Book Title: Jain Ganit Vigyan ki Shodh Dishaye
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 3
________________ सामग्री शोध छात्रों हेतु शीघ्र ही छपाना अब अति आवश्यक प्रतीत हो रहा है । " जैन लौकिक गणित एवं ज्योतिष को (व्यावहारिक) गणित रूप में महावीराचार्य, श्रीधराचार्य तथा राजादित्य ठक्कर फेरू ने विकसित किया । ज्योतिष के गणित को विकसित करने में प्रमुख रूप से कालकाचार्य, हरिभद्र, चन्द्रलेख, महेन्द्र सूरी, लब्धचन्द्र गणि के अंशदान भी उल्लेखनीय हैं । 3 उपरोक्त लौकिक रूप लोकोत्तर गणित - ज्योतिष से भिन्न रूप से विकसित हुआ प्रतीत होता है। विशेषकर कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी गणित को विकसित करने के लिए तिलोय पण्णत्ती' जैसे ग्रंथों में आधार निर्मित किया गया है। पटखंडागम के प्रथम पाँच खंडों में भूमिका डाली गयी है तथा महाबन्ध ग्रंथों में बन्ध तत्त्व का निरूपण राशि सिद्धान्त के आश्रय से किया गया है । पुनः कसाय पाहुड' में उपशम और क्षपणा के गणितीय रूप का निखार है । इन ग्रंथों के सार रूप एवं टीका रूप ग्रंथों में तथा इतर श्वेताम्वर कार्यादि ग्रंथों में गणित विज्ञान की सामग्री इतिहास तथा प्रयोग एवं विश्लेषण शोध कार्य हेतु अद्वितीय है । इतिहास सम्बन्धी गणित ज्योतिष एवं कर्मगणित सिद्धान्त को शोध - 2. गोम्मटसार, लब्धिसार एवं क्षपणासार, (वृ. तीन टीकाओं सहित ), गांधी हरिभाई देवकरण ग्रंथमाला, कलकत्ता, 1919 । इनमें पं टोडरमल कृतं सम्यक्ज्ञान चन्द्रिका टीका है जिसमें अर्थ संदृष्टि अधिकार अलग से दिये गये हैं । 3. देखिये, नेमिचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्योतिष, ज्ञानपीठ, वाराणसी, 1970 पृ. 125-160 1 4. तिलोय पण्णत्ती भाग 1 ( 1943 ), तथा भाग 2 (1952), शोलापुर । 5. इस लेख में हम मुख्यतः लोकोत्तर गणित-विज्ञान शोध का विवरण प्रस्तुत करेंगे। लोकोत्तर गणितादि के प्रमाण यूनान, भारत और चीन में बेबिलनीय स्रोत के कुछ अंश लेकर प्रकट हुए हैं, जिनमें रवानी लाने का श्रेय वर्द्धमान महावीरकालीन मुनि मंडल को है जिनके अंशदान पश्चिम और पूर्व के उच्च मस्तिष्कों के लिए प्रेरणा एवं कौतूहल की वस्तु बन गये । यह निश्चत है कि महावीर पूर्व परम्पराओं की अभिलेखबद्ध सामग्री मिश्र, चीन, बेबिलिन, सुमेरु आदि स्थलों पर जिस रूप में उपलब्ध है वह भारत में सिन्धु हड़प्पा के अज्ञात रूप में दिखाई देती है, किन्तु उन सभी में वह शक्ति नहीं थी कि वे विश्व की महावीरकालीन जागृति की ज्योति में नये गणित का उद्भव कर सकें। इसी हेतु इतिहास का यह पक्ष उभारना श्रेयस्कर होगा कि कर्म सिद्धान्त का निर्माण करने में जिस गणित विद्या की आवश्यकता हुई वह लोकोपकारी प्रवृत्ति को लेकर हुई तथा उसे उन्नत करने में विश्व के प्रत्येक भाग में विभिन्न गणित की शाखाएँ प्रस्फुटित होती चली गयीं । अलौकिक प्रेरणा का स्रोत भारत, यूनान तथा षट्खण्डागम, (धवल टीका स.) भाग 1 - 16, डा. हीरालाल आदि, (अमरावती विदिशा 1939 -- 1959) 6. महाबंध भाग 1-7, ज्ञानपीठ - काशी (पं. सु. चं. दिवाकर एवं पं. फू. चं. सिद्धान्तशास्त्री द्वारा सम्पादित), 1947 - 1958 7. कसाय पाहुड – सूत्र और चूर्णि अनुवादादि, पं. हीरालाल सि. शा. कलकत्ता- 1955 । साथ ही, कसाय पाहुड ( जयधवल टीका ), मथुरा 1944 आदि । 8. देखिये, B. L. Vander Waerden, Science Awakening, Holland, 1945 Jain Education International २८३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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