Book Title: Jain Ganit Parampara aur Sahitya
Author(s): Savitri Bhatnagar
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 3
________________ ४१६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड अलंध्यं त्रिजगत्सारं यस्याऽनंतचतुष्टयम् । नमस्तस्मै जिनेन्द्राय महावीराय तायिने ॥१॥ संख्याज्ञानप्रदीपेन जैनेन्द्राय महत्विषा।। प्रकाशितं जगत्सर्व येन तं प्रणमाम्यहं ॥२॥ इसके बाद राजा अमोघवर्ष, नृपतुग की प्रशस्ति में ६ पद्य हैं। राजा अमोघवर्ष के जैनदीक्षा लेने के बाद उसे सब प्राणियों को सन्तुष्ट करने तथा नीरीति निरवग्रह करने वाला 'स्वेष्टाहितैषी' बतलाया है प्रोणितः प्राणिसस्यौघो नीरीतिनिरवग्रहः । श्रीमताऽमोघवर्षेण येन स्वेष्टाहितैषिणा ॥३॥ उसने पापरूपी शत्रुओं को अनीहित चित्तवृत्ति रूपी तपोग्नि में भस्म कर दिया था और कामक्रोधादि अन्तरंग शत्रुओं पर विजय पा लेने से 'अवन्ध्यकोप' बन गया था । सम्पूर्ण संसार को वश में करने और स्वयं किसी के वश में नहीं होने से 'अपूर्वमकरध्वज' बन गया था। राजमंडल को वश में करने के साथ तत्पश्चरण द्वारा संसारच क के भ्रमण को नष्ट करने वाले रत्नगर्भ (सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रय), ज्ञान और मर्यादावज्रवेदी द्वारा चारित्ररूपी समुद्र को पार कर लिया था पापरूपाः परा यस्य चित्तवृत्ति हविर्भुजि । नाभिभूतः प्रभुस्तस्मादपूर्वमकरध्वजः ॥ ५ ॥ यो विक्रमक्रमाक्रांतचकिचकृतिक्रियः । चक्रिकाकारमंजनो नाम्ना चक्रिकामंजनो जसा ॥६॥ यो विद्यानद्यधिष्ठानो मर्यादावचवेदिकः । रत्नगर्भो यथाख्यात चारित्रजलधिर्महान् ॥ ७॥ इन विवरणों से अमोघवर्ष की मुनिवृत्ति का परिचय मिलता है। राजा अमोघवर्ष ने अन्तिम दिनों में विवेकपूर्वक राज्य छोड़कर जैनमुनि के रूप में जीवन बिताने का उल्लेख उसने स्वयं अपनी रत्नमाला के अन्तिम पद्य में किया है। गणितसार संग्रह ग्रन्थ में अमोघवर्ष नपतुंग के शासन काल की वृद्धि की कामना की गई है विध्वस्तकांतपक्षस्य स्याद्वादन्यायवादिनः । देवस्य नपतुगस्य वद्धतां तस्य शासनम् ॥८॥ महावीराचार्य की दो कृतियाँ मिलती हैं-गणितसारसंग्रह (समुच्चय) और षट्त्रिंशिका ; तथा ज्योतिष पर ज्योतिषपटल । गणित और ज्योतिष का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। ज्योतिष के दो अंग हैं-एक गणित-ज्योतिष और दूसरा फल-ज्योतिष । अत: महावीराचार्य के गणित सम्बन्धी दोनों ग्रन्थ भी ज्योतिष के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। गणितसारसंग्रह ग्रन्थ में कहीं रचनाकाल का उल्लेख नहीं है, परन्तु उसमें नृपतुंग के शासन की वृद्धि की कामना की गई है, अत: इसकी रचना अमोघवर्ष के काल में ही हुई थी। इसमें अमोघवर्ष की जैनमुनितुल्य वृत्तियों के सम्बन्ध में बताया गया है। अत: यह कृति उसके शासनकाल के अन्तिम दिनों में लिखी गई प्रतीत होती है। इसी आधार पर इसकी रचना ८५० ई. के लगभग होने का अनुमान होता है। प्रारम्भ के संज्ञाधिकार' में गणित के महत्त्व को स्वीकार करते हुए बताया गया है-संसार के सब व्यापारों (लौकिक, वैदिक और सामाजिक) में संख्या का उपयोग किया जाता है। कामतन्त्र, अर्थशास्त्र, गन्धर्वशास्त्र, नाटक, सूपशास्त्र, वैद्यक, वास्तुविद्या, छन्द, अलंकार, काव्य, तर्क, व्याकरण समस्त कलाओं में गणित प्राचीन काल से प्रचलित है। (ज्योतिष के अन्तर्गत) सूर्यादि ग्रहों की गति, ग्रहण, ग्रहसंयोग, त्रिप्रश्न, चन्द्रवृत्ति, सर्वत्र गणित स्वीकार किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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