Book Title: Jain Dharm me Swadhyay ka arth evam Sthan
Author(s): 
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-धर्म में स्वाध्याय का अर्थ एवं स्थान जैन-साधना का लक्ष्य समभाव (सामायिक) की उपलब्धि है और कोई है और न भविष्य में कोई होगा। इस प्रकार जैन-परम्परा में स्वाध्याय समभाव की उपलब्धि हेतु स्वाध्याय और सत्साहित्य का अध्ययन को आध्यत्मिक साधना के क्षेत्र में विशेष महत्त्व दिया गया है। आवश्यक है। सत्साहित्य का स्वाध्याय मनुष्य का एक ऐसा मित्र है, उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि स्वाध्याय से ज्ञान का प्रकाश प्राप्त जो अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों स्थितियों में उसका साथ निभाता है होता है, जिससे समस्त दु:खों का क्षय हो जाता है। वस्तुत: स्वाध्याय और उसका मार्ग-दर्शन कर उसके मानसिक विक्षोभों एवं तनावों को ज्ञान-प्राप्ति का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। कहा भी हैसमाप्त करता है। ऐसे साहित्य के स्वाध्याय से व्यक्ति को सदैव ही नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाण-मोहस्स विवज्जणाए। आत्मतोष और आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति होती है, मानसिक रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगन्तसोक्खं समुवेई मोक्खं ।। तनावों से मुक्ति मिलती है। यह मानसिक शान्ति का अमोघ तस्सेस मग्गो गुरु-विद्धसेवा, वज्जणा बालजणस्स दूरा। उपाय है। सज्झाय-एगन्तनिसेवणा य, सुत्तत्थसंचिन्तणया घिई य ।। अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह के परिहार स्वाध्याय का महत्व से, राग-द्वेष के पूर्ण क्षय से जीव एकान्त सुख-रूप मोक्ष को प्राप्त सत्साहित्य-स्वाध्याय का महत्त्व अति प्राचीन काल से ही स्वीकृत करता है। गुरुजनों की और वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी लोगों के रहा है। औपनिषदिक चिन्तन में जब शिष्य अपनी शिक्षा पूर्ण करके सम्पर्क से दूर रहना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना स्वाध्याय करना गुरु के आश्रम से बिदाई लेता था, तो उसे दी जाने वाली अन्तिम और धैर्य रखना-यही दुःखों से मुक्ति का उपाय है। शिक्षाओं में एक शिक्षा होती थी---स्वाध्यायान् मा प्रमदः अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद मत करना। स्वाध्याय एक ऐसी वस्तु है जो गुरु स्वाध्याय का अर्थ की अनुपस्थिति में भी गुरु का कार्य करती थी। स्वाध्याय से हम कोई- स्वाध्याय शब्द का सामान्य अर्थ है-स्व का अध्ययन न-कोई मार्ग-दर्शन प्राप्त कर ही लेते हैं। महात्मा गांधी कहा करते वाचस्पत्यम् में स्वाध्याय शब्द की व्याख्या दो प्रकार से की गयी हैथे कि “जब भी मैं किसी कठिनाई में होता हूँ, मेरे समाने कोई जटिल १. स्व अधि इण, जिसका तात्पर्य है स्व का अध्ययन करना। दूसरे समस्या होती है, जिसका निदान मुझे स्पष्ट रुप से प्रतीत नहीं होता शब्दों में स्वाध्याय आत्मानुभूति है, अपने अन्दर झाँक कर अपने आप है। मैं गीता-माता की गोद में चला जाता हूँ, वहाँ मुझे कोई-न-कोई को देखना है। वह स्वयं अपना अध्ययन है। मेरी दृष्टि में अपने विचारों, समाधान अवश्य मिल जाता है।" यह सत्य है कि व्यक्ति कितने ही वासनाओं व अनुभूतियों को जानने व समझने का प्रयत्न ही स्वाध्याय तनाव में क्यों न हो, अगर वह ईमानदारी से सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय है। वस्तुत: वह अपनी आत्मा का अध्ययन ही है, आत्मा के दर्पण करता है तो उसे उनमें अपनी पीड़ा से मुक्ति का मार्ग अवश्य ही में अपने को देखना है। जब तक स्व का अध्ययन नहीं होगा, व्यक्ति दिखाई देता है। अपनी वासनाओं एवं विकारों का द्रष्टा नहीं बनेगा तब तक वह उन्हें जैन-परम्परा में जिसे मुक्ति कहा गया है, वह वस्तुत: राग-द्वेष दूर करने का प्रयत्न भी नहीं करेगा और जब तक वे दूर नहीं होंगे, से मुक्ति है, मानसिक तनावों से मुक्ति है और ऐसी मुक्ति के लिए तब तक आध्यात्मिक पवित्रता या आत्म-विशुद्धि सम्भव नहीं होगी पूर्व कर्म-संस्कारों का निर्जरण या क्षय आवश्यक माना गया है। निर्जरा और आत्म-विशुद्धि के बिना मुक्ति असम्भव है। यह एक सुस्पष्ट तथ्य का अर्थ है- मानसिक ग्रन्थियों को जर्जरित करना अर्थात् मन की है कि जो गृहिणी अपने घर की गन्दगी को देख पाती है, वह उसे राग-द्वेष, अहंकार आदि की गाँठों को खोलना। इसे ग्रन्थि-भेद करना दूर कर घर को स्वच्छ भी रख सकती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी भी कहते हैं। निर्जरा एक साधना है। वस्तुत: वह तप की ही साधना मनोदैहिक विकृतियों को जान लेता है और उनके कारणों का निदान है। जैन-परम्परा में तप-साधना के जो १२ भेद माने गए है, उनमें कर लेता है, वही सुयोग्य वैद्य के परामर्श से उनकी योग्य चिकित्सा स्वाध्याय की गणना आन्तरिक तप के अन्तर्गत होती है । इस प्रकार करके अन्त में स्वास्थ्य लाभ करता है। यही बात हमारी आध्यात्मिक स्वाध्याय मुक्ति का मार्ग है, जैन-साधना का एक आवश्यक अंग है। विकृतियों को दूर करने की प्रक्रिया में भी लागू होती है। जो व्यक्ति उत्तराध्ययनसूत्र में स्वाध्याय को आन्तरिक तप का एक प्रकार स्वयं अपने अन्दर झाँककर अपनी चैतसिक विकृतियों अर्थात् कषायों बताते हुए उसके पाँचों अंगों एवं उनकी उपलब्धियों की विस्तार से को जान लेता है, वही योग्य गुरु के सानिध्य में उनका निराकरण चर्चा की गई है। बृहत्कल्पभाष्य में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है करके आध्यात्मिक विशुद्धता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार स्वाध्याय कि "नवि अत्थि न वि अ होही, सज्झाय समं तवोकम्म" अर्थात् अर्थात् स्व का अध्ययन आत्म-विशुद्धि की एक अनुपम साधना सिद्ध स्वाध्याय के समान दूसरा तप न अतीत में कोई था, न वर्तमान में होती है। हमें स्मरण रखना होगा स्वाध्याय का मूल अर्थ जो, स्वयं Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ में झाँकने की प्रक्रिया है स्वयं को जानने और पहचानने की वृत्ति के अभाव से सूत्रों या ग्रन्थों के अध्ययन का कोई भी लाभ नहीं होता। अन्तर्चक्षु के उन्मीलन के बिना ज्ञान का प्रकाश सार्थक नहीं बन पाता है। कहा भी है , बहुपि सुमहीयं किं काही? चरणविप्पहीणस्स । अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्स कोडिवि ।। अप्यपि सुगमहीयं पयासयं होई चरणजुत्तस्स इक्को वि जह पईवो सचक्खुअस्स पयासेई । अर्थात् जैसे अंधे व्यक्ति के लिए करोड़ों दीपकों का प्रकाश भी व्यर्थ है, किन्तु आँख वाले व्यक्ति के लिए एक भी दीपक का प्रकाश सार्थक होता है, उसी प्रकार जिसके अन्तर्चक्षु खुल गये हैं, जिसकी अन्तर्यात्रा प्रारम्भ हो चुकी है, ऐसे आध्यात्मिक साधक के लिए स्वल्प अध्ययन भी लाभप्रद होता है, अन्यथा आत्म-विस्मृत व्यक्ति के लिए करोड़ों पदों का ज्ञान भी निरर्थक है। स्वाध्याय में अन्तर्चक्षु का खुलना, आत्मद्रष्टा बनना, स्वयं में झाँकना, पहली शर्त है तथा शास्त्र का पढ़ना या अध्ययन करना उसका दूसरी शर्त है। स्वाध्याय शब्द की दूसरी व्याख्या सु+आ+अपि+ईद- इस रूप में भी की गई है। इस दृष्टि से स्वाध्याय की परिभाषा होती है— शोभनोऽध्यायः स्वाध्यायः अर्थात् सत्साहित्य का अध्ययन करना ही स्वाध्याय है। स्वाध्याय की इन दोनों परिभाषाओं के आधार पर एक बात जो उभर कर सामने आती है वह यह कि सभी प्रकार का पठनपाठन स्वाध्याय नहीं है। आत्म-विशुद्धि के लिए किया गया अपनी स्वकीय वृत्तियों, भावनाओं व वासनाओं अथवा विचारों का अध्ययन या निरीक्षण तथा ऐसे सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन, जो हमारी चैतसिक विकृतियों के समझने और उन्हें दूर करने में सहायक हों, ही स्वाध्याय के अन्तर्गत आता है विषय वासनावर्द्धक, भोगाकांक्षाओं को उदीप्त करने वाले, चित को विचलित करने वाले तथा आध्यात्मिक शान्ति और समता को भंग करने वाले साहित्य का अध्ययन स्वाध्याय की कोटि में नहीं आता है। उन्हीं ग्रन्थों का अध्ययन ही स्वाध्याय की कोटि में आता है जिससे चित्तवृत्तियों की चंचलता कम होती हो, मन प्रशान्त होता हो और जीवन में सन्तोष की वृत्ति विकसित होती हो। स्वाध्याय का स्वरूप स्वाध्याय के अन्तर्गत कौन सी प्रवृत्तियां आती हैं, इसका विश्लेषण जैन - परम्परा में विस्तार से किया गया है। स्वाध्याय के पाँच अंग माने गये हैं- १. वाचना २ प्रतिपृच्छना ३ परावर्तन ४. अनुप्रेक्षा और ५. धर्मकथा । १. गुरु के सानि में सद्मन्यों का अध्ययन करना वाचना है। वर्तमान सन्दर्भ में हम किसी सद्ग्रन्थों के पठन-पाठन एवं अध्ययन को वाचना के अर्थ में गृहित कर सकते हैं। २. प्रतिपृच्छना का अर्थ है पठित या पढ़े जाने वाले ग्रन्थ के अर्थबोध में सन्देह आदि की निवृत्ति हेतु जिज्ञासावृत्ति से, या विषय जैन साधना एवं आचार के स्पष्टीकरण के निमित्त प्रश्न-उत्तर करना। ३. पूर्व पठित ग्रन्थ की पुनरावृत्ति या पारायण करना, यह परावर्तना है। ४. पूर्व पठित विषय के सन्दर्भ में चिन्तन-मनन करना अनुप्रेक्षा है। ५. इसी प्रकार अध्ययन के माध्यम से जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, उसे दूसरों को प्रदान करना या धर्मोपदेश देना धर्मकथा है। यहाँ यह भी स्मरण रखना है कि स्वाध्याय के क्षेत्र में इन पाँच अवस्थाओं का एक क्रम है। इनमें प्रथम स्थान वाचना का है। अध्ययन किए गए विषय के स्पष्ट बोध के लिए प्रश्नोत्तर के माध्यम से शंका का निवारण करना, इसका क्रम दूसरा है, क्योंकि जब तक अध्ययन नहीं होगा तब तक शंका आदि भी नहीं होगें। अध्ययन किए गए विषय के स्थिरीकरण के लिए उसका पारायण आवश्यक है। इससे एक ओर स्मृति सुदृढ़ होती है तो दूसरी ओर क्रमशः अर्थ-बोध में स्पष्टता का विकास होता है। इसके पश्चात् अनुप्रेक्षा या चिन्तन का क्रम आता है। चिन्तन के माध्यम से व्यक्ति पठित विषय को न केवल स्थिर करता है, अपितु वह उसके अर्थबोध की गहराई में जाकर स्वतः की अनुभूति के स्तर पर उसे समझने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार चिन्तन एवं मनन के द्वारा जब विषय स्पष्ट हो जाय, तो व्यक्ति को धर्मोपदेश देने या अध्ययन कराने का अधिकार मिलता है। स्वाध्याय के लाभ उत्तराध्ययनसूत्र में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि स्वाध्याय से जीव को क्या लाभ होता है? इसके उत्तर में कहा गया है कि स्वाध्याय से ज्ञानावरणकर्म का क्षय होता है। दूसरे शब्दों में आत्मा मिथ्याज्ञान का आवरण दूर करके सम्यग्ज्ञान का अर्जन करता है। स्वाध्याय के इस सामान्य लाभ की चर्चा के साथ उत्तराध्ययनसूत्र में स्वाध्याय के पाँचों अंगों-वाचना, प्रतिपृच्छना, धर्मकथा आदि के अपने-अपने क्या लाभ होते हैं इसकी भी चर्चा की गयी है, जो निम्न रूप में पायी जाती है— भन्ते! वाचना (अध्ययन) से जीव को क्या प्राप्त होता है? वाचना से जीव कर्मों की निर्जरा करता है, श्रुतज्ञान की आशातना के दोष से दूर रहने वाला वह तीर्थ धर्म का अवलम्बन करता है तथा गणधरों के समान जिज्ञासु शिष्यों को श्रुत प्रदान करता है। तीर्थ-धर्म का अवलम्बन लेकर कर्मों की महानिर्जरा करता है और महापर्यवसान (संसार का अन्त) करता है। भन्ते प्रतिपृच्छना से जीव को क्या प्राप्त होता है? प्रतिपृच्छना (पूर्वपठित शास्त्र के सम्बन्ध में शंका निवृत्ति के लिए प्रश्न करना) से जीव सूत्र, अर्थ और तदुभय अर्थात् दोनों से सम्बन्धित कांक्षामोहनीय (संशय) का निराकरण करता है। भन्ते! परावर्तना से जीव को क्या प्राप्त होता है? परावर्तना से अर्थात् पठित पाठ के पुनरावर्तन से व्यंजन (शब्दपाठ) स्थिर होता है और जीव पदानुसारिता आदि व्यंजना-लब्धि को ६९ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त होता है। भन्ते अनुप्रेक्षा से जीव को क्या प्राप्त होता है? अनुप्रेक्षा अर्थात् सूत्रार्थ के चिन्तन-मनन से जीव आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरणादि सात कर्मों की प्रकृतियों के प्रगाढ़ बन्धन को शिथिल करता है। उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन करता है। उनके तीव्र रसानुभाव को मन्द करता है। बहुकर्म-प्रदेशों को अल्पप्रदेशों में परिवर्तित करता है। आयुष्यकर्म का बन्ध कदाचित् करता है, कदाचित् नहीं भी करता है । असातावेदनीयकर्म का पुनः पुनः उपचय नहीं करता है। जो संसार अटवी अनादि एवं अनन्त है, दीर्घमार्ग से युक्त है, जिसके नरकादि गतिरूप चार अन्त (अवयव) हैं, उसे शीघ्र ही पार करता है। भन्ते धर्मकथा (धर्मोपदेश) से जीव को क्या प्राप्त होता है? धर्मकथा से जीव कर्मों की निर्जरा करता है और प्रवचन (शासन एवं सिद्धान्त) की प्रभावना करता है। प्रवचन की प्रभावना करने वाला जीव भविष्य में शुभ फल देने वाले पुण्य कर्मों का बन्ध करता है।" -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन साधना एवं आचार इसी प्रकार स्थानांगसूत्र' में भी शास्त्राध्ययन से क्या लाभ है? इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें कहा गया है कि सूत्र की वाचना से पाँच लाभ ११. वाचना से श्रुत का संग्रह होता है अर्थात् यदि अध्ययन का क्रम बना रहे तो ज्ञान की वह परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रहती है। २. शास्त्राध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति से शिष्य का हित होता है, क्योंकि वह उसके ज्ञान की प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण साधन है। ३. शास्त्राध्ययन अर्थात् अध्यापन की प्रवृत्ति बनी रहने से ज्ञानावरण कर्म की निर्जरा होती है अर्थात् अज्ञान का नाश होता है। ४. अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति के जीवित रहने से उसके विस्मृत होने की सम्भावना नहीं रहती है। ५. जब श्रुत स्थिर रहता है तो उसकी अविच्छिन्न परम्परा चलती रहती है। स्वाध्याय का प्रयोजन स्थानांगसूत्र' में स्वाध्याय क्यों करना चाहिए इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें यह बताया गया है कि स्वाध्याय के निम्न पाँच प्रयोजन होने चाहिए - Mörd १. ज्ञान की प्राप्ति के लिये २. सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति के लिये ३. सदाचरण में प्रवृत्ति हेतु ४. दुराग्रहों और अज्ञान का विमोचन करने के लिये ५. यथार्थ का बोध करने के लिए या अवस्थित भावों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए।. आचार्य अकलंक ने स्वाध्याय के निम्न पाँच प्रयोजनों की भी चर्चा की है १. बुद्धि की निर्मलता, २ प्रशस्त मनोभावों की प्राप्ति, ३. जिनशासन की रक्षा, ४. संशय की निवृत्ति ५. परवादियों की शंका का निरसन, ६. तप त्याग की वृद्धि और अतिचारों (दोषों) की शुद्धि | - स्वाध्याय का साधक जीवन में स्थान स्वाध्याय का जैन - परम्परा में कितना महत्त्व रहा है, इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर उत्तराध्ययनसूत्र के माध्यम से ही अपनी बात को स्पष्ट करूंगा। उसमें मुनि की जीवन-चर्या की चर्चा करते हुए कहा गया है दिवसस्स चउरो भागे कुज्जा भिक्खू वियक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुज्जा दिणभागेसु चउसु वि ।। पढमं पोरिसिं सज्झायं बीयं झाणं शियायई। तइयाए भिक्खाचरियं पुणो चडत्थीए सज्झायं ।। रतिं पि चउरो भागे भिक्खू कुज्जा विक्खणो तओ उत्तरगुणे कुज्जा राइभाएसु चउसु वि ।। - पदमं पोरिसि सज्झायं बीयं शियाय तइयाए निमोक्खं तु चउत्थी भुन्जो वि सज्झायं ।। - उत्तराध्ययनसूत्र, २६ / ११, १२, १७, १८ मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे प्रहर में ध्यान करे, तीसरे में भिक्षा चर्चा एवं दैहिक आवश्यकता की निवृत्ति का कार्य करे । पुनः चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय करे। इसी प्रकार रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में निद्रा व चौथे में पुनः स्वाध्याय का निर्देश है। इस प्रकार मुनि प्रतिदिन चार प्रहर अर्थात् १२ घंटे स्वाध्याय में रत रहे दूसरे शब्दों में साधक जीवन का आधा भाग स्वाध्याय के लिये नियत था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन-परम्परा में स्वाध्याय का महत्त्व प्राचीन काल से ही सुस्थापित रहा है, क्योंकि यही एक ऐसा माध्यम था जिसके द्वारा व्यक्ति के अज्ञान का निवारण तथा आध्यात्मिक विशुद्धि सम्भव थी। सत्साहित्य के अध्ययन की दिशायें सत्साहित्य के पठन के रूप में स्वाध्याय की क्या उपयोगिता है ? यह सुस्पष्ट है। वस्तुतः सत्साहित्य का अध्ययन व्यक्ति की जीवनदृष्टि को ही बदल देता है। ऐसे अनेक लोग हैं जिनकी सत्साहित्य के अध्ययन से जीवन की दिशा ही बदल गयी। स्वाध्याय एक ऐसा माध्यम है, जो एकान्त के क्षणों में हमें अकेलापन महसूस नहीं होने देता और एक सच्चे मित्र की भाँति सदैव साथ देता है तथा मार्ग-दर्शन करता है। वर्तमान युग में यद्यपि लोगों में पढ़ने-पढ़ाने की रुचि विकसित हुई है, किन्तु हमारे पठन की विषय-वस्तु सम्यक् नहीं है। आज के व्यक्ति के पठन-पाठन का मुख्य विषय पत्र-पत्रिकाएँ हैं। इनमें मुख्य रूप से वे ही पत्रिकाएँ अधिक पसन्द की जा रही हैं जो वासनाओं को उभारने वाली तथा जीवन के विद्रूपित पक्ष को यथार्थ के नाम पर प्रकट करने वाली हैं। आज समाज में नैतिक मूल्यों का जो पतन है उसका कारण हमारे प्रसार माध्यम भी हैं। इन माध्यमों में पत्र-पत्रिकाएँ तथा आकाशवाणी एवं दूरदर्शन प्रमुख हैं आज स्थिति ऐसी है कि ये सभी अपहरण, बलात्कार, गबन, डकैती, चोरी, हत्या 30 J Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार. इन सबकी सूचनाओं से भरे पड़े होते हैं और हम उनको पढ़ने इन विकृत परिस्थितियों में यदि मनुष्य के चरित्र को उठाना है तथा देखने में अधिक रस लेते हैं। इनके दर्शन और प्रदर्शन से हमारी और उसे सन्मार्ग एवं नैतिकता की ओर प्रेरित करना है तो हमें अपने जीवनदृष्टि ही विकृत हो चुकी है, आज सच्चरित्र व्यक्तियों एवं उनके अध्ययन की दृष्टि को बदलना होगा। आज साहित्य के नाम पर जो जीवन-वृत्तान्तों की सामान्य रूप से, इन माध्यमों के द्वारा उपेक्षा की भी है वह पठनीय है, ऐसा नहीं है। आज यह आवश्यक है कि सत्जाती है। अत: नैतिक मूल्यों और सदाचार से हमारी आस्था उठती साहित्य का प्रसारण हो और लोगों में उसके अध्ययन की अभिरुचि जा रही है। जागृत हो। यही सच्चे अर्थ में स्वाध्याय है। लाल दोशी, 32/2-35. कोठारी 5. 6. 1. उत्तराध्ययनसूत्र- संपा०- रतनलाल दोशी, प्रका०- श्रमणोपासक जैन पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० 2478, 32/2-3 / 2. आवश्यकनियुक्ति (हरिभद्रीय वृत्ति), संपा०- बी० के० कोठारी, प्रका०-रिलीजियस ट्रस्ट, बम्बई, 1981, 88-89 / 3. उत्तराध्ययनसूत्र, 29/20-24 / 4. स्थानांगसूत्र, संपा०-मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1981, 5/3/223 / वही-५/३/२२४। तत्त्वार्थराजवार्तिक, संपा०- डॉ० महेन्द्रकुमार जैन, प्रका०- भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, 1957, 9/25 / उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०-रतनलाल दोशी, प्रका०- श्रमणोपासक जैन पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० 2478, 26/11,12,17,18 /