Book Title: Jain Karm Siddhanta Author(s): Shyamlal Pandaviya Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 4
________________ इस प्रकार जैन दार्शनिक यह मानते हैं कि यदि प्रवक्त होता है, तब कर्म रूपी रज ज्ञानवरणादि रूप से 'कर्म' भौतिक स्वरूप का है, तो 'कारण' भी भौतिक आत्म प्रदेशों में प्रविष्ट होकर स्थित हो जाता है । स्वरूप का होगा। अर्थात जैन धर्म यह मानता है कि- श्री अकलंक देव ने कर्म की सोदहारण व्याख्या करते चूंकि विश्व की सभी वस्तुएं सूक्ष्म स्कन्धों या पर- हुए कहा है कि --- "जिस प्रकार पात्र विशेष में रखे माणुओं से बनी हैं, अत: परमाणु ही वस्तु का कारण' गए अनेक रस वाले बीज, पुष्प तथा फलों का मदिरा हैं और चूंकि परमाणु भौतिक तत्व है, अत: वस्तुओं के रूप में परिणमन होता है, उसी प्रकार, क्रोध, मान, 'कारण' भी भौतिक तत्व हैं। इस सम्बन्ध में आलोचकों माया और लोभ रूपी कषायों तथा मन, वचन और की इस आपत्ति का कि "अनेकों क्रियाएँ, यदा-सुख, काय योग के निमित्त से आत्म प्रदेशों में स्थित पुदगल दुःख, पीड़ा आदि विशुद्ध रूप से मानसिक हैं, इसलिये परमाणुओं का कर्मरूप में परिणमन होता है।" उनके कारण भी मानसिक होने चाहिये, भौतिक नहीं।" इस प्रकार जैन दार्शनिकों ने कर्म की विषद एवं सूक्ष्म उत्तर देते हुए कहा है कि- ये अनुभव शारीरिक कारणों से सर्वथा स्वतन्त्र नहीं हैं, क्योंकि सुख, दुःख व्याख्या की है जो अन्य दर्शनों में की गई व्याख्याओं से नितान्त भिन्न है। जहां अन्य दर्शन परिणमनरूप भावाइत्यादि अनुभव, उदाहरणार्थ- भोजन आदि से सम्बन्धित होते हैं । अभौतिक सत्ता के साथ सूख आदि का त्मक पर्याय को कर्म न कहकर केवल परिस्पन्दन रूप कोई अनुभव नहीं होता, जैसे कि आकाश के साथ ।। क्रियात्मक पर्याय को ही कर्म कहते हैं, वहां जैन कर्म अतः यह माना गया है कि - इन अनुभवों के पीछे सिद्धान्त इन दोनों को ही कर्म कहता है । जैन दर्शन में कर्म की यह व्याख्या अत्यन्त व्यापक है। 'प्राकृतिक कारण' हैं, और यही कर्म है। इसी अर्थ में सभी मानवीय अनुभवों के लिये सुखद या दुःखद कर्म और आत्मातथा पसंद या नापसंद--कर्म जिम्मेवार हैं। लगभग सभी दर्शन, जो कर्म की धारणा पर विचार इसी कारण विभिन्न जैन दार्शनिकों ने जीव के करते हैं, कर्म को आत्मा से सम्बन्धित अवश्य मानते रागद्वेषादिक परिणामों के निमित्त से जो कामण वर्गणा हैं। जैन दार्शनिकों के अनुसार आत्मा अनादिकाल से रूप पुदगल-स्कन्ध जीव के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, कर्मबन्धन से युक्त है, कम बन्धन जन्म जन्मातर आत्मा को उन्हें कर्म कहा है। आचार्य कुन्द-कुन्द के अनुसार- बांधे रहते हैं, इस दृष्टि से आत्मा और कर्म का सम्बन्ध "जब रागद्वेष से युक्ता आत्मा अच्छे या बुरे कार्यों में अनादि है। परन्तु एक दृष्टि से वह सादि भी है; जिस 11. 'कर्म ग्रन्थ', 1.३ 12. जैन दर्शन की रूपरेखा, एस. गोपालन, वाईली इस्टर्न लि., पृ. १५१. 13. परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोस जुदो। तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहि ॥ -प्रवचन सार-१५ 14. यथा भोजन विशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीज पूष्पलतानां मदिराभाबेन परिमाणः तथा पुदगलानामपि आत्मनि स्थितानां योगकषायवशात् परिमाणो वेदितव्यः । --तत्वार्थबार्तिक पृ. २६४ १३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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