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महिलाओं को सम्माननीय स्थान प्राप्त था । बहुपनि प्रथा का भी प्रचलन था । कन्याएं विविध कलाओं का अध्ययन करती थी। वे अपनी इच्छानुसार जीवन साथी को चुनने के लिये स्वतंत्र थीं। वे कठिन परीक्षाओं में उत्तीर्ण पुरुष को अपना पति बनाना पसन्द करती थी। सम्पन्न व्यक्ति पुत्री के विवाह के समय दामाद को बहुत कुछ धन संपत्ति दिया करते थे। स्वयंबर प्रथा थी लेकिन वह माता-पिता, गुरुजनों की देखरेख और साक्षी में सम्पन्न होती थी।
इस प्रकार से ये कथाएं समसामयिक सभ्यता और समाज व्यवस्था का एक सुहावना चित्र उपस्थित करती हैं। जैन कथाओं का देशाटन
मनुष्य विविध देशों और दर्शनीय स्थानों को देखने या अर्थोपार्जन आदि के निमित्त देश-विदेश की यात्रा करता है, वहां के निवासियों से मिलता है, उनकी सुनता और कुछ अपनी कहता है । इस समय अपनी बोली, वेशभूषा, संस्कार के आदि के साथ कुछ न कुछ कंठस्थ साहित्य भी उसके पास होता है। उपदेशक तो परिभ्रमणशील होता है और उपदेशार्थ दूसरे प्रान्त में जाने पर उसके माध्यम से कंठस्थ साहित्य भी उन देशों की धरती के निवासियों का स्पर्श करता है और श्रोतागण सुनकर अपनी दृष्टि अपनी विचारधारा के अनुसार उसे अनुरंजित करते हैं । भारत के विभिन्न प्रान्तों और विदेशों में जो जैन कथायें पहुंची और वहां उनका स्वागत हुआ तो उसका कारण पूर्वोक्त है। ___ इसका परिणाम यह हुआ कि शनैः-शनैः कथाओं में परिवर्तन आया, पात्र नाम बदले और उस देश की सांस्कृतिक धारा ने उन्हें प्रभावित किया लेकिन मूल अभिप्राय में परिवर्तन नहीं आया, वह ज्यों का त्यों रहा। मेक्स मूलर, हेर्टल, आदि अनेक विद्वानों ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि भारतीय कथाओं का यह अटुट प्रहार अति प्राचीनकाल से पश्चिम की ओर प्रवाहित हो रहा है और वे वहां के वातावरण के अनुकूल हेरफेर सहित प्रचलित हुई हैं। सुप्रसिद्ध यूरोपीय विद्वान बी. सी. एच.टाने अपने ग्रन्थ "ट्रेझरी ऑफ स्टोरीज' की भूमिका में स्वीकार किया है कि जैनों के कथाकोषों में संग्रहित कथाओं व यूरोपीय कथाओं का अत्यन्त निकट का साम्य है। ___कथाओं के देशाटन का मूल कारण और उनके मूल रूप का अनुसंधान तभी लगाया जा सकता है जब उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जाये। अभी तो संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि कथाएं देश-विदेश में घूम कर वहां के निवासियों का मनोरंजन और ज्ञानवर्धन कर रही हैं। कर्तव्य कथाकोशों का परिचय
पूर्व में वह संकेत किया जा चका है कि जैनाचार्यों ने जन सामान्य में जैन धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिये कथाओं को माध्यम बनाया। आगमों में भी अनेक छोटी-बड़ी सभी प्रकार की कथाएं मिलती हैं, उनके बाद आगमों की नियुक्ति, भाष्य, चूणि एवं टीका ग्रन्थों में तो अपेक्षाकृत विक
सित कथा साहित्य के दर्शन होते हैं जिसमें अनेक धार्मिक, लौकिक, ऐतिहासिक आदि कई प्रकार की कथाएं संग्रहित हैं। ऐसी परम्पर) का अनुसरण करते हुए उत्तरवर्ती काल में जैनाचार्यों ने कथाओं के पृथक्-पृथक ग्रन्थों का बड़ी संख्या में प्रणयन किया। ये ग्रन्थ कथा कोष के नाम से प्रख्यात हैं। उनमें से कुछ एक कथा कोषों का संक्षेप में परिचय देते हैं। १. बृहत्कथा कोष __इसके रचयिता हरिषेण हैं और रचना काठियावाड़ के वटमाण वर्धमानपुर में वि.सं. ९५५ में हुई थी। इसमें छोटी बड़ी मिलाकर १४७ कथायें हैं। ग्रन्थ परिमाण साढ़े बारह हजार श्लोक प्रमाण है। भाषा देखने से मालूम पड़ता है कि इसका कुछ अंश प्रात भाषा से भी अनूदित है। २. कथा कोष
इसमें चार आराधनाओं का फल पाने वाले धर्मात्मा पुरुषों की कथाएं दी गई हैं। भाषा सरल संस्कृत गद्य में है। बीच में संस्कृत प्राकृत के उद्धरण दिये गये हैं। ग्रन्थ दो भागों में है। पहले भाग में और दूसरे भाग में ३२ कथाएं हैं। इसके रचयिता आचार्य प्रभाचन्द हैं जिनका समय वि.सं. १०३७ तक माना जाता है। ये परमार नरेश भोज के उतराधिकारी जयसिंह देव के समकालीन थे और धारानगर वर्तमान धार में रहते थे। ३. कथा कोष प्रकरण
यह ग्रन्थ मूल और वृत्ति के रूप में है। मूल में केवल ३० गाथाएं हैं और गाथाओं में जिन कथाओं का उल्लेख हैं वे ही प्राकृत वृत्ति के रूप में विस्तार के साथ गद्य में लिखी गई हैं। मुख्य कथायें ३६ और अवान्तर कथायें ४-५ हैं। भाषा प्राकृत गद्य है। इसके रचयिता जिनेश्वरसूरि हैं और रचना वि. सं. ११०८ मार्गशीर्ष पंचमी रविवार को पूर्ण हुई। ४. कथानक कोष
यह प्राकृत ग्रन्थ है, इसमें २३९ गाथायें हैं। कथाकार ने इसमें आगम वाक्य तथा संस्कृत प्राकृत, और अपभ्रंश के कुछ पद्यों को उद्धृत किया है। यह ग्रन्थ ११वीं सदी के उतरार्द्ध में 'रचा गया और रचयिता वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वर सुरि हैं। ५. कथानक कोष
यह गद्य-पद्य मयी रचना जिसमें गद्य संस्त में और पद्य संस्कृत में और कहीं-कहीं प्राकृत में हैं। इसमें श्रावकों के दान, पूजा, शील, कषाय, दूषण, जुआ आदि पर २७ कथाओं का संग्रह है। प्रारम्भ में धनद की ओर अंत में नल की कथा है। इसकी रचना ११वीं सदी ईस्वी के अंतिम चतुर्थ में हुई है। ६. महारयण कोष (कथारत्न कोष),
इसमें ५० कथाएं हैं, दो भागों में विभाजित पहले भाग में ९ सम्यक्त्व पटल की तथा २४ सामान्य गुणों की कुल ३३ कथाएं हैं। दूसरे भाग में बारह व्रत, वंदन, प्रतिक्रमण आदि के
राजेन्द्र-ज्योति
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