Book Title: Jain Jatiyo ka Udbhav evam Vikas
Author(s): Kailashchandra Jain
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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________________ ............ ........ .......... ........ .. .... -.-.-.-. -. -.-. -.-.-.-.-.-. जन जातियों का उनुभव एवं विकास 0 डॉ० कैलाशचन्द्र जैन आचार्य व अध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति व पुरातत्व विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन, (म० प्र०) जन जातियों का उद्भव एवं विकास बहुत रहस्यमय बना हुआ है। अनुश्रुतियों के अनुसार ये जातियाँ बहुत प्राचीन हैं, किन्तु सातवीं सदी के पहले इनके होने का अस्तित्व नहीं मिलता। ऐतिहासिक दृष्टि से इन जातियों की स्थापना आठवीं एवं तेरहवीं शताब्दी मध्य हुई थी। ऐसा पता चलता है कि करीब आठवीं शताब्दी में जैन साधु रत्नप्रभसूरि ओसिया, श्रीमाल और पाली गए, जहाँ लोगों को जैन धर्मावलम्बी बनाया तथा इन स्थानों के नाम पर क्रमश: ओसवाल, श्रीमाल एवं पालीवाल जातियों की स्थापना की। परिवर्तन के पश्चात् ओसवालों की संख्या लगातार बढ़ती गई और इन्होंने अनेक गोत्र भी बना f-...ति श्रीपाल एक ग्रन्थ का हवाला देता है, जिसमें इस जाति के ६०६ गोत्रों का उल्लेख है।' इस जाति के कुछ गोत्र स्थान, कुछ व्यक्ति तथा कुछ धन्धों के नाम पर हैं। श्रीमाल जाति की सबसे प्राचीन वंशावली के अनुसार श्रीमाल जाति तथा भारद्वाज गोत्र के वणिक तोड़ा को ७३८ ई० में किसी जैन साधु ने सम्बोधित किया। १२५३ ई० में पल्लीवाल जाति के देदा ने चन्द्रगच्छ के यशोभद्रसूरि से मल्लिनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई। प्राचीन अभिलेखों तथा ग्रन्थों में पोरवाल जाति का नाम प्राग्वाट मिलता है जो मेवाड़ (मेदपाट) का प्राचीन नाम है ऐसा प्रतीत होता है कि प्राग्वाट देश के लोग कालान्तर में प्राग्वाट व पोरवाल कहे जाने लगे । इन्दरगढ़ के वि० सं० ७६७ के लेख से ज्ञात होता है कि प्राग्वाट जाति के कुमार की देउल्लिका तक्षुल्लिका एवं भोगिनिका नाम की पुत्रियों ने गुहेश्वर के मन्दिर को दान दिया। परवाल जाति के लोग पोरवालों से भिन्न हैं। परवाल लोगों की उत्पत्ति ग्वालियर के समीप स्थित प्राचीन पद्मावती नामक स्थान से हुई है, जो आजकल पवाया कहलाता है। खंडेलवाल जाति और बघेरवाल जाति की उत्पत्ति दसवीं सदी के पहले क्रमशः खंडेला और बघेरा से हुई है। राजस्थान में खंडेल जाति का सबसे प्राचीन उल्लेख ११९७ ई. के अभिलेख में हुआ है। खंडेलवाल जाति का उल्लेख उज्जैन से प्राप्त वि० सं० १२१६ तथा वि० सं० १३०८ की जैन प्रतिमाओं में भी मिलता है। मुसलमानों के भय से मांडलगढ़ को छोड़कर १२वीं सदी के अन्त में धारानगरी जाने वाला पंडित आशाधर बघेरवाल जाति का था। बघेरवाल श्रावकों के नाम उज्जैन की जैन प्रतिमा के बारहवीं सदी के अभिलेख में पाया जाता है। इन खंडेलवाल और बघेरवाल जातियों की उत्पत्ति तो राजस्थान में हुई किन्तु कालान्तर में कुछ श्रावक मध्यप्रदेश को चले गये। १. जैन सम्प्रदाय शिक्षा, पृ० ६५६ २. जैन साहित्य संशोधक एवं जैनाचार्य-आत्माराम शताब्दी स्मारक ग्रन्थ, गुजराती विभाग, पृ० २०४ ३. नाहर जैन शिलालेख संग्रह, नं० १७७८ ४. एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द ३२ ५. जैनिज्म इन राजस्थान, पृ० १०३ ६. मालवा थू दि एजेज, पृ० ५१२ ७. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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