के निवासियों का स्पर्श करता है और श्रोतागण सुनकर अपनी दृष्टि अपनी विचारधारा के अनुसार उसे अनुरंजित करते हैं । भारत के विभिन्न प्रान्तों और विदेशों में जो जैन कथायें पहुंची और वहां उनका स्वागत हुआ तो उसका कारण पूर्वोक्त है। ___ इसका परिणाम यह हुआ कि शनैः-शनैः कथाओं में परिवर्तन आया, पात्र नाम बदले और उस देश की सांस्कृतिक धारा ने उन्हें प्रभावित किया लेकिन मूल अभिप्राय में परिवर्तन नहीं आया, वह ज्यों का त्यों रहा। मेक्स मूलर, हेर्टल, आदि अनेक विद्वानों ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि भारतीय कथाओं का यह अटुट प्रहार अति प्राचीनकाल से पश्चिम की ओर प्रवाहित हो रहा है और वे वहां के वातावरण के अनुकूल हेरफेर सहित प्रचलित हुई हैं। सुप्रसिद्ध यूरोपीय विद्वान बी. सी. एच.टाने अपने ग्रन्थ "ट्रेझरी ऑफ स्टोरीज' की भूमिका में स्वीकार किया है कि जैनों के कथाकोषों में संग्रहित कथाओं व यूरोपीय कथाओं का अत्यन्त निकट का साम्य है। ___कथाओं के देशाटन का मूल कारण और उनके मूल रूप का अनुसंधान तभी लगाया जा सकता है जब उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जाये। अभी तो संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि कथाएं देश-विदेश में घूम कर वहां के निवासियों का मनोरंजन और ज्ञानवर्धन कर रही हैं। कर्तव्य कथाकोशों का परिचय
पूर्व में वह संकेत किया जा चका है कि जैनाचार्यों ने जन सामान्य में जैन धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिये कथाओं को माध्यम बनाया। आगमों में भी अनेक छोटी-बड़ी सभी प्रकार की कथाएं मिलती हैं, उनके बाद आगमों की नियुक्ति, भाष्य, चूणि एवं टीका ग्रन्थों में तो अपेक्षाकृत विक
सित कथा साहित्य के दर्शन होते हैं जिसमें अनेक धार्मिक, लौकिक, ऐतिहासिक आदि कई प्रकार की कथाएं संग्रहित हैं। ऐसी परम्पर) का अनुसरण करते हुए उत्तरवर्ती काल में जैनाचार्यों ने कथाओं के पृथक्-पृथक ग्रन्थों का बड़ी संख्या में प्रणयन किया। ये ग्रन्थ कथा कोष के नाम से प्रख्यात हैं। उनमें से कुछ एक कथा कोषों का संक्षेप में परिचय देते हैं। १. बृहत्कथा कोष __इसके रचयिता हरिषेण हैं और रचना काठियावाड़ के वटमाण वर्धमानपुर में वि.सं. ९५५ में हुई थी। इसमें छोटी बड़ी मिलाकर १४७ कथायें हैं। ग्रन्थ परिमाण साढ़े बारह हजार श्लोक प्रमाण है। भाषा देखने से मालूम पड़ता है कि इसका कुछ अंश प्रात भाषा से भी अनूदित है। २. कथा कोष
इसमें चार आराधनाओं का फल पाने वाले धर्मात्मा पुरुषों की कथाएं दी गई हैं। भाषा सरल संस्कृत गद्य में है। बीच में संस्कृत प्राकृत के उद्धरण दिये गये हैं। ग्रन्थ दो भागों में है। पहले भाग में और दूसरे भाग में ३२ कथाएं हैं। इसके रचयिता आचार्य प्रभाचन्द हैं जिनका समय वि.सं. १०३७ तक माना जाता है। ये परमार नरेश भोज के उतराधिकारी जयसिंह देव के समकालीन थे और धारानगर वर्तमान धार में रहते थे। ३. कथा कोष प्रकरण
यह ग्रन्थ मूल और वृत्ति के रूप में है। मूल में केवल ३० गाथाएं हैं और गाथाओं में जिन कथाओं का उल्लेख हैं वे ही प्राकृत वृत्ति के रूप में विस्तार के साथ गद्य में लिखी गई हैं। मुख्य कथायें ३६ और अवान्तर कथायें ४-५ हैं। भाषा प्राकृत गद्य है। इसके रचयिता जिनेश्वरसूरि हैं और रचना वि. सं. ११०८ मार्गशीर्ष पंचमी रविवार को पूर्ण हुई। ४. कथानक कोष
यह प्राकृत ग्रन्थ है, इसमें २३९ गाथायें हैं। कथाकार ने इसमें आगम वाक्य तथा संस्कृत प्राकृत, और अपभ्रंश के कुछ पद्यों को उद्धृत किया है। यह ग्रन्थ ११वीं सदी के उतरार्द्ध में 'रचा गया और रचयिता वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वर सुरि हैं। ५. कथानक कोष
यह गद्य-पद्य मयी रचना जिसमें गद्य संस्त में और पद्य संस्कृत में और कहीं-कहीं प्राकृत में हैं। इसमें श्रावकों के दान, पूजा, शील, कषाय, दूषण, जुआ आदि पर २७ कथाओं का संग्रह है। प्रारम्भ में धनद की ओर अंत में नल की कथा है। इसकी रचना ११वीं सदी ईस्वी के अंतिम चतुर्थ में हुई है। ६. महारयण कोष (कथारत्न कोष),
इसमें ५० कथाएं हैं, दो भागों में विभाजित पहले भाग में ९ सम्यक्त्व पटल की तथा २४ सामान्य गुणों की कुल ३३ कथाएं हैं। दूसरे भाग में बारह व्रत, वंदन, प्रतिक्रमण आदि के
राजेन्द्र-ज्योति
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________________ 17 कथाएं हैं। यह कोश अधिकोष प्राकृत पद्यों में लिखित है कहीं-कहीं कुछ अंश में भी है। इसके रचयिता देवेन्द्र सूरि हैं और रचना वि. सं. 1958 में भरुकच्छ नगर भड़ौच में समाप्त के अनुसार कथाओं के वर्गीकरण करने का प्रयास किया है / साधारण जैन कथाओं को निम्नलिखित चार भागों में विभक्त किया जा सकता है 1. धर्म संबंधी कथाएं, 2. अर्थ संबंधी कथाएं, 3. काम संबंधी कथाएं, 4. मोक्ष संबंधी कथाएं / इस वर्गीकरण में जो काम और अर्थ संबंधी कथाओं का उल्लेख किया गया है उनमें लक्ष्य मोक्ष भावना प्रधान है / जैन कथाओं में विरक्ति, त्याग, तपस्या आदि धार्मिक कृत्यों को प्रमुखता दी गई है क्योंकि जैन कथाओं का लक्ष्य आध्यात्मिक विकास के साधनों और जैन धर्म प्रतिपादित आधार पर प्रचार करना है। पात्रों पर आधारित इस प्रकार हो सकता है-- 1. राजा-रानी संबंधी कथाएं, 5 2. राजकुमार-राजकुमारी संबंधी कथाएं, 3. आभिजात्य वर्ग की कथाएं, 4. पशु-पक्षी संबंधी कथाएं, 7. आख्यान मणिकोश यह 127 उपदेशप्रद कथाओं का संग्रह है, मूल कृति में प्राकृत की 52 गाथाएं हैं। मंगलाचरण आदि की दो गाथाओं को छोड़कर 50 गाथाओं में 127 कथाएं हैं। रचयिता आचार्य देवेन्द्रगणि हैं। रचना काल वि. सं. 1129 है। 8. कया महोदधि छोटी-बड़ी कुल मिलाकर 150 कथाएं हैं। इसे कर्पूर कथा महोदधि भी कहते हैं। रचयिता सोमचन्द्र गणि हैं और रचना काल वि. सं. 1504 है। 9. कथाकोष (भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति) मूल में 13 गाथाओं में प्राकृत भाषा की रचना है इसमें 100 धर्मात्मा गिनाये हैं जिनमें 53 पुरुष (पहला भरत और अंतिम मेघकुमार) और 47 स्त्रियां (पहली सुलसा और अंतिम रेणा) हैं। इसमें गद्य-पद्य मिश्रित कथायें दी गई हैं। यत्र-तत्र प्राकृत के भी उदाहरण हैं / टीका में सब कथाएं ही हैं इसलिये इसे कथाकोश भी कहा जाता है। इसके रचयिता शुभ शीलमणि हैं। रचना वि. सं. 1509 में हुई है। 10. कथाकोष इसे वृत्त कथाकोश भी कहते हैं इसमें व्रतों संबंधी कथाओं का संग्रह है। इसके रचयिता भट्टारक सकलकीर्ति हैं / ___ इन कथाकोशों के अतिरिक्त और कई आचार्यों ने कथा कोषों की रचना की है जिनमें पूर्व प्रचलित कथाओं के अतिरिक्त समकालीन विभिन्न कथाओं का संग्रह किया गया है। इसके अतिरिक्त प्रबंध पंचशती, दृष्टान्तशतकम् भी दृष्टव्य कथा ग्रन्थ है।धन्य कुमार चरित्रम्, जयानन्द केवली चरित्रम्, विक्रम चरित्रम्, समराइच्च कहा, सिरिसिरिवाल कहा, जम्बू चरित्र इत्यादि एक ही पात्र लेकर बहुत ही रोचक एवं सुन्दर वर्णन करके रचयिताओं ने पाठकों एवं श्रोताओं के मनोमंदिर में प्रवेश पाया है। यह कथाओं के लेखन की परम्परा 14 वी. सदी तक बराबर चलती रही। भाषाओं में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, देशी आदि हैं / पूर्वोक्त कथाकोष प्रायः दुर्व्यसन त्याग आदि उपदेश प्रधान है। इनके अतिरिक्त ऐतिहासिक, नीति संबंधी विविध प्रकार की कथाओं के संग्रह हैं। यदि विधिवत् ज्ञान भण्डारों के ग्रन्थों की सूची तैयार की जाये तो और दूसरे अनेक ग्रन्थों का पता लग सकता है। जैन कथाओं का वर्गीकरण ऊपर दिये कुछ एक कथाकोशों के संक्षिप्त इतिहास से यह स्पष्ट है कि जैन कथाओं का एक विशाल मंदिर है जिसे निश्चित रूपों में विभक्त करना सरल नहीं है फिर भी सिद्धांतों ने पात्रों और उद्देश्यों प्रकारान्तर से विषयानुसार जैन कथाओं का इस प्रकार भी वर्गीकरण हो सकता है१. व्रत 13. नीति 2. त्याग 14. परिषहजय 3. दान 15. व्यवसाय - 4. सप्त व्यसन त्याग 16. बुद्धि परीक्षण 5. बारह भावना 17. मात्रा आदि संबंधी 6. रत्नत्रय 18. धार्मिक 7. देशधर्म 19. एतिहासिक 8. मंत्र 20. सामाजिक 9. स्तोत्र 21. उपदेशात्मक 10. त्यौहार 22. मनोरंजनात्मक 11. चमत्कार 23. काल्पनिक 12. शास्त्रार्थ 24. प्रकीर्णक किन्तु इस वर्गीकरण को पूर्ण नहीं कहा जा सकता है, यह तो रूपरेखा मात्र है। ऊपर जैन कथा साहित्य के बारे में जो विचार अंकित किये गये हैं वे संकेत मात्र हैं और संकेत को भी संक्षिप्त करें तो कहेंगे कि "जैन कथाओं में जैन संस्कृति और सभ्यता विविध रूपों में मुखरित हुई है।" इन आख्यानों में मानव-जीवन के श्वेत और श्याम दोनों रूपों का दिग्दर्शन कराके आख्यान की परिसमाप्ति पर श्वेत रूप को ही प्रधानता देकर आदर्शवाद को स्थापित किया है। जैनेतर विद्वानों ने लोक भाषाओं को गौण मानकर संस्कृत भाषा को प्रधानता दी वहीं जैन विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं अन्य प्रान्तीय भाषा से कथा साहित्य का भण्डार परिपूर्ण किया है। इस प्रकार जैन कथाएं जैन संस्कृति का एक सुहावना गुलदस्ता उपस्थित करती हैं। बी.नि.सं. 2503 177 Jain Education Intemational