Book Title: Jain Dharm me Swadhyay ka arth evam Sthan Author(s): Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 1
________________ जैन-धर्म में स्वाध्याय का अर्थ एवं स्थान जैन-साधना का लक्ष्य समभाव (सामायिक) की उपलब्धि है और कोई है और न भविष्य में कोई होगा। इस प्रकार जैन-परम्परा में स्वाध्याय समभाव की उपलब्धि हेतु स्वाध्याय और सत्साहित्य का अध्ययन को आध्यत्मिक साधना के क्षेत्र में विशेष महत्त्व दिया गया है। आवश्यक है। सत्साहित्य का स्वाध्याय मनुष्य का एक ऐसा मित्र है, उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि स्वाध्याय से ज्ञान का प्रकाश प्राप्त जो अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों स्थितियों में उसका साथ निभाता है होता है, जिससे समस्त दु:खों का क्षय हो जाता है। वस्तुत: स्वाध्याय और उसका मार्ग-दर्शन कर उसके मानसिक विक्षोभों एवं तनावों को ज्ञान-प्राप्ति का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। कहा भी हैसमाप्त करता है। ऐसे साहित्य के स्वाध्याय से व्यक्ति को सदैव ही नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाण-मोहस्स विवज्जणाए। आत्मतोष और आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति होती है, मानसिक रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगन्तसोक्खं समुवेई मोक्खं ।। तनावों से मुक्ति मिलती है। यह मानसिक शान्ति का अमोघ तस्सेस मग्गो गुरु-विद्धसेवा, वज्जणा बालजणस्स दूरा। उपाय है। सज्झाय-एगन्तनिसेवणा य, सुत्तत्थसंचिन्तणया घिई य ।। अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह के परिहार स्वाध्याय का महत्व से, राग-द्वेष के पूर्ण क्षय से जीव एकान्त सुख-रूप मोक्ष को प्राप्त सत्साहित्य-स्वाध्याय का महत्त्व अति प्राचीन काल से ही स्वीकृत करता है। गुरुजनों की और वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी लोगों के रहा है। औपनिषदिक चिन्तन में जब शिष्य अपनी शिक्षा पूर्ण करके सम्पर्क से दूर रहना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना स्वाध्याय करना गुरु के आश्रम से बिदाई लेता था, तो उसे दी जाने वाली अन्तिम और धैर्य रखना-यही दुःखों से मुक्ति का उपाय है। शिक्षाओं में एक शिक्षा होती थी---स्वाध्यायान् मा प्रमदः अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद मत करना। स्वाध्याय एक ऐसी वस्तु है जो गुरु स्वाध्याय का अर्थ की अनुपस्थिति में भी गुरु का कार्य करती थी। स्वाध्याय से हम कोई- स्वाध्याय शब्द का सामान्य अर्थ है-स्व का अध्ययन न-कोई मार्ग-दर्शन प्राप्त कर ही लेते हैं। महात्मा गांधी कहा करते वाचस्पत्यम् में स्वाध्याय शब्द की व्याख्या दो प्रकार से की गयी हैथे कि “जब भी मैं किसी कठिनाई में होता हूँ, मेरे समाने कोई जटिल १. स्व अधि इण, जिसका तात्पर्य है स्व का अध्ययन करना। दूसरे समस्या होती है, जिसका निदान मुझे स्पष्ट रुप से प्रतीत नहीं होता शब्दों में स्वाध्याय आत्मानुभूति है, अपने अन्दर झाँक कर अपने आप है। मैं गीता-माता की गोद में चला जाता हूँ, वहाँ मुझे कोई-न-कोई को देखना है। वह स्वयं अपना अध्ययन है। मेरी दृष्टि में अपने विचारों, समाधान अवश्य मिल जाता है।" यह सत्य है कि व्यक्ति कितने ही वासनाओं व अनुभूतियों को जानने व समझने का प्रयत्न ही स्वाध्याय तनाव में क्यों न हो, अगर वह ईमानदारी से सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय है। वस्तुत: वह अपनी आत्मा का अध्ययन ही है, आत्मा के दर्पण करता है तो उसे उनमें अपनी पीड़ा से मुक्ति का मार्ग अवश्य ही में अपने को देखना है। जब तक स्व का अध्ययन नहीं होगा, व्यक्ति दिखाई देता है। अपनी वासनाओं एवं विकारों का द्रष्टा नहीं बनेगा तब तक वह उन्हें जैन-परम्परा में जिसे मुक्ति कहा गया है, वह वस्तुत: राग-द्वेष दूर करने का प्रयत्न भी नहीं करेगा और जब तक वे दूर नहीं होंगे, से मुक्ति है, मानसिक तनावों से मुक्ति है और ऐसी मुक्ति के लिए तब तक आध्यात्मिक पवित्रता या आत्म-विशुद्धि सम्भव नहीं होगी पूर्व कर्म-संस्कारों का निर्जरण या क्षय आवश्यक माना गया है। निर्जरा और आत्म-विशुद्धि के बिना मुक्ति असम्भव है। यह एक सुस्पष्ट तथ्य का अर्थ है- मानसिक ग्रन्थियों को जर्जरित करना अर्थात् मन की है कि जो गृहिणी अपने घर की गन्दगी को देख पाती है, वह उसे राग-द्वेष, अहंकार आदि की गाँठों को खोलना। इसे ग्रन्थि-भेद करना दूर कर घर को स्वच्छ भी रख सकती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी भी कहते हैं। निर्जरा एक साधना है। वस्तुत: वह तप की ही साधना मनोदैहिक विकृतियों को जान लेता है और उनके कारणों का निदान है। जैन-परम्परा में तप-साधना के जो १२ भेद माने गए है, उनमें कर लेता है, वही सुयोग्य वैद्य के परामर्श से उनकी योग्य चिकित्सा स्वाध्याय की गणना आन्तरिक तप के अन्तर्गत होती है । इस प्रकार करके अन्त में स्वास्थ्य लाभ करता है। यही बात हमारी आध्यात्मिक स्वाध्याय मुक्ति का मार्ग है, जैन-साधना का एक आवश्यक अंग है। विकृतियों को दूर करने की प्रक्रिया में भी लागू होती है। जो व्यक्ति उत्तराध्ययनसूत्र में स्वाध्याय को आन्तरिक तप का एक प्रकार स्वयं अपने अन्दर झाँककर अपनी चैतसिक विकृतियों अर्थात् कषायों बताते हुए उसके पाँचों अंगों एवं उनकी उपलब्धियों की विस्तार से को जान लेता है, वही योग्य गुरु के सानिध्य में उनका निराकरण चर्चा की गई है। बृहत्कल्पभाष्य में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है करके आध्यात्मिक विशुद्धता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार स्वाध्याय कि "नवि अत्थि न वि अ होही, सज्झाय समं तवोकम्म" अर्थात् अर्थात् स्व का अध्ययन आत्म-विशुद्धि की एक अनुपम साधना सिद्ध स्वाध्याय के समान दूसरा तप न अतीत में कोई था, न वर्तमान में होती है। हमें स्मरण रखना होगा स्वाध्याय का मूल अर्थ जो, स्वयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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