Book Title: Jain Karm Sahitya ka Sankshipta Vivran Author(s): Agarchand Nahta Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 4
________________ 228 ] [ कर्म सिद्धान्त जयतिलक सूरि ने संस्कृत में 4 कर्म ग्रन्थ 566 श्लोकों में लिखे हैं और भी छोटे-मोटे प्रकरण बहुत से रचे गये हैं जिनमें से १८वीं शताब्दी के श्रीमद् देवचन्दजी रचित कर्म ग्रन्थ सम्बन्धी ग्रन्थों के सम्बन्ध में मेरा लेख 'श्रमण' में प्रकाशित हो चुका है। दिगम्बर ग्रन्थों में षटखण्डागम, कषाय पाहुड़, महाबंध, पंच संग्रह, गोम्मटसार, लब्धिसार और क्षपणासार, त्रिभंगीसार आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं / पंच संग्रह तीन कर्ताओं के रचित अलग-अलग प्राप्त हैं / इस सम्बन्ध में पं० कैलाशचन्दजी ने 'जैन साहित्य के इतिहास' आदि में काफी विस्तार से प्रकाश डाला है। वर्तमान शताब्दी में श्वेताम्बर प्राचार्यों में सर्वाधिक उल्लेखनीय स्व. विजय प्रेमसूरि कर्म सिद्धान्त के मर्मज्ञ माने जाते रहे हैं / उन्होंने संक्रम प्रकरण एवं मार्गणाद्वार आदि ग्रन्थों की रचना की। उनके प्रयत्न व प्रेरणा से उनके समुदाय में कर्म शास्त्र के विशेषज्ञ रूप में उनकी पूरी शिष्य मण्डली तैयार हो गयी है / जिन्होंने प्राकृत, संस्कृत में करीब दो लाख श्लोक परिमित खवगसेढ़ी, ठईबंधो, रसबंधो, पयेशबंधो, पयडीबंधो, आदि महान ग्रन्थों की रचना की है। ये सभी ग्रन्थ और कुछ प्राचीन कर्म साहित्य सम्बन्धी ग्रन्थ श्री भारतीय प्राच्य तत्त्व प्रकाशन समिति, पिण्डवाड़ा, राजस्थान से प्रकाशित हैं / इसी के लिए स्वतन्त्र ज्ञानोदय प्रिंटिंग प्रेस चालू करके बहुत से ग्रन्थों का प्रकाशन करवा दिया है। इस शताब्दी में तो इतना बड़ा काम पूज्य विजय प्रेम सूरि के शिष्य मण्डल द्वारा सम्पादन हुआ है, यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है / करीब 15 मुनि तो कई वर्षों से इसी काम में लगे हुए हैं। प्राप्त समस्त श्वेताम्बर व दिगम्बर कर्म साहित्य का मनन्, पाठन, मन्थन करके उन्होंने नये कर्म साहित्य का सृजन लाखों श्लोक परिमित किया है और उसे प्रकाशित भी करवा दिया है / स्वतन्त्र रूप से हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी में भी छोटी-बड़ी अनेक पुस्तिकाएँ कई मुनियों एवं विद्वानों की प्रकाशित हो चुकी है / कुछ शोध कार्य भी हुआ है पर अभी बहुत कुछ कार्य होना शेष है। इस में तो बहुत ही संक्षेप में विवरण दिया है / वास्तव में इस सम्बन्ध में स्वतन्त्र वृहद् ग्रन्थ लिखे जाने की आवश्यकता है। सवया ज्ञान घटे नर मूढ़ की संगत, ध्यान घटे चित्त को भरमायां / सोच घटे कछु साधु की संगत, रोग घटे कछु औषध खायां / / रूप घटे पर नारी की संगत, बुद्धि घटे बहु भोजन खायां / 'गंग' भणे सुणो शाह अकबर, कर्म घटे प्रभु के गुण गायां / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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