Book Title: Jain Dharm me Tirth-ki Avadharna Author(s): Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 5
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म इस कल्पना पर आधारित हैं कि यहाँ पर किसी समय तीर्थङ्कर का पदार्पण हुआ था या उनकी धर्मसभा (समवसरण) हुई थी। इसके साथसाथ आज कुछ जैन आचार्यों के जीवन से सम्बन्धित स्थलों पर गुरुमंदिरों का निर्माण कर उन्हें भी तीर्थ रूप में माना जाता है । तीर्थ यात्रा जैन - परम्परा में तीर्थयात्राओं का प्रचलन कब से हुआ, यह कहना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि चूर्णिसाहित्य के पूर्व आगमों में तीथ स्थलों की यात्रा करने का स्पष्ट उल्लेख कही नहीं मिलता है। सर्वप्रथम निशीथचूर्णि में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि तीर्थकरों की कल्याणकभूमियों की यात्रा करता हुआ जीव दर्शन-विशुद्धि को प्राप्त करता है। इसी प्रकार व्यवहारभाष्य और व्यवहार चूर्णि में यह उल्लेख है कि जो मुनि अष्टमी और चतुर्दशी को अपने नगर के समस्त चैत्यों और उपनावों में ठहरे हुए मुनियों को वन्दन नहीं करता है तो वह मासलघु प्रायश्चित्त का दोषी होता है२९ । तीर्थयात्रा का उल्लेख महानिशीथसूत्र में भी मिलता है। इस ग्रन्थ का रचना-काल विवादास्पद है। हरिभद्र एवं जिनदासगण द्वारा इसके उद्धार की कथा तो स्वयं अन्य में ही वर्णित है नन्दीसूत्र में आगमों की सूची में महानिशीथ का उल्लेख अनुपलब्ध है । अतः यह स्पष्ट है कि इसका रचना काल छठी से आठवीं शताब्दी के मध्य ही हुआ होगा । इस आधार पर भी कहा जा सकता है कि जैन परम्परा में तीर्थ यात्राओं को इसी कालावधि में विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ होगा । महानिशीथ में उल्लेख है कि 'हे भगवन् ! यदि आप आज्ञा दें तो हम चन्द्रप्रभ स्वामी को वन्दन कर और धर्मचक्र की तीर्थयात्रा कर वापस आयें । ३० जिनयात्रा के सन्दर्भ में हरिभद्र के पंचाशक में विशिष्ट विवरण उपलब्ध होता है। हरिभद्र ने नवें पंचाशक में जिनयात्रा के विधि-विधान का निरूपण किया है, किन्तु ग्रन्थ को देखने से ऐसा लगता है कि वस्तुत: यह विवरण दूरस्थ तीर्थों में जाकर यात्रा करने की अपेक्षा अपने नगर में ही जिन प्रतिमा की शोभा यात्रा से सम्बन्धित है। इसमें यात्रा के कर्तव्यों एवं उद्देश्यों का निर्देश है। उनके अनुसार जिनयाश में जिनधर्म की प्रभावना के हेतु यथाशक्ति दान, तप, शरीर-संस्कार, उचित गीत-वादन, स्तुति आदि करना चाहिए"। तीर्थ-यात्राओं में श्वेताम्बर परम्परा में जो छह - री पालक संघ यात्रा की जो प्रवृत्ति प्रचलित है, उसके पूर्व-बीज भी हरिभद्र के इस विवरण में दिखाई देते हैं। आज भी तीर्थयात्रा में इन छह बातों का पालन अच्छा माना जाता है १. दिन में एकबार भोजन करना (एकाहारी) २. भूमिशयन (भू-आधारी) ३. पैदल चलना (पादचारी) ४. शुद्ध श्रद्धा रखना ( श्रद्धाचारी) ५. सर्वसचित्त का त्याग (सचित्त परिहारी) ६. ब्रह्मचर्य का पालन ( ब्रह्मचारी) Jain Education International तीयों के महत्त्व एवं यात्राओं सम्बन्धी विवरण हमें मुख्य रूप से परवर्ती काल के ग्रन्थों में ही मिलते हैं। सर्वप्रथम 'सारावली' नामक प्रकीर्णक में शत्रुंजय 'पुण्डरीक तीर्थ' की उत्पत्ति-कथा, उसका महत्त्व एवं उसकी यात्रा तथा वहाँ किये गये तप, पूजा, दान आदि के फल विशेष रूप से उल्लिखित है ।" इसके अतिरिक्त विविधतीर्थ कल्प (१३वीं शती) और तीर्थमालायें भी जो कि १२वी १३वीं शताब्दी से लेकर परवर्ती काल में पर्याप्त रूप से रची गयीं; तीर्थों की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती जैन साहित्य में तीर्थयात्रा संघों के निकाले जाने सम्बन्धी विवरण भी १३वीं शती के पश्चात् रचित अनेक तीर्थमालाओं एवं अभिलेखों में यत्र-तत्र मिल जाते हैं, जिनकी चर्चा आगे की गयी है। हैं - तीर्थयात्रा का उद्देश्य न केवल धर्म-साधना है, बल्कि इसका व्यावहारिक उद्देश्य भी है, जिसका संकेत निशीथचूर्णि में मिलता है। उसमें कहा गया है कि जो एक ग्राम का निवासी हो जाता है और अन्य ग्राम-नगरों को नहीं देखता वह कूपमंदूक होता है। इसके विपरीत जो भ्रमणशील होता है वह अनेक प्रकार के ग्राम-नगर, सन्निवेश, जनपद, राजधानी आदि में विचरण कर व्यवहार कुशल हो जाता है तथा नदी, गुहा, तालाब, पर्वत आदि को देखकर चक्षु-सुख को भी प्राप्त करता है। साथ ही तीर्थंकरों की कल्याणक-भूमियों को देखकर दर्शन - विशुद्धि भी प्राप्त करता है। पुनः अन्य साधुओं के समागम का भी लाभ लेता है और उनकी समाचारी से भी परिचित हो जाता है। परस्पर दानादि द्वारा विविध प्रकार के घृत, दधि, गुड़, क्षीर आदि नाना व्यञ्जनों का रस भी ले लेता है । ३३ निशीथचूर्णि के उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार्य तीर्थयात्रा की आध्यात्मिक मूल्यवत्ता के साथ-साथ उसकी व्यावहारिक उपादेयता भी स्वीकारते थे। तीर्थविषयक श्वेताम्बर जैन साहित्य तीर्थविषयक साहित्य में कुछ कल्याणक भूमियों के उल्लेख समवायांग, ज्ञाता और पर्युषणाकल्प में हैं। कल्याणक भूमियों के अतिरिक्त अन्य तीर्थक्षेत्रों के जो उल्लेख उपलब्ध होते हैं उनमें श्वेताम्बरपरम्परा में सबसे पहले महानिशीथ और निशीथचूर्णि में हमें मथुरा, उत्तरापक्ष और चम्पा के उल्लेख मिलते हैं। निशीथचूर्णि, व्यवहारभाष्य, व्यवहारचूर्णि आदि में भी नामोल्लेख के अतिरिक्त इन तीर्थों के सन्दर्भ में विशेष कोई जानकारी नहीं मिलती; मात्र यह बताया गया है कि मथुरा स्तूपों के लिए उत्तरापथ धर्मचक्र के लिए और चम्पा जीवन्तस्वामी की प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध वे तीर्थ सम्बन्धी विशिष्ट साहित्य में तित्योगालिय प्रकीर्णक, सारावली प्रकीर्णक के नाम महत्त्वपूर्ण माने जा सकते हैं। किन्तु तित्थोगालिय प्रकीर्णक में तीर्थस्थलों का विवरण न होकर के साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की विभिन्न कालों में विभिन्न तीर्थंकरों द्वारा जो स्थापना की गई, उसके उल्लेख मिलते हैं, उसमें जैनसंघरूपी तीर्थ के भूत और भविष्य के सम्बन्ध में कुछ सूचनाएँ 1 DGD[१२३] For Private & Personal Use Only irarde www.jainelibrary.orgPage Navigation
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