Book Title: Jain Karm Sahitya ka Sankshipta Vivran
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ जैन कर्म साहित्य का संक्षिप्त विवरग ] [ २२७ (६) पंचसंग्रह प्रकरण : इसे चन्द्रषि महत्तर ने पांच ग्रन्थों के संग्रह रूप ६९३ गाथा में रचा है। इस ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी मानी जाती है। दूसरी वृत्ति मलयगिरि की है। इसके उपरान्त दीपक नाम की वृत्ति २५०० श्लोक परिमित है । मलयगिरि की टीका व मूल का गुजराती सानुवाद व संस्कृत छाया पं० हीरालाल देवचन्द ने प्रकाशित की है। (७) प्राचोन चार कर्म ग्रन्थ : (१) कर्म विपाक गर्ग ऋषि कृत-मूल गाथा १६८ । उसके ऊपर अज्ञात रचित भाष्य, परमानन्द सूरिकृत ६६० श्लोक परिमित संस्कृत वृत्ति, हरिभद्र सूरि रचित वृत्तिका, मलयगिरि कृत टीका, अज्ञात रचित व्याख्या व टीका, उदय प्रभ सूरि कृत टिप्पण प्राप्त हैं। (२) कर्म स्तव-मल गाथा ५७, गोविन्द गणिकृत, १०६० श्लोक परिमित टीका, हरि भद्र कृत टीका, अज्ञात रचित भाष्य द्वय, महेन्द्र सूरि कृत भाष्य, उदय प्रभ सूरि कृत २६२ श्लोकों का टिप्पण, कमल संयम उपाध्याय कृत संस्कृत विवरण, अज्ञात रचित चूर्णी या अवचूर्णी । (३) बंध स्वामित्व-मूल गाथा ५४, अज्ञात कृतृक टिप्पण और टीका, हरिभद्र सूरिकृत ५६० श्लोक परिमित्त टीका प्राचीन टिप्पणक पर आधारित है। (४) षडशीति-जिनवल्लभ गणि कृत, भाष्य द्वय, हरिभद्र सूरि कृत ८५० श्लोक परिमित टीका । मलयगिरि कृत २१४० श्लोक परिमित वृत्ति, यशोभद्र सूरि कृत वृत्ति, मेरु वाचक कृत विवरण, अज्ञात रचित टीका और अवचूरी, १६०० श्लोक परिमित उद्धार । प्राचीन ६ कर्म ग्रन्थ माने जाते हैं, उनमें पाँचवाँ बंध शतक और छठा सप्ततिका माना जाता है। (८) पाँच नव्य कर्मग्रन्थ-देवेन्द्र सूरि कृत : इन पर स्वोपज्ञ टीका, अन्य कइयों के विवरण, बालावबोध आदि प्राप्त हैं। सबसे अधिक प्रचार इन्हीं कर्मग्रन्थों का रहा । हिन्दी में चार ग्रन्थों का अनुवाद पं० सुखलालजी ने और पाँचवें का पं० कैलाशचन्दजी ने किया है। गुजराती में भी इनके कई बालावबोध व विवेचन छप चुके हैं। जिनवल्लभ सूरि कृत सूक्ष्मार्थ विचारत्व अथवा सार्ध शतक भी काफी प्रसिद्ध रहा है । इस पर उनके शिष्य रामदेव गणि कृत टीका तथा अन्य कई टीकाएँ प्राप्त हैं । जिनका उल्लेख 'वल्लभ भारती' आदि में किया गया है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4