Book Title: Jain Karm Siddhanta
Author(s): Shyamlal Pandaviya
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्म सिद्धान्त श्यामलाल पाण्डवीय भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से ही आध्यात्मिकता के आधार मान कर ही अपने विचार प्रकट किये हैं। अधिक निकट रही है। समय-समय पर अनेकों दिव्य तीसरा अर्थ है-जीव के साथ बंधने वाले विशेष जाति एवं महान आत्माओं द्वारा विभूषित इस देश का इति- के स्कन्ध । यह अर्थ अप्रसिद्ध है, केवल जैन सिद्धान्त हास धर्म एवम् दर्शन से अत्याधिक प्रभावित रहा है। ही इसका विशेष प्रकार से निरूपण करता है। भारतीय दर्शन के विविध पक्षों के रूप में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग. मीमांसा, वेदान्त, जैन, बौद्ध तथा भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धान्तचार्वाक दर्शन में हमें मानव जीवन के प्रति विविध न्याय दर्शन के अनुसार मानव शरीर द्वारा मतों के दर्शन होते हैं। इनमें से चार्वाक को छोडकर सम्पन्न विविध कर्म; राग, द्वेष और मोह के वशीअन्य समस्त भारतीय दर्शनों ने परलोक, पुनर्जन्म, कर्म भूत होकर किये जाते हैं। अच्छा आचरण पुण्य प्रवृत्ति और मोक्ष की धारणा को ग्रहण किया है। ये सभी है, जो धर्म को उत्पन्न करती है। धर्म करने से पुण्य मानते हैं कि मानव जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल तथा अधर्म करने से पाप उत्पन्न होता है । धर्माधर्म को भोगता है। अदृष्ट भी कहते हैं। अदृष्ट कर्मफल के उत्पादन में शाब्दिक दृष्टि से कर्म के तीन अर्थ प्रमख हैं। कारण होता है। किन्तु अदृष्ट जड़ है और जड़ में पहला-कर्म कारक; कर्म का यह अर्थ जगत प्रसिद्ध फलोत्पादन शक्ति चेतन की प्रेरणा के बिना संभव नहीं है। दूसरा अर्थ है-क्रिया। इसके अनेक प्रकार हैं। है। अतः ईश्वर की प्रेरणा से ही अदृष्ट फल देने में सामान्यतः विविध दार्शनिकों ने कर्म के द्वितीय अर्थ को सफल होता है।। 1. जैन कर्म सिद्धान्त और भारतीय दर्शन, प्रो. उदयचन्द्र जैन, जैन सिद्धान्त भास्कर-किरण १, प्र. श्री देवेन्द्र कुमार जैन ओरियन्टल रिसर्च इन्सटीट्यूट, आरा । पृ. ३८ । १३५ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशेषिक दर्शन के अनुसार अयस्कान्त मणि की ओर सुई की स्वाभाविक गति, वृक्षों के भीतर रस का नीचे से ऊपर की ओर चढ़ना, अग्नि की लपटों का ऊपर की ओर उठना, वायु की तिरछी गति, मन तथा परमाणुओं की प्रथम परिस्पन्दात्मक क्रिया, ये सब कार्य अदृष्ट द्वारा होते हैं । " सांख्य दर्शन के मत में क्लेश रूपी सलिल से सिक्ता भूमि में कर्म बीज के अंकुर उत्पन्न होते हैं, परन्तु तत्वज्ञान रूपी ग्रीष्म के कारण क्लेश जल के सूख जाने पर ऊसर जमीन में क्या कभी कर्म-बीज उत्पन्न हो सकते हैं । योग दर्शन के अनुसार पातञ्जल योगसूत्र में क्लेश का मूल कर्माशय वासना को बतलाया है ।" यह कर्माशय इस लोक और परलोक में अनुभव में आता है। मीमांसा दर्शन के अनुसार प्रत्येक कर्म में अपूर्व (अदृष्ट) को उत्पन्न करने की शक्ति रहती है । कर्म अपूर्व उत्पन्न होता है, और अपूर्व से फल उत्पन्न होता है । अत: अपूर्व, कर्म तथा फल के बीच की अवस्था का 2. 3. 4. 5. 6 7. द्योतक है। शंकराचार्य ने इसीलिये अपूर्व को कर्म की सूक्ष्मा उत्तरावस्था या फल की पूर्वावस्था माना है । " वेदान्त दर्शन के अनुसार कर्म से वासना उत्पन्न होती है और वासना से संसार का उदय होता है। विज्ञान दीपिका में यह बतलाया गया है, कि जिस प्रकार घर में तथा क्षेत्र में स्थित अन्न का विनाश विविध रूप से किया जा सकता है, किन्तु मुक्त अन्न का विनाश पाचन द्वारा ही होता है, परन्तु प्रारव्य कर्म का क्षय भोग के द्वारा ही होता है । " बौद्ध धर्म में भी, जो कि अनात्मवादी है कर्मों की विभिन्नता को ही प्राणियों में व्याप्त विविधता का कारण माना है। अंगुत्तर निकाय में सम्राट मिलिन्द के प्रश्नों के उत्तर में भिक्षु नागसेन कहते है- "राजन ! कर्मों के नानात्व के कारण सभी मनुष्य समान नहीं होते । भगवान ने भी कहा है कि मानवों का सद्भाव कर्मों के अनुसार है । सभी प्राणी कर्मों के उत्तराधिकारी हैं। कर्मों के अनुसार ही योनियों में जाते हैं। अपना कर्म ही बन्धु है, आश्रय है और वह जीव का उच्च और नीच रूप मे विभाग करता है । . मणिगमनं सुचभिसर्पण मित्य दृष्ट कारणम् । - वं. नू. ५।१:१५ वृक्षाभिसर्पणमित्यष्टकारणम् । वं. सू. ५०२७ क्लेशसलिलावसिक्तायां हि बुद्धि भूमौ कर्मबीजान्यकुरं प्रसुवते । तत्वज्ञान निदाघणीत सकल क्लेश सलिलायां ऊपरायां कुतः कर्मवीजानामंकुर प्रसन - तत्व को मुदी सांख्य का० ६७ क्लेशमूलः कर्माशयः दृष्टाष्टवेदनीयः । योग सूत्र २।१२ नवाप्यनुत्पाद्य किमपि अपूर्व कर्म विनश्यत् कालान्तरितं फलं दातुं शक्नोति । अतः कर्मणो वा सूक्ष्मा काचिदुत्तरावस्था फलस्य वा पूर्वावस्था अपूर्वनाभास्तीति तते । -शा. भा. ३।२।४० जैन कर्म सिद्धान्त और भारतीय दर्शन; पूर्वाक्ति, पृ. ४० "महाराज कम्मानं नानाकरणेन मनुस्सा न सच्चे समका । भासितं एवं महाराज भगवता कम्मस्स कारणेन माणवसत्ता, कम्मदायादा कम्मयोनी, कम्मबन्धु कम्मपरिसरणा कम्मं सत्ते विभजति यदिद हीनप्पणीततायीति ।" - अंगुत्तर निकाय १३६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __यही नहीं भारत के लगभग सभी प्रमुख धार्मिक 'कर्म' का अर्थ - ग्रंथों में कर्म सिद्धान्त की महत्ता तथा प्रकृति का यथा मौलिक अर्थ की दृष्टि से तो कर्म का अर्थ बास्तव संभव उल्लेख मिलता है। गीता का मान्य सिद्धान्त है में क्रिया से ही सम्बन्धित है। मन, वचन एवं काय के कि-प्राणी को कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये, द्वारा जीव जो कुछ करता है, वह सब क्रिया या कर्म किन्तु कर्म के फल का त्याग करना चाहिये । प्राणी का है। मन, वचन और काय ये तीन उसके माध्यम हैं। अधिकार कर्म करने में ही है, फल में नहीं। महाभारत इसे जीव कर्म या भाव कर्म कहते हैं, यहां तक कर्म की में भी आत्मा को बांधने वाली शक्ति को कर्म कहा धारणा सभी को स्वीकार है । यह धारणा केवल संसारी है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरित मानस में जीवों की क्रिया पर ही विचार करती है, अर्थात केवल कर्म को प्रधान कहा है चेतन की क्रियाएं ही इसकी विषय वस्तु हैं, जड़ की कर्म प्रधान विश्व करि राखा। क्रियाओं अथवा जड़ एवं चेतन की क्रियाओं में सम्बन्धों जो जस करहि सो तस फल चाखा ।। पर अन्य धारणाओं में विचार नहीं किया जाता, जैन दर्शन इन दोनों के सम्बन्ध में भी गम्भीरता पूर्वक इस प्रकार भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धान्त को विचार करता है। इस कारण उसमें कर्म की व्याख्या प्रमुखता दी गई है। लगभग सभी दार्शनिकों ने कर्म अधिक व्यापक एवं विस्तृत है। जैन दार्शनिक कर्म सिद्धान्त के विषय में अपने-अपने दृष्टिकोण से विचार शब्द की भौतिक व्याख्या करते हैं। प्रकट कर इसे जीवन-दर्शन का प्रमुख आधार माना है। परिभाषा एवं व्याख्याजैन कर्म दर्शन श्री क्षु. जिनेन्द्र वर्णी के अनुसार- "भावकर्म से कर्म सिद्धान्त का जितना सविस्तार प्रभावित होकर कुछ सुक्ष्म जड़ पुदगल स्कन्ध जीव के विवेचन किया गया है, वह अन्य दर्शनों में कर्म सिद्धान्त प्रदेशों में प्रवेश पाते हैं और उसके साथ बंधते हैं, यह के विवेचन से कई गुना है । जैन बाङ्मय में इस संबंध बात केवल जैनागम ही बताता है। यह सूक्ष्म स्कन्ध में विपुल साहित्य भण्डार उपलब्ध है। प्राकृत भाषा अजीव कर्म या दव्य कर्म कहलाते हैं और रूप रसादि का जैन ग्रंथ "महाबन्ध", कर्म सिद्धान्त पर विश्व का धारक मूर्तीक होते हैं । जैसे कर्म, जीव करता है, वैसे सबसे वृहद ग्रंथ है, जिसमें चालीस हजार श्लोक हैं। ही स्वभाव को लेकर द्रव्य कर्म उसके साथ बंधते हैं इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम, गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड, और कुछ काल पश्चात परिपक्व दशा को प्राप्त होकर लब्धिसार तथा क्षपणासार आदि कर्म सिद्धान्त विषयक उदय में आते हैं। उस समय इनके प्रभाव से जीव के वृहद ग्रंथ हैं । इस प्रकार जैन दर्शन में कर्म दर्शन को ज्ञानादि गण तिरोभूत हो जाते हैं। यही उनका फलविशेष महत्व दिया गया है, तथा उसकी सक्ष्म विवेचना दान कहा जाता है। सूक्ष्मता के कारण वे दृष्ट नहीं की गई है। 8. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।। मा कर्मफलहेतुर्भू: मा ते संगोऽस्तवकर्मणि ||--भगवद्गीता २१४७ "कर्मणा बध्यते जन्तुविद्ययातु विमुच्यते", महाभारत--शान्तिपर्व (२४०-७) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भा. १,-जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ. २५ १३७ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार जैन दार्शनिक यह मानते हैं कि यदि प्रवक्त होता है, तब कर्म रूपी रज ज्ञानवरणादि रूप से 'कर्म' भौतिक स्वरूप का है, तो 'कारण' भी भौतिक आत्म प्रदेशों में प्रविष्ट होकर स्थित हो जाता है । स्वरूप का होगा। अर्थात जैन धर्म यह मानता है कि- श्री अकलंक देव ने कर्म की सोदहारण व्याख्या करते चूंकि विश्व की सभी वस्तुएं सूक्ष्म स्कन्धों या पर- हुए कहा है कि --- "जिस प्रकार पात्र विशेष में रखे माणुओं से बनी हैं, अत: परमाणु ही वस्तु का कारण' गए अनेक रस वाले बीज, पुष्प तथा फलों का मदिरा हैं और चूंकि परमाणु भौतिक तत्व है, अत: वस्तुओं के रूप में परिणमन होता है, उसी प्रकार, क्रोध, मान, 'कारण' भी भौतिक तत्व हैं। इस सम्बन्ध में आलोचकों माया और लोभ रूपी कषायों तथा मन, वचन और की इस आपत्ति का कि "अनेकों क्रियाएँ, यदा-सुख, काय योग के निमित्त से आत्म प्रदेशों में स्थित पुदगल दुःख, पीड़ा आदि विशुद्ध रूप से मानसिक हैं, इसलिये परमाणुओं का कर्मरूप में परिणमन होता है।" उनके कारण भी मानसिक होने चाहिये, भौतिक नहीं।" इस प्रकार जैन दार्शनिकों ने कर्म की विषद एवं सूक्ष्म उत्तर देते हुए कहा है कि- ये अनुभव शारीरिक कारणों से सर्वथा स्वतन्त्र नहीं हैं, क्योंकि सुख, दुःख व्याख्या की है जो अन्य दर्शनों में की गई व्याख्याओं से नितान्त भिन्न है। जहां अन्य दर्शन परिणमनरूप भावाइत्यादि अनुभव, उदाहरणार्थ- भोजन आदि से सम्बन्धित होते हैं । अभौतिक सत्ता के साथ सूख आदि का त्मक पर्याय को कर्म न कहकर केवल परिस्पन्दन रूप कोई अनुभव नहीं होता, जैसे कि आकाश के साथ ।। क्रियात्मक पर्याय को ही कर्म कहते हैं, वहां जैन कर्म अतः यह माना गया है कि - इन अनुभवों के पीछे सिद्धान्त इन दोनों को ही कर्म कहता है । जैन दर्शन में कर्म की यह व्याख्या अत्यन्त व्यापक है। 'प्राकृतिक कारण' हैं, और यही कर्म है। इसी अर्थ में सभी मानवीय अनुभवों के लिये सुखद या दुःखद कर्म और आत्मातथा पसंद या नापसंद--कर्म जिम्मेवार हैं। लगभग सभी दर्शन, जो कर्म की धारणा पर विचार इसी कारण विभिन्न जैन दार्शनिकों ने जीव के करते हैं, कर्म को आत्मा से सम्बन्धित अवश्य मानते रागद्वेषादिक परिणामों के निमित्त से जो कामण वर्गणा हैं। जैन दार्शनिकों के अनुसार आत्मा अनादिकाल से रूप पुदगल-स्कन्ध जीव के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, कर्मबन्धन से युक्त है, कम बन्धन जन्म जन्मातर आत्मा को उन्हें कर्म कहा है। आचार्य कुन्द-कुन्द के अनुसार- बांधे रहते हैं, इस दृष्टि से आत्मा और कर्म का सम्बन्ध "जब रागद्वेष से युक्ता आत्मा अच्छे या बुरे कार्यों में अनादि है। परन्तु एक दृष्टि से वह सादि भी है; जिस 11. 'कर्म ग्रन्थ', 1.३ 12. जैन दर्शन की रूपरेखा, एस. गोपालन, वाईली इस्टर्न लि., पृ. १५१. 13. परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोस जुदो। तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहि ॥ -प्रवचन सार-१५ 14. यथा भोजन विशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीज पूष्पलतानां मदिराभाबेन परिमाणः तथा पुदगलानामपि आत्मनि स्थितानां योगकषायवशात् परिमाणो वेदितव्यः । --तत्वार्थबार्तिक पृ. २६४ १३८ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार वृक्ष और बीज का सम्बन्ध सन्तति की दृष्टि से मुक्ति पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार अनादि है, और पर्याय की अपेक्षा से वह सादि है. इसी जैन दर्शन में मोक्ष की धारणा का विकास, कर्म दर्शन प्रकार कर्मबन्धन सन्तान या उत्पत्ति की दृष्टि से अनादि के विकास पर ही आधारित है। और पर्याय की दृष्टि से सादि है। जैन दर्शन में कर्म ___ कर्म के भेद --- और आत्मा के सम्बन्ध में इस व्याख्या के कारण ही आगे चलकर उसे वैज्ञानिक रूप दिया है जिस कारण जैन दार्शनिकों ने कर्म की वृहद व्याख्या करते हुए वह अन्य दर्शनों से अलग है। जैन दर्शन कर्मबन्धन को कहा है कि--कर्म मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, योग, अनादि और पर्याय की दृष्टि से सादि मानकर ही आगे मोड तथा क्रोधादि कषाय ये भाव जीव और अजीव के यह और व्याख्या करता है, कि--पर्याय की दृष्टि से मेद से दो-दो प्रकार के हैं। इस प्रकार कर्म को दो सादि होने के कारण पूर्व के कर्मबन्धनों को तोड़ा भी आधारों भौतिक तथा मानसिक के आधार पर दो भेद जा सकता है। कोई भी सम्बन्ध अनादि होने से अनन्त किये गए हैं--'द्रव्य कर्म' एवं 'भाव कर्म'। द्रव्य कर्म नहीं हो ज ते, विरोधी कारणों का समागत होने पर का अर्थ है जहां द्रव्य का आत्मा में प्रवेश हो गया हो अनादि सम्बन्ध टूट भी जाते है, जिस प्रकार बीज और अर्थात जहां रागद्वेषादि रूप भावों का निमित्त पाकर वृक्ष का सम्बन्ध अनादि होते हुए भी, पर्याय विशेष में जो कार्मण बर्गणारूप पुदगल परमाणु आत्मा के साथ सादि होता है, और पर्याय विशेष में किसी बीज विशेष बंध जाते हैं उन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं । यह पौदगलिक हैं, के जल जाने पर, अर्थात विरोधी कारणों के समागम और इनके और भी भेद किये गए हैं। के कारण उसमें अंकुर उत्पन्न नहीं होता। इस विषय में आचार्य अकलंक देव तत्वार्थराज वातिक (२/७) में भाव कर्म, आत्मा के चैतन्य परिणामात्मक हैं। ऐसा ही दृष्टांत देकर समझाया गया है कि जिस प्रकार इनमें इच्छा तथा अनिच्छा जैसी मानसिक क्रियाओं का बीज के जल जाने पर अंकुर नहीं उत्पन्न होता, उसी समावेश होता है। अर्थात ज्ञानरणादिरूप द्रव्य कर्म के प्रकार कर्मबीज़ के भस्म हो जाने पर भवांकुर उत्पन्न निमित्त से होने वाले जीव के राग द्वेषादि रूप भावों नहीं होता। को भावकम कहते हैं। यही कारण है कि, जैन दार्शनिकों ने आत्मा के द्रव्य कम और भाव कर्म की पारस्परिक कार्यस्वभाव की सकारात्मक व्याख्या करते हुए उसे विशुद्ध कारण परम्परा अनादिकाल से चली आरही है। इन एवं अमीम क्षमताओं वाली कहा है। उनके अनुसार दोनों में नैतिक सम्बन्ध है। भावक्रम का निमित्त कर्म के दुष्ट प्रनाव के कारण वह अपने को सीमित द्रव्यकर्म है और द्रव्य कर्म का निमित्त भाबकर्म है। अनुभव करती है। कर्म के इस दुष्ट प्रभाव से आत्मा राग द्वषादिरूप भावों का निमित्त पाकर द्रव्यकर्म आत्मा को मुक्त करा पाने पर ही सदकर्मों की उत्पत्ति होती से बंधता है और द्रव्यकर्म के निमित्त से आत्मा में राग है, सदकर्मों से कर्मबन्ध टूटते हैं और कर्मबन्धों से पूर्ण द्वेषादि मावों की उत्पत्ति होती है । 15. मिच्छत्त पुण दुवह जीबमजोब तहेव अण्णाण । अविरदि जोगो मोहो कोहादिया इमे भावा । समयसार । मूल । ८७ । प्र.-अहिंसा मन्दिर प्रकाशन, देहली 16. जैन कर्म सिद्धान्त और भारतीय दर्शन, पूर्वाक्त, पृ. 47 १३६ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्ध-- और दुःख में असमर्थ है। यह जीव ईश्वर की प्रेरणा जैन दर्शन के अनुसार दोनों ही प्रकार के कर्मों से से स्वर्ग में या नरक में जाता है। जैन दर्शन के अनुउत्पन्न कर्माण विभिन्न कालावधियों के लिये मनुष्य को सार कर्म स्वयं अपना फल देते हैं, किसी के माध्यम से बांधकर रखते हैं। इस प्रकार कर्मबन्ध कर्म और आत्मा नहीं। इसी कारण कहा है कि उस कम से उत्पन्न किया के सम्बन्ध के परिणामस्वरूप उतान्न अवस्था है। यह जाने वाला सुख दुःख कर्मफल है 120 यह कर्मफल कर्म अवस्था कषाय एवं योग के कारण उत्पन्न होती है। की प्रकृति से प्रभावित होता है। जैन दर्शन के अनुसार आचार्य गृद्धपिच्छ ने कहा है कि7-- "जीव कषाय शुभ एव अशुभ भावों से किये गए कर्मों में जीव पर सहित होने के कारण कर्म के योग्य पुदगलों को ग्रहण अच्छा और बुरा प्रभाव डालने की शक्ति होती है, अतः करता हैं / इसी का नाम बन्ध है / शुद्ध आत्मा में कर्म इन भावों का प्रभाव कर्म परमाणुओं पर भी होता है, का बन्ध नहीं होता है, किन्तु कषायवान आत्मा ही और इसी के अनुसार वे कर्म अपने उदय के अवसर पर कर्म का वन्ध करता है। आचार्य जिन सेनाचार्य ने भी सदनुरूप सुख और दुःख प्रदान करते हैं। कर्मबन्ध की लगभग ऐसी ही व्याख्या करते हुए कहा इस प्रकार जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त की अत्यन्त है कि--"यह अज्ञानी जीव इष्ट और अनिष्ट संकल्प सक्ष्म एवं विषद तथा वैज्ञानिक विवेचना की गई है जो द्वारा वस्तु में प्रिय और अप्रिय की कल्पना करता है, यह बतलाती है कि मनुष्य स्वयं अपने कर्म का सष्टा इससे रागद्वेष उत्पन्न होता है और इस रागद्वेष से एवं भाग्य विधाता है। ईश्वर या अन्य कोई शक्ति न कर्म का बन्ध होता है, इस प्रकार रागद्वेष के निमित्त तो उसके कर्म को निर्धारित करती है. न ही उसके फल से संसार का चक्र चलता रहना है / 18 को। यही नहीं ईश्वरीय या अन्य कोई ऐसी शक्ति इस प्रकार रागद्वेष रूप भावकर्म का निमित्त उसे बरे कर्मों के उदय या फल भोगने से मुक्त भी पाकर द्वव्यकर्म आत्मा से बंधता है और द्रव्यकर्म के नहीं करा सकती। कर्मों से मुक्ति के लिये कर्ता द्वारा निमित्त से आत्मा में रागद ष रूपी भाव कम उत्पन्न स्वयं कर्मक्षय करना आवश्यक है। कर्मक्षय से कोई भी हाता ह। इन कमा स उत्पन्न परमाणु प्रत्यक समय जीव शुद्ध अवस्था अर्थात मूक्ति या मोक्ष को प्राप्त कर बंधते रहने से अनन्तानन्त होते हैं। यह बन्ध केवल सकता है। इसी कारण स्वामी कार्तिकेय ने कहा है कि जीवप्रदेश के क्षेत्रवर्ती कर्म परमाणुओं का होता है, न तो कोई लक्ष्मी देता है, और न कोई इसका उपकार बाहर के क्षेत्र में स्थित कर्म परमाणुओं का नहीं। करता है। शभ और अशभ कर्म ही जीव का उपकार आत्म प्रदेशों में होने वाला यह कर्मबन्ध प्रति समय होता है। यह सम्भव नहीं है कि किसी समय किन्हीं णय को बि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणई उवयार आत्म प्रदेशों के साथ बन्ध हो और किसी समय अन्थ उवयारं अवयारं कम्म पि सुहासुहं कूणदि // आत्मप्रदेशों के साथ / ---स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा 318 कर्मफल-ईश्वरवादी दर्शन ईश्वर को कर्म का फलदाता मानते हैं। उनके अनुसार यह अज्ञ प्राणी अपने सुख 17. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुदगलानादत्ते स बन्धः / -तत्वार्थसूत्र 82 18. संकल्पवशो मूढः बस्त्विष्टा निष्टतां नयेत, रागद्वेर्षों ततस्ताभ्यां बन्धं दुर्मोचमश्नुते // महापुराण 24 // 21 19. अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख दुःखयोः / ईश्वर प्रेरितो गच्छेत स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा // --महाभारत, वन पर्व 30128 20. तस्य कर्मणो यन्निष्पाद्य सुख दुःख तत्कर्म फलम / प्रवचनसार/त. प्र./१२४. 19. अशापरतो गच्छेत स्वर्ग वा तत्कर्म फलम / 140