Book Title: Jain Diwakarji Maharaj ki Guru Parampara Author(s): Mul Muni Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf View full book textPage 2
________________ | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || चिन्तन के विविध बिन्दु : ५७० : करने को आपको पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज के पास ज्ञान-अभ्यास करने की इच्छा हई । इस इच्छा को ध्यान में रखकर लीमड़ी श्रीसंघ ने एक विशेष व्यक्ति के साथ पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज की सेवा में तत्सम्बन्धी प्रार्थना-पत्र भेजा। आचार्य प्रवर श्री दौलतरामजी महाराज उस समय कोटा-बूंदी की तरफ बिराजते थे। उन्होंने इस प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार कर काठियावाड़ लीमड़ी की ओर विहार कर दिया। वह व्यक्ति भी महाराजश्री के साथ अहमदाबाद तक रहा। वह वहां से श्रीसंघ को बधाई देने और महाराज श्री के पधारने का शुभ सन्देश देने को लीमड़ी पहुँच गया। उस समय लीमड़ी श्रीसंघ के आनन्द का पार न रहा । श्रीसंघ ने उस व्यक्ति को १२५०) रु० भेंट किये। पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज के लीमड़ी पधारने पर श्रीसंघ ने भाव-भीना स्वागत किया। पूज्य श्री अजरामरजी स्वामी पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज से सूत्र-सिद्धान्त का रहस्य समझने लगे। "समकितसार' के कर्ता पंडित मुनि श्री जेठमलजी महाराज जो मारवाड़ के पूज्य श्री अमरसिंहजी महाराज के सम्प्रदाय के थे, उन दिनों पालनपुर विराजते थे, वे भी शास्त्र अध्ययनार्थ लीमड़ी पधारे। भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय के साधुओं में उस समय कितना पारस्परिक स्नेह था तथा उनमें ज्ञानपिपासा कितनी तीव्र थी यह उपरोक्त प्रसंग से स्पष्ट होता है। पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज ने बहुत समय तक विचरण कर पूज्य श्री अजरामरजी स्वामी को सूत्र-ज्ञान दिया। पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज के आग्रह से पूज्य श्री अजरामरजी महाराज ने जयपुर में एक चातुर्मास उनके साथ किया था। पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज के चार शिष्य प्रसिद्ध थे--(१) श्री गणेशरामजी, (२) श्री गोविन्दरामजी, (३) श्री लालचन्दजी, (४) श्री राजारामजी। उनमें भी पूज्य श्री लालचन्दजी महाराज विशेष प्रसिद्ध थे। पूज्य श्री लालचन्दजी महाराज पुज्य श्री दौलतरामजी महाराज के पट्टधर पूज्य श्री लालचन्दजी महाराज अन्तरड़ी ग्राम के निवासी तथा सिलावट जाति के थे। वे एक कुशल चित्रकार थे। एक बार पूज्य श्री लालचन्दजी महाराज चित्र बनाते हुए अन्यत्र चले गये। उनकी चित्र सर्जन की सामग्री (रंग तुलिका आदि) कक्ष में ज्यों की त्यों खुली रखी थी। संयोग से एक मक्खी रंग में फंस गई और तड़प-तड़प कर मर गई । लौटने पर श्री लालचन्दजी महाराज ने उसे देखा और बड़े दुःखी हए, आपको वहीं वैराग्य उत्पन्न हो गया। सौभाग्य से अन्तरड़ी में पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज पधारे थे । आप उनके पास पहुंचे और दीक्षित होने का विचार प्रकट किया। इस तरह पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज ने इन्हें दीक्षा दी और जैन-सम्प्रदाय को एक सुयोग्य रत्न मिला । कालान्तर में आप ही पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज के पदाधिकारी हुए। आपकी उपस्थिति में ही उन दिनों कोटा सम्प्रदाय में २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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