Book Title: Jain Ekta ka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ जैन एकता का प्रश्न ५८१ एक अहिंसक समाज के लिए शर्मनाक नहीं हैं ? क्या यह उचित है अस्तित्व का प्रश्न जुड़ा हुआ है । प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था में किसी कि चींटी की रक्षा करनेवाला समाज मनुष्यों के खून से होली खेले? वर्ग की आवाज इसी आधार पर सुनी और मानी जाती है कि उसकी पत्र-पत्रिकाओं में एक दूसरे के विरुद्ध जो विष-वमन किया जाता है, संगठित मत-शक्ति एवं सामाजिक प्रभावशीलता कितनी है । किन्तु एक लोगों की भावनाओं को एक दूसरे के विपरीत उभाड़ा जाता है, वह क्या विकेन्द्रित और अननुशासित धर्म एवं समाज की न तो अपनी मत-शक्ति समाज के प्रबुद्ध विचारकों के हृदय को विक्षोभित नहीं करता है ? आज होती है और न उसकी आवाज का कोई प्रभाव ही होता है। यह एक आडम्बरपूर्ण गजरथों, पञ्चकल्याणकों और प्रतिष्ठा समारोहों-मुनियों के अलग बात है कि जैन समाज के कुछ प्रभावशाली व्यक्तित्व प्राचीनकाल चातुर्मासों में चलनेवाले चौकों और दूसरे आडम्बरपूर्ण प्रतिस्पर्धा से आज तक भारतीय शासन एवं समाज में अपना प्रभाव एवं स्थान आयोजनों में जो प्रतिवर्ष करोड़ों रुपयों का अपव्यय हो रहा है, वह क्या रखते आये हैं किन्तु इसे जैन समाज की प्रभावशक्ति मानना गलत धन के सदुपयोग करनेवाले मितव्ययी जैन समाज के लिए हृदय- होगा। यह जो भी प्रभाव रहा है उनकी निजी प्रतिभाओं का है, इसका विदारक नहीं है ? भव्य और गरिमापूर्ण आयोजन बुरे नहीं हैं किन्तु श्रेय सीधे रुप में जैन समाज को नहीं है । चाहे उनके नाम का लाभ जैन वे जब साम्प्रदायिक दूरभिनिवेश और ईर्ष्या के साथ जुड़ जाते हैं तो समाज की प्रभावशीलता को बताने के लिए उठाया जाता रहा है । अपनी सार्थकता खो देते हैं । पारस्परिक प्रतिस्पर्धा में हमने एक-एक मानवतावादी वैज्ञानिक धर्म, अर्थ-सम्पन्न समाज तथा विपुल साहित्यिक गाँव में और एक-एक गली में दस-दस मन्दिर तो खड़े कर लिये किन्तु एवं पुरातत्त्वीय सम्पदा का धनी यह समाज आज उपक्षित क्यों है ? यह उनमें आबू, राणकपुर, जैसलमेर, खुजराहो या गोमटेश्वर जैसी भव्यता एक नितान्त सत्य है कि भारतीय इतिहास में जैन समाज स्वयं एक एवं कला से युक्त कितने हैं ? एक-एक गाँव या नगर में चार-चार शक्ति के रूप में उभरकर सामने नहीं आया । यदि हमें एक शक्ति के धार्मिक पाठशालाएँ चल रही हैं, विद्यालय चल रहे हैं किन्तु सर्व सुविधा कप में उभर कर आना है तो संगठित होना होगा । अन्यथा धीरे-धीरे सम्पन्न सुव्यवस्थित विशाल पुस्तकालय एवं शास्त्र-भण्डार से युक्त जैन हमारा अस्तित्व नाम-शेष हो जायेगा । आज ‘संघे शक्तिः कलियुगे' विद्या के अध्ययन और अध्यापन-केन्द्र तथा शोध-संस्थान कितने हैं ? लोकोक्ति को ध्यान में रखना होगा। अनेक अध्ययन-अध्यापन केन्द्र साम्प्रदायिक प्रतिस्पर्धा में एक ही स्थान पर खड़े तो किये गये किन्तु समग्र समाज के सहयोग के अभाव में कोई हमारे विखराव के कारण भी सम्यक् प्रगति नहीं कर सका । यह सही है कि जैन समाज की इस विच्छिन्न दशा पर प्रबुद्ध विचारकों ने सदैव ही चार-चार आँसू बहाये हैं और उसकी वेदना का एकता की आवश्यकता क्यों हृदय की गहराईयों तक अनुभव किया है । इसी दशा को देखकर जैन समाज की एकता की आवश्यकता दो कारणों से है। अध्यात्मयोगी संत आनन्दघनजी को कहना पड़ा था - प्रथम तो यह कि पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष एवं प्रतिस्पर्धा में समाज के श्रम, गच्छना बहुभेद नयन निहालतां शक्ति और धन का जो अपव्यय हो रहा है, उसे रोका जा सके । जैसा तत्व नी बात करता नी लाजे । हमने सूचित किया आज समाज का करोड़ों रुपया प्रतिस्पर्धी थोथे यद्यपि प्रबुद्ध वर्ग के द्वारा समय-समय पर एकता के प्रयत्न प्रदर्शनों और पारस्परिक विवादों में खर्च हो रहा है, इनमें न केवल हमारे भी हुए हैं, चाहे उनमें अधिकांश उपसम्प्रदायों की एकता तक ही सीमित धन का अपव्यय हो रहा है, अपितु समाज की कार्य-शक्ति भी इसी दिशा रहे हों। भारत जैन महामण्डल, वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ, में लग जाती है। परिणामतः हम योजनापूर्वक समाज-सेवा और धर्म- श्वेताम्बर जैन कान्फरेन्स, दिगम्बर जैन महासभा, स्थानकवासी जैन प्रसार के कार्यों को हाथ में नहीं ले पाते हैं । यद्यपि अनियोजित सेवा कान्फरेन्स इसके अवशेष हैं । इनके लिए अवशेष शब्द का प्रयोग में कार्य आज भी हो रहे है किन्तु उनका वास्तविक लाभ समाज और जानबूझकर इसलिए कर रहा हूँ कि आज न तो कोई अन्तर की गहराइयों धर्म को नहीं मिल पाता है । जैन समाज के सैकड़ों कालेज और हजारों से इनके प्रति श्रद्धानिष्ठ है और न इनकी आवाज में कोई बल है - ये स्कूल चल रहे हैं- किन्तु उनमें हम कितने जैन अध्यापक खपा पाये हैं केवल शोभा मूर्तियाँ हैं -जिनके लेबल का प्रयोग हम साम्प्रदायिक और उनमें से कितने में जैन दर्शन, साहित्य और प्राकृत भाषा के स्वार्थों की पूर्ति के लिए या एकता का ढिंढोरा पीटने के लिए करते रहते अध्ययन की व्यवस्था है । देश में जैन समाज के सैकड़ों हास्पीटल हैं, हैं । अन्तर में हम सब पहले श्वेताम्बर, स्थानकवासी, मूर्तिपूजक, किन्तु उनमें हमारा सीधा इन्वाल्वमेण्ट न होने से हम जन-जन से अपने दिगम्बर, बीस-पन्थी, तेरापन्थी, कानजीपंथी हैं, बाद में जैन । वस्तुत: को नहीं जोड़ पाये हैं, जैसा कि ईसाई मिशनरियों के अस्पतालों में होता जब तक यह दृष्टि नहीं बदलती है, इस समीकरण को उलटा नहीं जाता, है। सामाजिक बिखराव के कारण हम सर्व सुविधा सम्पन्न बड़े अस्पताल तब तक जैन समाज की भावात्मक एकता का कोई आधार नहीं बन या जैन विश्वविद्यालय आदि के व्यापक कार्य हाथ में नहीं ले पाते हैं। सकता । आज स्थानकवासी जैन श्रमण संघ को जिसके निर्माण के पीछे दूसरे जैनधर्म की धार्मिक एवं सामाजिक एकता का प्रश्न समाज के प्रबुद्धवर्ग की वर्षों का श्रम एवं साधना थी और समाज का आज इसीलिए महत्त्वपूर्ण बन गया है कि अब इस प्रश्न के साथ हमारे लाखों रुपया व्यय हुआ था, किसने नामशेष बनाया है ? इसके लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5