Book Title: Jain Jatiyo ka Udbhav evam Vikas Author(s): Kailashchandra Jain Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 2
________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड जैनियों में जैसवाल जाति की उत्पत्ति बारहवीं शताब्दी के पश्चात् हुई जब जैसलमेर की स्थापना हो गई थी। चौदहवीं तथा पन्द्रहवी शताब्दी में चित्तौड़ा तथा नागदा जातियों के श्रावकों ने अनेक प्रतिमाओं तथा मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई। कुछ जातियाँ ऐसी हैं जो मूल में क्षत्रिय थीं किन्तु कालान्तर में जैन धर्म को स्वीकार करके वणिक जातियों में घुल-मिल गई / जालोर दुर्ग के सुवर्णगिरि पहाड़ के नाम पर सोनीगरा चौहान जैनधर्म को अपनाने पर सोनी कहलाये / जब हथुडिया राठोड़ जैनधर्म में में परिवर्तित हो गए तो वे हथुडिया श्रावक कहे जाने लगे। अनुश्रुतियों के अनुसार अग्रवाल जाति की स्थापना बहुत प्राचीन समय में अग्रसेन ने की और इसकी उत्पत्ति पंजाब में अग्रोहा नामक स्थान से हुई। आठवीं शताब्दी के पूर्व इस जाति के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं मिलता। कालान्तर में ये लोग राजस्थान में आकर बस गये तथा समय-समय पर प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा तथा ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवाई। हुंबड़ जाति की उत्पत्ति के स्थान का पता नहीं लग रहा है। बहुत सम्भव है कि अन्य जातियों के समान इसकी भी उत्पत्ति किसी विशेष स्थान से हुई हो। राजस्थान में वागड़ प्रदेश के डूंगरपुर, बाँसवाड़ा और प्रतापगढ़ में इस जाति के लोग पाये जाते हैं। अन्य जातियों के समान इस जाति की स्थापना भी आठवीं सदी के पश्चात् हुई थी। इन लोगों ने भी अनेक मन्दिरों और मूतियों की प्रतिष्ठा की। झालारापाटन का प्रसिद्ध शांतिनाथ का जैन मन्दिर इस जाति के साह पीपा ने 1046 ई० बनवाया था।' धर्कट जाति की उत्पत्ति राजस्थान में हुई ज्ञात होती है, किन्तु अभी इसके लोग दक्षिण में पाये जाते हैं। हरिषेण के 'सिरिजपुरिय ठक्कड़कुल' कथन से नाथुराम प्रेमी का कहना है कि इसकी उत्पत्ति सम्भवतः टोंक जिले के सिरोंज नामक स्थान से हुई / अगरचन्द नाहटा की मान्यता है कि इसकी उत्पत्ति धकड़गढ़ से हुई जिससे ही महेश्वरी जाति की धकड़ शाखा निकली। दो प्रशस्तियों के प्रमाण पर वह इस स्थान को श्रीमाल के पास बतलाते हैं। श्रीमोढ़ जाति की उत्पत्ति गुजरात के अणहिलवाड़ के दक्षिण में स्थित प्राचीन स्थान मोढेरा से हुई है। प्रसिद्ध विद्वान् हेमचन्द्रसूरि का जन्म इसी जाति में हुआ है। इस जाति से सम्बन्धित अभिलेख बारहवीं सदी से मिलते हैं / अनेक जैन श्रावक तथा ब्राह्मण इसी जाति से अपने को पुकारते हैं जिसकी उत्पत्ति इस प्राचीन स्थान से हुई है। 1. अनेकान्त, 13, पृ० 125 . 3. अनेकान्त, 4, पृ० 617 2. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० 468 4. जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, 52 और 63 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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