Book Title: Jain Dharm me Samtavadi Samaj Rachna ke Prerak Tattva
Author(s): Nizamuddin
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 5
________________ चतुर्थ खण्ड | ३३४ दम है, परम दान है, परम तप है।' यही परम यज्ञ, परम फल, परम मित्र और परम सुख है। अहिंसा निर्बल, कायर या शक्तिहीन का काम नहीं, यह तो सबल व्यक्ति का अस्त्र है। शक्ति होने पर किसी को न सताया जाये, न बदला लिया जाये अपितु क्षमा कर दिया जाये, यही वीरता का लक्षण है, यही अहिंसा है, इसी को निर्भयता कहेंगे । जब कहते हैं कि मैं किसी से वैर नहीं रखता, कोई मुझ से वर न रखे, सब प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है खामेमि सव्वे जीवा, सब्वे जीवा खमंतु मे । मित्ति मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झं न केणई। तब मनुष्य को सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव रखना चाहिए-'मेति भूएसु कप्पए ।' सामायिक का अर्थ है प्राणिमात्र को आत्मवत् समझना, समत्व का व्यवहार करना । सामायिक वह व्यवहार है जिसके द्वारा हम समत्व को, समता भाव को अपने जीवन में उतारते हैं"समस्य प्राय: समायः स प्रयोजनम् यस्य तत्सामायिकम् ।" हमारे अन्दर समता भाव प्रा जाये तो हमारी अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है। समतावादी समाज की संरचना के लिए सहिष्णता या सहनशीलता का होना भी अनिवार्य है। भारत में शासनप्रणाली की प्रमुख विशेषता धर्म निरपेक्षता है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्मविमुख होना नहीं है, वरन् इसका अर्थ है जैसे हम अपने धर्म को महान्, श्रेष्ठ समझते हैं, वैसे ही दूसरों के धर्मों को महान् और श्रेष्ठ समझे । हम यदि चाहते हैं कि हमारे धर्मग्रन्थ या धर्मग्रन्थों की कोई अवमानना न करे, सब लोग उनका सम्यक् सम्मान करें तो हमें भी चाहिए कि हम भी दूसरी जाति के धर्म का, धर्मग्रन्थों का उचित सम्मान करें। दूसरों की धर्मपद्धति या जीवनपद्धति के प्रति उचित सम्मान प्रदर्शित करना हमारा कर्तव्य है, पर हम ऐसा करते कहाँ हैं ? तभी बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि मंदिर पर झगड़ा खड़ा करके एक दूसरे की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं। हमारे पास महान् धर्मग्रन्थ हैं, महान् धर्मोपदेशक और धर्मगुरु हैं, विद्वान् हैं, आचार्य हैं; लेकिन पाचरण हम सर्वथा विपरीत करते हैं। कष्टसहिष्णु तो हैं ही नहीं, दूसरे के कटु शब्द भी सहन करने की सहनशीलता, विशालहृदयता हमारे अन्दर नहीं । हमारा दृष्टिकोण ही संकुचित और दूसरों के प्रति द्वेष-घणा से पूर्ण रहता है। मानवीय संदर्भ नहीं होते हमारे जीवन-व्यवहार में। हम यह जानते हैं कि क्रोध प्रीति का नाश करता है, माया मैत्री का नाश करती है और लोभ सबका (प्रीति, विनय, मैत्री का) नाश करता है। हमें चाहिए कि उपशम से क्रोध को नष्ट करें, मृदुता से मान को जीतें, ऋजुभाव से माया और संतोष से लोभ पर विजय प्राप्त करें। धर्म जोड़ने का काम करता है, तोड़ने का नहीं। धार्मिक असहिष्णुता न जाने कितने वर्षों से अनिष्ट करती पा रही है। जैनदर्शन सभी मतों का समान आदर करने की दृष्टि प्रस्तुत करता है। प्राचार्य हरिभद्र ने धार्मिक सहिष्णुता के कारण ही अनात्मवाद (बौद्ध दर्शन), १. महाभारत, अनु. पर्व ११६-२८ २. , , ११६-२९ उत्तराध्ययन ६२ ४. दशवकालिक ८।३७ ५. दशवकालिक ८।३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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