Book Title: Jain Ekta ka Prashna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 3
________________ ५८२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ बाहर के लोगों की अपेक्षा भी अन्दर के लोग अधिक जवाबदार हैं। प्रतिष्ठित होगी तभी समाज में एकता की भावना सबल होगी । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज के मुनिवर्ग के अहमदाबाद सम्मेलन का कोई व्यक्तिपूजा, पूजक और पूज्य दोनों के अहंकार का सिंचन करती है और प्रभावकारी परिणाम क्यों नहीं निकला ? उनकी चारित्रिक स्खलनाओं का कारण बनती है । लेखक ने जीवित आज तेरापन्थ जिसकी एकता पर हमे नाज़ था, विखराव की आचार्यों और मुनियों के ऐसे स्तोत्र देखे, जिनमें उनके गुणों एवं स्थिति में क्यों है ? दिगम्बर मुनिसंघ यद्यपि अभी अल्पसंख्या में हैं अतिशयों का ऐसा चित्रण है जो उन्हें वीतराग-प्रभु के समकक्ष ही किन्तु उसमें भी विखराव के लक्षण उभर कर सामने आने लगे हैं। प्रस्तुत करता है । समाज में अभिनन्दन-समारोहों और अभिनन्दन-ग्रन्थों अलग-अलग तम्बू लगने लगे हैं । कानजीपन्थ और मूल आम्नाय का की आयी हुई बाढ़ भी अहंकार-पुष्टि का ही माध्यम है । अहंकार ऐसा विवाद तो खुलकर सामने आ ही गया था, चाहे कानजी स्वामी के मीठा जहर है-जिससे मुक्ति पाना बड़ा कठिन है । जब भी किसी व्यक्ति स्वर्गवास के पश्चात् उसमें कुछ कमी आई हो ? बात कठोर अवश्य के ऐसे पुष्ट अहंकार पर चोट पड़ती है या ईर्ष्यावश किसी व्यक्ति की है, किन्तु सही स्थिति यह है कि आज समाज का अधिकांश मुनिवर्ग, महत्वाकांक्षा जाग जाती है तो वह अपना अखाड़ा अलग बना लेता है। कुछ नेतृत्व के भूखे श्रावक और पण्डित अपनी दुकान जमाने के अनेक सम्प्रदायों के उद्भव के पीछे यही एक महत्त्वपूर्ण कारण रहा है। चक्कर में हैं ? अपनी पूजा एवं प्रतिष्ठा बटोरने के प्रयास में है । वे विभिन्न सम्प्रदायों के उद्भव की जो कहानियाँ जैन-ग्रन्थों में दी गई हैं, सभी महावीर के नाम का उपयोग तो केवल इसलिए करते हैं कि अपनी वे इसी बात की पुष्टि करती हैं। किसी के अहंकार का अमर्यादित पोषण दुकान चल निकले । जब हम सब अपनी दुकान जमाने को आतुर होंगे। दूसरे की महत्वाकांक्षा को बढ़ता और समाज में ईर्ष्या या विद्वेष के तो महावीर की दुकान कौन चलायेगा? जब मुनीम अपनी दुकान जमाने विष-वृक्ष को पनपाता है। के फेर में पड़ जाता है तो सेठ की दुकान की क्या स्थिति होगी - हमारी धार्मिक एवं सामाजिक एकता का विकास तभी सम्भव यह सुविदित ही है । जैन एकता की पीठ में जब भी कोई छुरा भोंका है जब सामाजिक जीवन व्यक्तियों के अहंकार के पोषण की ये गया है तो ऐसे ही लोगों के द्वारा भोंका गया है। अमर्यादित प्रवृत्तियाँ प्रतिबन्धित हों और दूसरों को हीन या अपमानित अनुभव करने के अवसर उपस्थित नहीं हों । विखराव का मूल कारण-प्रतिष्ठा की भूख समाज में जब भी कोई मुनि या पण्डित थोड़ा बहुत प्रवचन- धार्मिक सम्प्रदायों के पारस्परिक संघर्षों का उद्भव क्यों और पटु बना कि वह अपना एक अलग तम्बू गाड़ने का प्रयास करने लगता कैसे ? है । अपने उपासक, अपनी संस्था और अपना पत्र इस प्रकार एक नया विभिन्न युगों में जैनाचार्य अपने युग की तात्कालिक परिस्थितियों वर्ग खड़ा हो जाता है और विखराव की स्थिति आ जाती है । विखराव से प्रभावित होकर साधना के बाह्य नियमों में परिवर्तन करते रहे हैं। इसलिए होता है कि समाज की आस्था का मूल- केन्द्र महावीर या देशकालगत परिस्थितियों के प्रभाव के कारण और साधक की साधना उनका धर्म न होकर वह मुनि, आचार्य या विद्वान् होता है । लेखक ने क्षमता की विभिन्नता के कारण धर्म-साधना के बाह्य रूपों में ऐसे स्वयं देखा है कि आज स्थानकवासी समाज में अधिकांश मुनि और परिवर्तनों का हो जाना स्वाभाविक ही था और न केवल जैन अपितु सभी साध्वियाँ प्रवचन के पूर्व में, अन्त में और प्रार्थनाओं में अपने-अपने धर्मों के इतिहास में ऐसा अनेक बार हुआ है, साधना सम्बन्धी ये सब वर्तमान आचार्यों का ही स्तवन गान करते हैं । अब तो भक्तामर शैली विविधताएँ धार्मिक संघर्षों का कारण नहीं बनती । साम्प्रदायिक में संस्कृत भाषा में निबद्ध जीवित आचार्यों के स्तोत्र बन चुके हैं। शायद मतान्धता और संघर्षों का कारण साधना सम्बन्धी विविधता में नहीं आज हम उस महावीर को भुला चुके हैं जिसे हमारी सभी की आस्था अपितु मनुष्य की ममता, आसक्ति, अहंकार और स्वार्थपरता में ही रहा का केन्द्र होना चाहिये और जिसके आधार पर ही हम सब एकता के है। सूत्र में बंध सकते हैं । जो जैन धर्म गुणपूजक था, जिसके महान् आचार्यों वस्तुत: मनुष्य जब अपने धर्माचार्य के प्रति रागात्मकता के ने अपने नमस्कार-मंत्र में किसी भी व्यक्ति का, यहाँ तक कि महावीर कारण अथवा अपने मन में व्याप्त आग्रह और अहंकार के कारण अपने का भी नाम न रखा था, उसमें बढ़ती हुई यह व्यक्ति-उपासना ही हमारे धर्म, सम्प्रदाय या साधना पद्धति को ही एकमात्र और अन्तिम सत्य तथा विखराव का कारण है। यदि हम सच्चे हृदय से जैन-एकता को चाहते अपने धर्मगुरु को ही सत्य का एक मात्र प्रवर्तक मान लेता है, तो हैं- समाज से ये व्यक्ति-परक स्तुतियाँ तत्काल बन्द कर देना चाहिए। परिणामस्वरुप साम्प्रदायिक वैमनस्य का सूत्रपात हो जाता है । वस्तुत: सार्वजनिक प्रार्थनासभाओं, प्रवचनों आदि में केवल तीर्थंकरों का ही धार्मिक वैमनस्यों और धार्मिक संघों के मूलभूल कारण मनुष्य का स्तवन हो, किसी आचार्य या मुनि विशेष का नहीं । आचार्यों और अपने धर्माचार्य और सम्प्रदाय के प्रति आत्यान्तिक रागात्मक तथा मुनियों के प्रति विनयभाव तो रहे, किन्तु श्रद्धा का केन्द्र वीतरागता और तज्जन्य अपने मत की ऐकान्तिक सत्यता का आग्रह ही है । यद्यपि समतामय धर्म ही हो कोई व्यक्ति नहीं । संक्षेप में हम व्यक्तिपूजक नहीं, विखराव के अन्य कारण भी होते हैं । गुणपूजक बनें । समाज में जब व्यक्तिपूजा के स्थान पर गुणपूजा वस्तुत: धार्मिक विविधताओं और धर्म सम्प्रदायों के उद्भव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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