Book Title: Jain Ganit Vigyan ki Shodh Dishaye
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 4
________________ RD चीन रहा, किन्तु अहिंसा और सत्य के रूपों का का आधार बनते हैं। (धवल पु. 3 एवं 4)। कणादा चित्रण जिस रूप में वर्द्धमानकालीन भारत में हुआ, से प्रायः 200 वर्ष पूर्व जहाँ उमास्वाति ने पुद्गल तथा उनकी विचारधारा में हआ वह अन्यत्र उपलब्ध परमाणु और उसके अविभागी प्रतिच्छेद (शक्ति-अंशों) की चर्चा की है वहां उसी आधार पर सीमित क्षेत्र में अनन्त-विभाज्यता का खण्डन करने वाले जीनों के तर्क विज के गणित-इतिहासकार भले ही ऐसे स्रोत की __ और मोशिंग (370 ई. पू.) की बिन्दु-परिभाषा सहनिकालपस्थिति की परिकल्पना बेबिलन में क्यों न करें सम्बन्धित प्रतीत होते हैं। अविभागी समय सम्बन्धी किन्तु गणितीय विधियों में आमूल-चूल परिवर्तन प्राकृत प्रकरण जीनों के अंतिम दो तर्कों का विषय बनते हैं। थों में ही-न्यायायिक समन्वय लिए, पर्याप्त रूप में प्राकृत ग्रंथों में अनेक प्रकार के अविभागी प्रतिच्छेद लुमा आवश्यकीय कारणों से हुआ दृष्टिगत होता है । यथार्थ अनन्तों के इतिहास का निर्माण करते हैं तथा कर्म सिद्धान्त में ही अनादि अनन्त विषयक द्रव्य, क्षेत्र, अनेक प्रकार के द्रव्यात्मक, भावात्मक, कालात्मक एवं कारत एवं भाव राशियाँ, उनके अल्प-बहत्व, उनका क्षेत्रात्मक अनन्तों के अल्प-बहत्व को देकर इतिहास में आछादि सलगा गणन, उनका वैश्लेषिक अध्ययन । अमरत्व प्रदान करते हैं। (ये प्रकरण धवल पु. 3 तथा आदि किया गया है। सर्वाधिक रहस्य उस इतिहास 4 में तथा महाबन्ध ग्रन्यों में विशेष रूप से निर्वचनीत काही लो क्रांतिकारी सिस्टम सिद्धान्त के तथ्यों को का किये गये हैं।) कर्मों के सामयिक विलक्षण परिवर्तनों में प्रकट करता है। " जहां इटली में जीनो (460 ई. पू.) के अनंत- अनन्तों के अल्प बहुत्व के प्रकरण यूरोप में पुनः विभाज्यता सम्बन्धी तर्क विस्मय और कौतूहल उत्पन्न गैलिलियो (1564 --1642) की एक-एक संवाद तथा यूनानियों को अनन्त की गणना से चर्चाओं में प्रकट होते हैं 14 तथा जार्ज केण्टर (1845. भयभीत करते हैं, तथा जहाँ चीन में 'हुई शिह' (पांचवी 1958) के जीवन भर के अथक, अटूट, दुस्साहसपूर्ण सदी ई. पू.) के असद्भास 11 से सहसम्बद्ध प्रतीत होते प्रयासों में जन्म लेते हैं 15 तथा वृक्ष रूप में पल्लवित हैं वहाँ प्राकृत ग्रंथों में वे सिद्धान्त रूप से उपधारित होते हैं। उसके फलस्वरूप प्रायः 25 वर्ष से प्रस्फुटित किये जाकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की प्ररूपणा हए सिस्टम-सायबर्नेटिक सिद्धान्त हैं जिन्हें कर्म-सिद्धान्त 951देखिये, महावीराचार्य-गणित सार संग्रह प्रस्तावना, शोलापुर 1963 । 10. T: Heath, Greek History of Mathematics, vol. I (1921) pp. 275 et seq. 11. Needham J. and Ling W., Science and Civilization in China, vol. 1, Cambridge, p. 144 (1954), vol. 3. (1959). 12. देखिए Ray, P., History of Chemistry in Ancient and Medieval India, Calcutta, 1956. pp. 46, 291, et seq. 13.15 देखिये, नीधम, भाग 1, पृ. 155 । धवला पुस्तक 3 तथा 4 भी देखिए। आज का गणित अपरि भाषित बिन्दु को लेकर व्यवहार करता है। 14. Bell E. T.. Development of Mathematics, 1945, p. 273. 15. Fraenkel A. A., Abstract Set Theory, 1953, introduction, . २८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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