Book Title: Jain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar Author(s): Alpana Agrawal Publisher: Ilahabad University View full book textPage 7
________________ कोण उपस्थिा करते हैं। चाहे उत्पत्ति की दृष्टि से देखा जाये अध्या मूल्यांकन की दृष्टि से, जैन सत्य को परिस्थिति सापेक्ष मानते हुये सत्यता-संभाव्यता को बनाये रखते हैं। इनका नयवाद इसी सत्य प्रायिकता के सिद्धांत का प्रतिपादन करता है जो इनकी ज्ञान-मीमाता में प्रमुख है। नयापद के रूप में मना व्यापक दृष्टिकोण उपस्थित किया गया है 'कि इसमें एक ही बात को जानने के सभी संभाषित मार्ग पृथक-पृथक नय के रूप में शामिल हो गये हैं। तभी मत नय स्म में पूर्ण सत्य को जानने के भिन्न-भिन्न उपाय है। वस्तु ज्ञान को अपेक्षाभेट पर निर्भर माना गया है इसलिये सभी मतों को यहा एक दृष्टिकोण माना गया है और किसी मत्त का सर्वथा डन नहीं किया गया है। एक ही वस्तु के विषय में विविध मत संभव है : उतने नय हो सकते हैं किन्तु सभी नयों का समावेश द्रव्यार्षिक और पाया कि दो नषों में संभव मानते हैं। आचार्य तिनसेन ने अतवादों को व्यायिक मय के संगल नय मैं समाविष्ट किया । बौद्धों की दृष्टि को पयायनय में अनुसूत्र नय के अन्दर माना और साव्य का समावेश द्रव्यार्थिक नय में एवं वैशेषिक दर्शन को दोनों नयों में समाविष्ट माना। नयों की तरह निक्षेपों के द्वारा भी जैनों ने विरोध समन्वय का प्रयास किया। निदेष योजना जैनों की नयों की तरह ही मालिक योजना है। आगम युग में अनुयोग द्वार में निक्षेप को नय के साथ स्वतंत्र स्थान मिला जबकि प्रमाण को नहीं मिला । न्याय युग में भी प्राय: सभी तालिका ने तत्व-निरूपण में प्रमाण और नय के साथ ही निक्षम का भी विचार किया। भैनों की इस ज्ञान-मीमांसा से स्पष्ट होता है कि जैन ताकिकों को यह स्पष्ट हो चुका था कि प्रत्येक मत में कुछ पूर्वाग्रह होते हैं। दर्शन एक व्यवस्था नहीं है, क्योंकि यदि एक व्यवस्था है तो उसकी विरोधी व्यवस्था भी है। कोई भी मत एकान्त स्म से सत्य नहीं है। उनके विचारों से स्पष्ट होता हैPage Navigation
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